Friday, April 28, 2017

हरयाणे के वीर यौधेय

प्रथम अध्याय - हरयाणे के वीर यौधेय


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हरयाणा प्रदेश आर्यावर्त वा भारतवर्ष का एक भाग है इसलिए आर्यावर्त के इतिहास में हरयाणा के इतिहास का समावेश है । हरयाणे का इतिहास भारत के इतिहास से पृथक् हो ही नहीं सकता अतः हरयाणे का इतिहास भारत का इतिहास है । इसकी कड़ियां भारत के इतिहास से जुड़ी हुई हैं और भारत का इतिहास आदि सृष्टि से प्रारम्भ होता है । अतः सर्वप्रथम सृष्टि के इतिहास पर प्रकाश डालना ही हरयाणे का इतिहास प्रकाशित करना है । इसी तथ्य को मानकर सर्वप्रथम सृष्टि का ही इतिहास लिखता हूँ ।

प्रत्येक विचारशील मनुष्य जो वर्तमान सृष्टि में विचरता है उसके मन में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठते हैं कि यह सृष्टि कब बनी ? कितने वर्ष हुए ? इसका लेखा-जोखा किस प्रकार है ? इसकी आयु कितनी है अर्थात् यह कब तक स्थिर रहेगी ? इसका कर्त्ता, धर्त्ता और हर्त्ता कौन है ? इत्यादि ।

उपरिलिखित प्रश्नों का यथार्थ उत्तर ही सृष्टि का प्रामाणिक इतिहास है । हमारे पूर्वज विद्वान् जो सभी विद्याओं में पूर्ण दक्ष थे, इस प्रकार के सृष्टि-विज्ञान अर्थात् कालगणना वा संवत् निश्चित करने तथा ऐतिहासिक घटनाओं का शोध एवं जांच पड़ताल करने में भी सिद्धहस्त थे । अतः वे सृष्टि-विज्ञान के सत्य सिद्धान्तों को समुचित रूप में स्थिर रखने में भी सर्वोपरि योग्य और प्रशंसा के पात्र हैं । उनके सभी नियम, विधान और अनुसंधान श्रेष्ठ विद्याओं से पूर्ण ज्ञान के आधार पर प्रतिष्ठित होने के कारण


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पत्थर की लकीर के समान अमिट होते थे । उनके सिद्धान्तों की सत्यता में मतभेद प्रकट करने का प्रसंग कभी नहीं आता था । उनकी इस महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा का एक आधार था जिसके कारण उनके मन की बगिया सदा ही हरी-भरी और प्रफुल्लित रहती थी । उनके उस प्रतिष्ठित और महत्त्वपूर्ण आधार का नाम वेद है ।

इस तथ्य को पूज्य पं० लेखराम जी आर्य-पथिक ने "सृष्टि का इतिहास" नामक अपनी पुस्तक में उपरिलिखित शब्दों में प्रकट किया है । जिस महापुरुष की दया से पं० लेखराम जी को इस तथ्य का ज्ञान हुआ, उसके लिए वे अपनी इसी पुस्तक में लिखते हैं -

ऐसा ही सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, परम सुधारक स्वामी दयानन्द जी महाराज ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक "ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका" में लिखा है, जो कि अवश्य ही पढ़ने के योग्य और बहुत उत्तम पुस्तक है । उस महात्मा ने अपने इस वैदिक भाष्य में अपने ईश्वर प्रदत्त विद्याबल के द्वारा बहुत बड़ा चमत्कार कर दिया है । सच पूछो तो उसने सत्यान्वेषी जनों की झोलियों को सत्य ज्ञान की मणियों और मोतियों से भर दिया है ।

महर्षि दयानन्द के विषय में पं० लेखराम जी का उपरिलिखित वाक्य सोलह आने सत्य है । क्योंकि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है । वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है । यह आर्य समाज का तीसरा नियम बनाकर महर्षि दयानन्द जी महाराज ने सारे संसार की आँखें खोल दीं ।

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जब सभी सत्य विद्याओं का भण्डार वेद है तो सृष्टि सम्बन्धी सभी रहस्यों का भेद इसी से खुलेगा तथा इससे सम्बन्धित शंकाओं का समाधान वेद को छोड़कर कहीं अन्यत्र ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं । पवित्र वेद में जगद्विधाता ने इस तथ्य को बहुत उत्तम और युक्तिपूर्वक दर्शाया है कि वह प्रभु सनातन न्याय के नियमों के आधार पर इस सृष्टि की रचना और संहार बारम्बार किया करता है और उसकी रचना वा संहार करने की शक्ति कभी भी विकार तथा ह्रास को प्राप्‍त नहीं होती । वह सदैव एकरस बनी रहती है । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, मेघ आदि सभी पदार्थ उसने प्रकृति से बनाये हैं और ईश्वर ने अपने सर्वोपरि ज्ञान एवं बल के आधार पर परस्पर आकर्षण की शक्ति से संयुक्त करके उन को सुस्थिर किया है ।

सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर

सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का करना ईश्वर का ही सामर्थ्य है । सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही इस महान् कार्य को कर सकता है । अल्प सामर्थ्य, अल्पज्ञ और एकदेशी जीव के बलबूते यह कार्य कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्रलय के समय सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति के परमाणु पृथक् पृथक् होते हैं जो किसी मनुष्य आदि प्राणी को बड़े से बड़े सूक्ष्मवीक्षणयन्त्र (दूरबीन) से भी दिखाई नहीं देते, फिर उन को पकड़कर यथायोग्य मिलाकर किसी पदार्थ की रचना करना यह अल्प बुद्धि मानव किस प्रकार कर सकता है । इसलिये इस सृष्टि का निमित्त कारण अथवा कर्त्ता एकमात्र सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही है । अतः सब सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति

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से बनाने, धारण और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण परमात्मा है किन्तु प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण है क्योंकि इस के बिना कुछ नहीं बन सकता । वही अवस्थान्तर रूप हो के सृष्टि और प्रलयावस्था को प्राप्‍त होती है, किन्तु उपादान कारण प्रकृति (परमाणु) जड़ है । वह अपने आप न बन सकती है, न बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है । वेदादि शास्‍त्रों में इस सत्य सिद्धान्त का वर्णन इस प्रकार किया है ।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः ज्ञातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय् हविषा विधेम ॥ (यजुः १३-४)
अर्थ - वह परमात्मा सृष्टि से पूर्व भी विद्यमान था । वह सूर्यादि तेज और प्रकाश वाले सब लोकों को उत्पन्न करने वाला तथा उनका आधार है । जो कुछ पहले उत्पन्न हुवा था, अब वर्तमान में विद्यमान है तथा भविष्यत् में होगा । उस सब का वह ईश्वर स्वामी था, है और रहेगा । वह पृथिवी से लेकर सूर्य लोक पर्यन्त सृष्टि को बना के धारण कर रहा है । उस सुखस्वरूप परमात्मा की भक्ति सब लोगों को करनी चाहिये ।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमान्त्स वेद यदि वा न वेद ॥ ऋक् १०-१२९-३।
इस विविध सृष्टि का प्रकाशक वा कर्त्ता ईश्वर है । वही इस का धारण और प्रलय करता है । वही इस जगत् का स्वामी है । उसी सर्वव्यापक प्रभु में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति

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और प्रलय को प्राप्‍त होता है । उसी सृष्टिकर्त्ता परमात्मा को जानना चाहिए ।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति ।
यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति तद् विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म ॥
(तैत्तिरीयोपनिषद् भृगु अनु. १ ।)
जिस परमात्मा की रचना से सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं । जिससे उत्पन्न हुए जीवन को धारण करते हैं और जिस में प्रलय को प्राप्‍त होते हैं । उसके जानने की इच्छा करो । निष्कर्ष यह निकला कि ईश्वर ही इस जगत् का कर्त्ता-धर्त्ता और हर्त्ता है । हां ! जीव इतना अवश्य कर डालता है कि वह परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अपनी अनेकविध रचनायें करता रहता है । स्वयं मूलतः किसी वस्तु को बनाने का उसमें कोई सामर्थ्य नहीं है अतः उस जीव को साधारण निमित्त कारण कह सकते हैं ।

ईश्वर-जीव में भेद

ईश्वर, जीव और प्रकृति - ये तीनों पदार्थ अनादि और अनन्त हैं किन्तु इनमें समता और भिन्नता दोनों ही विद्यमान हैं । तीनों सदा से हैं और सदा रहेंगे । यह सत्ता का गुण वा धर्म इन तीनों में सदा समान रूप से रहता है । ईश्वर जीव की प्रकृति के साथ सत्ता में समानता होते हुए भी भिन्नता यह है कि ये दोनों चेतन हैं तथा प्रकृति जड़ है । जीव-ईश्वर में भी यह भिन्नता है - जीव अल्प, अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है तथा जन्म-मरण के प्रवाह में पड़ने वाला

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है । परन्तु ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सृष्टि का रचयिता, धर्ता और संहर्ता, जीवों को कर्मानुसार फल प्रदान करने वाला है । यह भेद ईश्वर और जीव दोनों में सदा रहता है । यह भिन्नता दोनों के गुण, कर्म तथा स्वभाव की पृथकता की कारण हुवा करती है । इसलिए ये दोनों न कभी एक थे, न एक हैं और न ही एक होंगे । अर्थात् तीनों कालों में ईश्वर और जीव पृथक्-पृथक् रहते हैं, न कभी जीव ईश्वर बनता है और न ईश्वर ही जीव बनता है । उन की यह भिन्नता नित्य ही है । इस में सन्देह करने की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है । यह सार्वकालिक और सार्वभौम सिद्धान्त है । इस भेद को वेद भगवान् ने इस प्रकार स्पष्ट किया है –
न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उवथशासश्चरन्ति ॥ यजुः १७।३१॥
व्याख्यान - हे जीवो ! जो परमात्मा इन भुवनों का बनाने वाला है उस को तुम लोग नहीं जानते हो । इसी हेतु से तुम अत्यन्त अविद्या से आवृत मिथ्यावाद, नास्तिकत्व बकवाद करते हो, इस से दुःख ही तुमको मिलेगा, सुख नहीं । तुम लोग केवल स्वार्थ साधक प्राण-पोषण मात्र में ही प्रवृत्त हो रहे हो । केवल विषय-भोगों के लिए ही अवैदिक कर्म करने में प्रवृत्त हो रहे हो और जिसने ये सब भुवन रचे हैं, उस सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, परब्रह्म से उलटे चलते हो अतःएव उसको तुम नहीं जानते ।
प्रश्न - वह ब्रह्म और हम जीव आत्मा लोग - ये दोनों एक हैं वा नहीं ?
उत्तर - अन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ब्रह्म

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और तुम जीवों में अन्तर स्पष्ट विद्यमान है । अतः इन दोनों की एकता युक्ति और वेद से कभी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि जीव-ब्रह्म का पूर्व से ही भेद है । जीव अविद्यादि दोषयुक्त है, ब्रह्म अविद्यादि दोषयुक्त कदापि नहीं होता ।इस से यह निश्चित है कि जीव और ब्रह्म एक न थे न होंगे और न ही हैं । किं च व्याप्यव्यापक, आधाराधेय, सेव्य-सेवक और जन्यजनक अथवा पिता पुत्रादि सम्बन्ध तो जीवादि के साथ ब्रह्म का है । इस से जीव ब्रह्म की एकता मानना किसी मनुष्य को योग्य नहीं । उपरिलिखित वेदमन्त्र के भाष्य में महर्षि दयानन्द ने जीव और ब्रह्म का भेद स्पष्ट कर दिया है ।
ऋग्वेद (१.१६४.२०) में इस भेद को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥
"जो ब्रह्म और जीव दोनों चेतनता और पालनादि गुणों में सदृश, व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त, परस्पर मित्रतायुक्त, सनातन अनादि हैं और वैसा ही अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ प्रकृति है । इन तीनों के गुण, कर्म, स्वभाव भी अनादि हैं । इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पाप पुण्य रूप फलों को अच्छे प्रकार भोगता है । दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोगता हुवा चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है । जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्नस्वरूप तीनों अनादि हैं ।"

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प्रकृति, परमाणु तथा त्रसरेणु का लक्षण

सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः ॥सांख्यदर्शन १.६१॥
अर्थात् (सत्त्व) शुद्ध (रजः) मध्य, (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता इन तीन गुणों वाले परमाणुओं को मिलाकर जो एक संघात होता है उसका नाम प्रकृति है । परमाणु भी इसका नाम है ।
जालान्तरगते रश्मौ यत्सूक्षमं दृश्यते रजः ।
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुः प्रचक्षते॥ मनु० ८.१३२॥
मकान के रोशनदान में से प्रविष्ट होती हुई सूर्य की धूप में जो सूक्ष्म-सूक्ष्म रज (जर्रे) दीखते हैं, वह मापने के प्रमाणों में प्रथम (परिणाम) त्रसरेणु कहलाता है । ऊपर जो लक्षण किए हैं, उनकी व्यवस्था इस प्रकार ठीक बैठती है - साठ परमाणुओं के मिलते से एक अणु बनता है । दो अणु का एक द्वयणुक होता है । द्वयणुक का स्थूल वायु होता है । तीन

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द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अथवा तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथिव्यादि दृश्य पदार्थ होते हैं ।

सृष्टि प्रवाह से अनादि

सृष्टि का प्रारम्भ कभी नहीं होता, क्योंकि इसका रचना-क्रम प्रवाह से चला आ रहा है । जैसे दिन से पूर्व रात और रात से पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है । इसी प्रकार सृष्टि से पूर्व प्रलय और प्रलय से पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के पीछे सृष्टि का चक्र अनादि काल से चला आता है । इसका आदि और अन्त नहीं । किन्तु जैसे दिन और रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है उसी प्रकार सृष्टि और प्रलय का आदि अन्त होता रहता है । क्योंकि जैसे परमात्मा, जीव तथा जगत् का कारण (प्रकृति) तीन स्वरूप से अनादि है वैसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय प्रवाह से अनादि है । जैसे नदी का प्रवाह वैसा ही दीखता है, ऐसे व्यवहारों को प्रवाह रूप जानना चाहिए । जैसे ईश्वर के गुण वा स्वभाव का आरम्भ और अन्त नहीं, उसी प्रकार उसके कर्त्तव्य कर्म सृष्टि आदि का आरम्भ तथा अन्त नहीं है । वह प्रवाह से अनादि है ।

सृष्टि की रचना

सृष्टि की रचना तीन अनादि तत्त्वों वा पदार्थों से होती है । इनकी चर्चा श्वेताश्वतर उपनिषद् (४।५) में इस प्रकार की है -

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अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुष्माणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥
प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज हैं अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं । इनका कारण कोई नहीं है । इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फंसता है और उसमें परमात्मा न फंसता और न उसका भोग करता है । ईश्वर विषय भोगों की कामनाओं से सर्वथा ऊपर है, अतः इनमें उसकी आसक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । वेद भगवान् "शुद्धमपापविद्धम्" का उपदेश करता है । वह परमात्मा अविद्या अज्ञानादि क्लेश और सब दोषों से पृथक् है अतः वह पापयुक्त वा पाप करने वाला कभी नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वभाव से ही धर्मात्मा है । अतः वह विषय भोगों में कैसे फंस सकता है । सदैव शुद्ध पवित्र और पाप से दूर रहने वाला धर्मात्मा विषय भोगों में आसक्त नहीं हो सकता ।

उपर्युक्त प्रकृति ही सब संसार के बनाने की सामग्री है, यही सृष्टि का उपादान कारण है । इसके जड़ होने से इसमें स्वयं सृष्टि को बनाने और बिगाड़ने का सामर्थ्य नहीं है । प्रकृति के द्वारा सृष्टि का बनाना तथा उस बनी हुई विकृति (सृष्टि) को पुनः प्रकृति रूप करना सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ही कार्य है । क्योंकि जब कोई वस्तु बनाई जाती है तो उसमें विभिन्न साधनों की आवश्यकता पड़ती है जैसे ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ तथा दिशा काल और आकाश ये साधारण कारण हैं जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार निमित्त, मिट्टी उपादान कारन और दण्ड चक्रादि

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सामान्य निमित्त कारण, दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि निमित्त साधारण कारण और निमित्त कारण भी होते हैं । इन तीनों कारणों के बिना कोई वस्तु न बन सकती है, न बिगड़ सकती है ।
सर्वव्यापक परमात्मा जिस प्रकृति के भीतर भी वह व्यापक है, उस व्यापक प्रकृति वा परमाणु (कारण) से स्थूल जगत् को बनाकर आप उसी में व्यापक होके साक्षीभूत आनन्दमय हो रहा है । सृष्टिकाल में अनेक प्रसिद्ध चिह्नों वा लक्षणों से युक्त होने से वह जानने के योग्य होता है । इसी अवस्था में वह उपलब्ध हो सकता है । प्रलयावस्था में उसे प्राप्‍त नहीं कर सकते । क्यों कि -
तम आसीत्तमसा गूढमग्रे (ऋग्वेद १०.१२९.३)
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतकर्यमविज्ञेयं प्रसुप्‍तमिव सर्वतः ॥ (मनु० १।५॥)
यह जगत् सृष्टि से पूर्व प्रलय में अन्धकार से आवृत = आच्छादित (ढ़का हुवा) था और प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है । उस समय न किसी को जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था । प्रलयावस्था में सब जीव प्रसुप्‍त दशा में ही होते हैं । गाढनिद्रा में जीवात्मा सर्वथा बाह्यज्ञान रहित होता है अतः विवशता के कारण वह जान नहीं सकता तथा सृष्टि के अभाव में परमात्मा के जानने के लिए प्रसिद्ध चिन्हों वा साधनों का भी अभाव होता है । किन्तु जब सृष्टि हो जाती है (जैसे वर्तमान में) तब प्रसिद्ध

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लक्षणों से युक्त होने से यह जगत् जानने वा उपलब्ध होने के योग्य होता है । जीवात्मा इस सृष्टि का प्रत्यक्ष कर्त्ता है और उपभोग करता है ।

सृष्टि रचना का क्रम

प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारो अहंकारात्पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं ।
पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥
सांख्यदर्शन १।६१॥
प्रकृति का लक्षण कह चुके हैं । वह परमसूक्षमरूप प्रकृति परमाणुओं के संयोग से जब कुछ स्थूल आकार वाली हो जाती है तब उसको महत्तत्त्व कहते हैं । उससे जब कुछ और स्थूल रूप होता है वह अहंकार कहलाता है । अहंकार से भिन्न भिन्न पांच सूक्षमभूत जिन्हें पञ्चतन्मात्रायें कहते हैं, उत्पन्न होते हैं । इनसे दोनों प्रकार की इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राण ये पांच ज्ञानेन्द्रियां और वाक् हस्त, पाद, गुदा और उपस्थ ये पांच कर्मेन्दियां उत्पन्न होती हैं । और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है । इस प्रकार पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलभूत जिनको हम लोग देखते तथा प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, पैदा हुये । इस सृष्टि की रचना में सूक्षम से स्थूल रूप किस प्रकार आया करता है इसका वर्णन महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास में इस प्रकार किया है –
नित्यायाः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थायाः प्रकृतेरुत्पन्नानां परमसूक्ष्माणां पृथक्पृथग्वर्तमानानां तत्त्वपरमाणूनां प्रथमः संयोगारम्भः संयोगविशेषादवस्थान्तरस्य स्थूलाकारप्राप्‍ति सृष्टिरुच्यते ।

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अनादि नित्यस्वरूप सत्त्व, रजस् और तमोगुणों की एकावस्था रूप प्रकृति से उत्पन्न जो परमसूक्ष्म पृथक्-पृथक् तत्त्वावयव विद्यमान हैं उन्हीं का प्रथम ही जो संयोग का आरम्भ है, संयोग विशेषों से अवस्थान्तर (दूसरी अवस्था) को सूक्षम से स्थूल-स्थूल बनते-बनते विचित्र रूप बनी है । इसी से यह संसर्ग होने से सृष्टि कहाती है । प्रकृति से प्रारम्भ कर पंच स्थूलभूतों तक की उत्पत्ति का वर्णन ऊपर कर चुका हूँ । इसका वर्णन उपनिषद में इस प्रकार किया है -
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या औषधयः औषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः, रेतसः पुरुषः, स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । (तै० उ० ब्र० अनु० १)
आकाश विभु (सर्वव्यापक) होने से सब पदार्थों का अधिकरण (आधार) है और उससे भी विभु तथा अतिसूक्ष्म परमात्मा है । आकाश को परमात्मा ने उत्पन्न किया है । आकाश में जो परमाणु थे उनको समेटकर संयोग करने से जो अवकाश उत्पन्न सा होता है, उसे ही आकाश की उत्पत्ति कहते हैं । यथार्थ में आकाश तो नित्य है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती । इस आकाश अर्थात् अव्यक्त प्रकृति (शून्य) से वायु उत्पन्न हुवा, वायु से अग्नि प्रादुर्भूत हुवा, अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई और जल से पृथिवी उत्पन्न हुई । यह व्यवस्था परमाणुओं में हुई । यह उत्पत्ति काल की व्यवस्था है । आगे प्रलयकाल में इससे विपरीत होता है क्योंकि सृष्टिरचना के समय परमाणुओं के संयोग से रचना आरम्भ होती है किन्तु परमाणुओं के संयोग के स्थान पर वियोग चलता है । त्रसरेणु द्वयणुक में विभाजित हो जाता है और द्वयणुक

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विभाजित होकर अणु के रूप को धारण करता है और अणु से परमाणुओं को प्राप्‍त हो मूल प्रकृति का रूप धारण कर लेता है । सृष्टि बनते समय सूक्ष्म परमाणुओं के मिलने से स्थूल रूप धारण करती है ।

जैसे पृथिवी से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है । यह महाप्रलय के बाद का सृष्टि क्रम है । क्योंकि परमेश्वर सृष्टि का निमित्त कारण और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है, जब महाप्रलय होता है तब आकाशादि क्रम अर्थात् आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता और अग्नि आदि का होता है तब अग्न्यादि क्रम से और जब अग्नि का प्रलय नहीं होता तो जल क्रम से सृष्टि का प्रारम्भ होता है । अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहां जहां तक प्रलय होता है, वहां वहां से सृष्टि की उत्पत्ति होती है ।

सृष्टि का प्रयोजन

परमात्मा में जगत् की रचना करने का विज्ञान बल और क्रिया है । यदि वह सृष्टि की रचना न करे तो उपरिलिखित शक्ति परमात्मा की सार्थक नहीं हो सकती और परमात्मा के न्याय, दया, रचना, धारणादि गुण जगत् के बनाने से ही सार्थक होते हैं । जब वह जगत् को बनावे तब ही उसका अनन्त सामर्थ्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने से ही सफल होता है । जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है । यदि ईश्वर

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सृष्टि न रचता तो सब जीवात्मा प्रलय में निकम्मे पड़े रहते जैसे सुषुप्‍ति में पड़े रहते हैं और प्रलय से पूर्व सृष्टि में जीवों को पाप-पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव कैसे भोग सकते ? बिना जगत् की उत्पत्ति के इस का कोई दूसरा उपाय नहीं है और बहुत से पवित्रात्मा मुक्ति के साधन करके मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्‍त होते हैं । कुछ आलसी लोग इस प्रकार की शंका करते हैं कि यदि ईश्वर इस सृष्टि की रचना न करता तो वह स्वयं भी आनन्द में रहता और जीवों को भी सुख दुःख प्राप्‍त न होता । यथार्थ बात यह है कि यदि सृष्टि के सुख दुःख की तुलना की जाये तो दुःख की अपेक्षा सुख कई गुणा अधिक होता है और मोक्ष प्राप्‍ति तो जगत् में ही होती है । अतः पुरुषार्थी सृष्टि रचना से पूर्ण लाभ उठाकर पूर्ण आनन्द की प्राप्‍ति करते हैं ।

सृष्टि की आयु

सृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात् जब तक स्थिर रहती है, उस समय को शास्त्रीय परिभाषा में एक कल्प कहते हैं । इसी की दूसरी संज्ञा सहस्रमहायुग भी है । यह कल्प चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों का होता है । इसमें वेद का प्रमाण है –
शतं तेऽयुतं हायनान् द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः ।
विश्वेदेवास्तेऽनुमन्यन्तामहृणीयमानाः ॥
(अथर्ववेद काण्ड ८, अनु० १, मं० २१॥
इसका अर्थ यह है कि दस हजार सैंकड़ा अर्थात् दस लाख तक शून्य देने पर अनुक्रम पूर्वक दो, तीन और चार ये अंक

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रखने से सृष्टि की आयु का ब्यौरा वा हिसाब प्राप्‍त होता है ।

वेदों के साक्षात् कृतवर्मा ऋषियों ने सृष्टि विज्ञान को भली भांति समझा और लोक कल्याणार्थ इसका प्रचलन किया । सूर्य सिद्धान्त (जो गणित ज्योतिष का सच्चा और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसके रचयिता मय नामक महाविद्वान् थे ) में लिखा है -
अल्पावशिष्टे तु कृतयुगे मयो नाम महासुरः
अर्थात् कृतयुग (सतयुग) जब कुछ बचा हुआ था, तब मय नामक विद्वान् ने यह ग्रन्थ बनाया । आज से इक्कीस लाख, पैंसठ सहस्र अड़सठ (२१, ६५,०६८) वर्ष पुराना यह ग्रन्थ है । क्योंकि वर्तमान कलियुग के पांच सहस्र अड़सठ (५०६८) वर्ष बीत चुके । इस से पूर्व आठ लाख चौंसठ सहस्र (८,६४,०००) वर्ष द्वापर के, बारह लाख छियानवें सहस्र (१२,९६,०००) वर्ष त्रेता युग के बीत चुके हैं । इन सबको मिलाकर २१६५०६८ वर्ष पुराना तो कम से कम यह सूर्य सिद्धान्त नामक ग्रन्थ है । कुछ समय इस में सतयुग के अन्त का भी मिलाया जा सकता है । लाखों वर्ष पुराने इस ज्योतिष के ग्रन्थ में भी सृष्टि की आयु वेद के अनुसार ही लिखी है –
युगानां सप्‍ततिः सैका मन्वन्तरमिहोच्यते ।
कृताब्दसंख्यस्तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः ॥
ससन्धयस्ते मनवः कल्पे ज्ञेयाश्चतुर्दश ।
कृतप्रमाणः कल्पादौ सन्धिः पञ्चदशः स्मृतः ॥
अर्थात् इकहत्तर (७१) चतुर्युगियों को एक मन्वन्तर कहते हैं । एक कल्प में सन्धिसहित ऐसे-ऐसे चौदह मन्वन्तर होते हैं । कल्प के प्रारम्भ में तथा प्रत्येक मन्वन्तर के अन्त में

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जो सन्धि हुवा करती है वह भी एक सतयुग के वर्षों के समान अर्थात् सत्रह लाख अठाईस सहस्र (१७,२८,०००) वर्षों की होती है । इस प्रकार एक कल्प में पन्द्रह सन्धियां होती हैं । इसकी गणना निम्न प्रकार से हुई -

चतुर्युगी अथवा महायुग
नामयुगयुग के वर्षों की निश्चित संख्या'
१ सतयुग (कृतयुग)१७,२८००० वर्ष
२ त्रेतायुग१२,९६,००० वर्ष
३ द्वापर युग८,६४००० वर्ष
४ कलियुग४,३२००० वर्ष
कुल योग४३,२०,००० वर्ष
तेतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक चतुर्युगी होती है जिसका नाम महायुग भी है । यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि कलियुग से दुगुना द्वापर, तीन गुणा त्रेता और चार गुणा सतयुग (कृतयुग) होता है । उपर्युक्त एक सहस्र महायुग का एक कल्प होता है जो कि सृष्टि की आयु है । इस का वर्णन सूर्य सिद्धान्त में निम्न प्रकार से है -
इत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः ।
कल्पं ब्राह्ममहः प्रोक्तं शर्वरी तस्य तावती ॥
वह जगद्विधाता परमेश्वर एक सहस्र महायुग तक इस सृष्टि को स्थित रखता है । इसी काल को एक ब्राह्म दिन कहते हैं । इसी का नाम एक कल्प है । जितना काल एक ब्राह्म दिन का होता है उतना ही ब्राह्मरात्रि अर्थात् प्रलयकाल होता है ।

पृष्ठ १८

इस गणना को मन्वन्तरों के अनुसार इस प्रकार गिनते हैं । तेतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों का एक महायुग अथवा एक चतुर्युगी । इन इकहत्तर चतुर्युगियों का नाम एक मन्वन्तर । इसका काल तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस सहस्र (३०,६७, २०,०००) वर्ष हुवा । यह काल सन्धि रहित मन्वन्तरों का हुवा । चौदह मन्वन्तरों के अन्त की चौदह सन्धियां तथा सर्गादि की एक सन्धि ये कुल मिलाकर पन्द्रह सन्धियां हुईं । एक सन्धि का काल एक कृतयुग जितना अर्थात् सतरह लाख, अठाईस हजार वर्ष (१७, २८,०००) होता है। इस प्रकार पन्द्रह सन्धियों का काल दो करोड़, उनसठ लाख और बीस सहस्र वर्ष हुवा । इस को चौदह मन्वन्तरों के पूर्वोक्त ४२९४०८०००० काल में जोड़ने से सृष्टि की आयु ४,३२,००००००० वर्ष ठीक हो जाती है ।
महर्षि व्यास जी ने महाभारत में इस विषय में उल्लेख किया है -
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥
(गीता अ० ८, श्लोक १७)
एक हजार चतुर्युगियों तक एक ब्राह्म दिवस होता है तथा उतनी ही बड़ी उसकी ब्राह्मरात्रि भी होती है । यहां सृष्टि और प्रलय की आयु का वर्णन दूसरे प्रकार से कर दिया है ।

पृष्ठ १९

सृष्टि संवत्

सृष्टि को उत्पन्न हुए कितना समय व्यतीत हो चुका है? इसकी गणना निम्न प्रकार से है –
एक सर्ग में चौदह मन्वन्तर होते हैं । अब तक छः मन्वन्तर बीत चुके हैं और सातवां मन्वन्तर बीत रहा है, जिस की अठाईसवीं चतुर्युगी का भोग हो रहा है ।

छः मन्वन्तरों का बीता हुवा समय१८४०३२०००० वर्ष
सातवें मन्वन्तर की २७ चतुर्युगियों का काल११६६४०००० वर्ष
अठाईसवीं चतुर्युगी के तीन युगों का व्यतीत समय३८८८००० वर्ष
वर्तमान कलियुग का अतीत समय५०६७ वर्ष
कुल योग१,९६,०८,५३,०६७ वर्ष

वर्तमान में कलियुग का ५०६८ वां वर्ष बीत रहा है । इस अड़सठवें वर्ष के आज श्रावणी दिन तक १३३ दिन बीत चुके हैं । तदनुसार एक अरब, छियानवें करोड़, आठ लाख, तरेपन हजार सड़सठ वर्ष सृष्टि तथा वेदों की उत्पत्ति को हो गये हैं । यह अड़सठवां वर्ष भोगा जा रहा है और अभी दो अरब, पैंतीस करोड़, इक्यानवें लाख, छियालीस सहस्र नौ सौ बत्तीस वर्षों का भोग होना शेष है ।
संकल्प के आधार पर
सम्पूर्ण आर्यावर्त देश में जो संकल्प धार्मिक कृत्य संस्कारादि शुभ कर्मों के अवसर पर द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के यहां पढ़ा जाता है उस से भी सृष्टि का सत्यज्ञान होता है, जैसे विक्रमादित्य के सं० २०२५ के श्रावणी उपाकर्म पर हम "हरयाणे के वीर यौधेय" नामक इतिहास छापना प्रारम्भ कर रहे हैं । इस के लिए निम्नरीति से संकल्प पढ़ा जाता है -

पृष्ठ २०

ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरार्द्धे वैवस्ते मन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे पञ्चविंशत्युत्तरद्विसहस्रतमे वैक्रमाब्दे दक्षिणायने वर्षर्तौ श्रावणमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमायां गुरुवासरे सिंहराशौ भारतवर्षस्य हरयाणाप्रान्ते वर्तमानस्य रोहितकमण्डलस्य झज्जरगुरुकुले भगवानदेव आचार्योऽहं "वीर यौधेय" नाम हरयाणाप्रान्तीयेतिहासं प्रकाशयितुं प्रवृत्तोऽस्मि * ।
(* सौर वर्ष के अनुसार १७ श्रावण १८९० शकाब्द और ईस्वी सन् १९६८ है)
इस प्रकार सभी आर्य लोग आबालवृद्धवनिता इस संकल्प को जानते तथा प्रयोग करते चले आये हैं । इस संकल्प के विषय में कोई विरोध वा मतभेद नहीं । आज तक यह सारे आर्यावर्त में एक समान चल रहा है और सब ग्रन्थों में भी एक ही प्रकार का लेख पाया जाता है, अतः इस को अन्यथा करने वा मिथ्या कहने का सामर्थ्य किसी में नहीं हो सकता । इसीलिये सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक सृष्टि संवत् की गणना ठीक होती चली आई है । जिस से यह सिद्ध होता है कि आर्य लोग बड़े चतुर, सभ्य और विद्वान् होते चले आये हैं । उपर्युक्त संकल्प के आधार पर भी सृष्टि संवत् वहीं ठहरता है जो पहले लिख आये हैं । इस विषय में अधिक जानना चाहें तो धर्मवीर अमर शहीद पं० लेखराम जी आर्य पथिक द्वारा लिखित "सृष्टि का इतिहास" नामक पुस्तक में देख लेवें ।

पाश्चात्य विद्वानों में सृष्टि की आयु के विषय में बहुत मतभेद हैं जिनमें से कुछ के मत इस प्रकार हैं -

पृष्ठ २१

सृष्टि की आयु और पाश्चात्य विद्वान्

पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि भूमि सूर्य का एक भाग है और इसको ठण्डा होने में बहुत दीर्घकाल लगता है, तब कहीं यह वनस्पतियों को उत्पन्न करने तथा पशु, पक्षी और मानव के रहने के योग्य बनती है ।
 प्रो० एस. न्यूकोम्ब की मान्यता है कि भूमि को ठण्डा होने में एक करोड़ वर्ष लगे हैं ।
 प्रो० काल साहिब भूमि को ठण्डा होने का काल सात करोड़ वर्ष मानते हैं ।
 सर विलियम टामस महोदय के मत में भूमि के ठण्डा होने में दस करोड़ वर्ष लग गये ।
 प्रो० लचाफ का कथन है कि भूमि के ठण्डा होने में पैंतीस करोड़ वर्ष लग गये ।
 प्रो० रैड के कथनानुसार योरुप में जब से वनस्पतियां उगनी प्रारम्भ हुई हैं, तब से पचास करोड़ वर्ष बीत चुके हैं ।
 प्रो० हक्सल (जो भूगर्भविद्या के विशेषज्ञ माने जाते हैं) ने अपने अनुसन्धान के आधार पर लिखा है कि जब वनस्पतियां पृथ्वी पर उगने लगीं उस समय एक अरब वर्ष बीत चुके थे ।

सृष्टि से पूर्व की अवस्था का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध होता है जिसे आज का विज्ञान-जगत् भी स्वीकार करता है । मन्त्र इस प्रकार है -
गीर्णं भुवनं तमसापगूढमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ ।
तस्य देवाः पृथिवी द्यौरुतापोऽरणयन्नोषधीः सख्ये अस्य ॥
(ऋ० १०।८८।२॥)
इस मन्त्र की व्याख्या स्वामी वेदामन्द जी (दयानन्द तीर्थ) महाराज ने स्वाध्याय सन्दोह में निम्न प्रकार से की है -


पृष्ठ २२

  • सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व क्या था, कैसा था ? ये प्रश्न प्रायः सभी विवेकशील महानुभावों के हृदय में उठते हैं किन्तु जैसा इन का समाधान वेद में है, और किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं है । उत्पत्ति से पूर्व यह गीर्णं भुवनं तमसापगूढम् संसार निगला हुआ सा और अन्धकार से अत्यन्त आच्छादित था... सृष्टि में सब से पूर्व एक आग्नेय पिण्ड पैदा हुआ और आविः स्वरभवज्जाते अग्नौ अग्नि के उत्पन्न होने पर प्रकाश हो गया । इस आग्नेय पिण्ड की उत्पत्ति के पीछे सारी सृष्टि क्रमशः उत्पन्न हुई - तस्य देवाः पृथिवी द्यौरुतापोऽरणयन्नोषधीः सख्ये अस्य इस महान् आग्नेय पिण्ड के सहयोग में पृथिवी, द्यौ, जल और औषधियां रमण करने लगीं ।
  • सूर्य से पृथिवीपिण्ड पृथक् हुआ, सहस्रों वर्ष उस पर मूसलाधार वर्षा होती रही । तब कहीं पृथिवी ठंडी हुई और उसके पश्चात् औषधि वनस्पति आदि की उत्पत्ति हुई ।
  • सृष्टि उत्पत्ति का यह क्रम आजकल के वैज्ञानिक बतलाते हैं, वेद विज्ञान का सिद्धान्त ग्रन्थ है । इसमें ऐसे गम्भीर वैज्ञानिक तत्त्वों को देखकर पश्चिमी विद्वान् चकित रह जाते हैं ।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार इनफनिस्टन {Elphinstone} महोदय का (जो बम्बई के राज्यपाल भी रहे थे) कथन है कि ब्राह्मदिवस का जो समय आर्य लोग मानते हैं वह ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार होने से सत्य है । हिन्दुओं की गणनानुसार ब्राह्मदिवस चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष का होता है ।
पाश्चात्य विद्वान् सृष्टि का काल प्रारम्भ में तो बहुत ही थोड़ा मानते थे । उल्लिखित उद्धरणों में आप देख रहे हैं कि

पृष्ठ २३

सृष्टि का काल एक करोड़ वर्ष से लेकर हमारे द्वारा पूर्व प्रतिपादित सृष्टिकाल तक पाश्चात्य विद्वान् स्वीकार करते हैं ।
ये प्रमाण पं० लेखराम जी ने अपनी "सृष्टि का इतिहास" नामक पुस्तक में दिये हैं, मैंने उनमें से कुछ उद्धृत कर दिये हैं ।

आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि

आदि सृष्टि मैथुन अर्थात् माता-पिता के संयोग से नहीं होती, क्योंकि जब स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर परमात्मा उनमें जीवों का संयोग कर देता है, तदनन्तर उन से मैथुनी सृष्टि चलती है ।

सृष्टि के आरम्भ में युवा

आदि सृष्टि में सभी युवक तथा युवतियां ही उत्पन्न होते हैं । क्योंकि जो बालक उत्पन्न होते तो उनके पालने के लिये दूसरे मनुष्य आवश्यक होते । जो वृद्धावस्था में पैदा करता तो वृद्धों से मैथुनी सृष्टि कैसे चलती । इसलिये युवावस्था में ही सृष्टि की रचना हुई ।

भगवान् की विचित्र सृष्टि

भगवान् ने मानवादि के शरीर में इस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिस को विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं । भीतर हाड़ों का जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढ़क्कन, प्लीहा, यकृत्, फुफ्फुस (फेफड़ा), पंखा, कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत् का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूल रचन, लोम नख आदि का स्थापन, आंख की अति सूक्ष्म शिरा का तारवत्

पृष्ठ २४

ग्रन्थन, इन्द्रियों के भागों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्‍ति अवस्था के भोगने के लिए स्थानविशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला-कौशल-स्थापनादि अद्‍भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है । इसके बिना नाना प्रकार के रत्‍न धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार वटवृक्षादि के बीजों में अति सूक्षम रचना, असंख्य रक्त, हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र, मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूलनिर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कषाय, तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगन्धादि युक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द, मूलादि रचना, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि परमेश्वर के विना कोई भी नहीं कर सकता ।" (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास)

भगवान् की विचित्र सृष्टि का वर्णन ऋग्वेद (१।११५।१) में भी इस प्रकार किया गया है –

चित्रं देवानामुद्‍गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
वह देव चराचर का जीवनाधार जड़ और चेतन सब में व्यापक है । द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष इत्यादि सब जगत् को रचकर सब ओर से धारण करता हुवा रक्षा करता है । सबका प्रकाशक अर्थात् बाहर सूर्य के प्रकाश और भीतर वेद के प्रकाश से अन्धकार को दूर भगाता है । मित्र स्वभाव वाले मानव तथा श्रेष्ठ व्यक्तियों का और अग्नि आदि पदार्थों का प्रकाशक है । और चक्षु के समान मार्गदर्शक, सब सत्यों का उपदेष्टा और प्रकाशक है । वह दिव्यगुण वाले विद्वानों के हृदय में उत्कृष्टता का प्रकाशक है । अतः वह ब्रह्म अद्‍भुत स्वरूप वाला है ।

पृष्ठ २५

आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्योऽस्य ज्ञाता कुशलानुशिष्ठः । (कण्ठोपनिषद्)

ब्रह्म के आश्चर्य स्वरूप होने के कारण इसका वक्ता आश्चर्य है, इसका प्राप्‍त करने वाला कुशल है, कुशल पुरुष से शिक्षित होकर इसका ज्ञाता आश्चर्य है अर्थात् इसका वक्ता, ज्ञाता सभी आश्चर्य की अनुभूति करते हैं । वह परमात्मा हमारे सब दुःखों के नाश के लिये, काम, क्रोध आदि शत्रुओं के विनाश के लिए बल है । उसको छोड़कर मनुष्यों का सर्वसुखकारी शरण अन्य नहीं है, यह जानना चाहिए । हमें यह सच्चे हृदय से कहना और अनुभव करना चाहिये । इस प्रकार वह प्रभु हमारे लिये सर्व प्रकार से आश्चर्यप्रद है । इस मन्त्र का उच्चारण करते समय भक्त स्वयं इसे अनुभव करता है ।

भगवान् की इस विचित्र सृष्टि का बखान हरयाणे के आर्य कवि दादा बस्तीराम जी ने अपनी पुस्तक "पाखंड खंडिनी" में बड़े अच्छे प्रकार से किया है । यह भजन भारत के प्रायः सभी भागों में आज भी गाया जाता है । वह इस प्रकार है -

टेक - धन्य तेरी कारीगरी हो कर्त्तार ॥

अन्तरा -

जब निराकार और निर्विकार साकार बना दिया जग कैसे ।
जागृत स्वप्न सुषुप्‍त तू था, फिर रचा मुक्ति का मार्ग कैसे ॥
क्या वस्तु लई जिससे देह भई, फिर बना दई रग-रग कैसे ।
सबको धार रहा, रम सबमें रहा, फिर सबसे रहा अलग कैसे ॥
जब सबमें है तू सब गुलों में बू, सब रूहों की रूह फिर सुगम कैसे ।
जब "अपाणिपादो जवनो गृहीता" फिर कोई पकड़े पग कैसे ॥

पृष्ठ २६

जब सृष्टि कर्त्ता भर्त्ता धर्त्ता, हर्त्ता रहता अनहग कैसे ।
जब काशी काबे में ना पता, फिर जावे पता यहां लग कैसे ॥
वन पर्वत पृथ्वी नभ तारे, सबको रहा तू कैसे धार ॥१॥

किए रंग बिरंगे फूल और बादल, रंग की रैणी कहीं नहीं ।
किए सूरज से चमकते पदार्थ, चमक निराली कहीं नहीं ॥
नर तन-सा चोला सीम दिया, सूई धागा हाथ में कहीं नहीं ।
पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी, हाथ कतरनी कहीं नहीं ॥
बरसे जब जल, जंगल भर दे, आकाश में सागर कहीं नहीं ।
दे भोजन कीड़े कुंजर को, चढ़े दीखैं भण्डारे कहीं नहीं ॥
दिन रात न्याय में फर्क पड़े ना, लगी कचहरी कहीं नहीं ।
कर्मों का फल दे यथायोग्य, मिले रूह और रियायत कहीं नहीं ॥
अखण्ड ज्योति, अपार लीला, किन्हों न पाया तेरा पार ॥२॥

जाने कौन विध गर्भ में रहकर, दे क्रीडा बालकपन की ।
फिर जीवन जवानी आई कहां से, कमी रही न यौवन की ॥
फिर वृद्धपन देकर दिखा दे सबको, बनी सो एक दिन बिगड़न की ।
कोई पैसे-पैसे को मोहताज है, कोई खोल रहे कोठी धन की ॥
कोई पिया संग कामिन खेल करे, कोई रो-रो राख करे तन की ।
कोई भटकते-भटकते उमर गंवावे, कोई तृप्‍ति कर रहा मन की ॥
पर्वत भूमि टीब्बे पर टीब्बे, कहीं कहीं लहर हरे वन की ।
कहीं ताल सुरगे जल से भरे, कहीं चोटी चमक रही पर्वतन की ॥
कहीं सर्द समय के झोले बगैं, कहीं धूप गरद गर्मी घन की ।
कहीं चतुर्मास घटा चढ़ आवे, वर्षा की बहा दे जलधार ॥३॥

चाहे कितना ही बरते ना निबड़े, जब देन लगे तू इतना माल ।
नहीं दे जब चाहे दिन-रात कमाओ, फिर भी वह नर रहे कंगाल ॥

पृष्ठ २७

अदना से आला कर पलक में, जब नर पर तू हो कृपाल ।
राजा का राज ताजों का ताज, तू ही महाराज काल का काल ॥
तू ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुरेश, नरेश हमेश निराली चाल ।
तू इतना जबर, नहीं तेरी खबर, मेरी सुन दिलबर, मुझे कर दे निहाल ॥
रहूं तेरी शरण, गहूं तेरे चरण, मत दे तू मरण हम तेरे लाल ।
ऐ सुखनिधान रख मेरा मान, दे भक्ति दान होकर दयाल ॥
दीनबन्धु सुन हम दीनों की, प्रभु पतित उद्धार ॥४॥

तू अनन्त तेरी गति अनन्त, तुझे देखें सन्त कर योग ध्यान ।
हैं साधन तेरे अमित बड़ेरे, प्रेरें रवि शशि से महान् ॥
जाने कहां सीखे न देखे कीड़ी के बना दिए नाक-कान ।
नहीं छाया धरे रंग इतने भरे, किसी तरह न गिन सकता जहान ॥
सब जगह जोर, नहीं तुझ-सा और, सिर सबके मोड़, सबका प्रधान ।
मायानुगामी जीव का स्वामी, अन्तर्यामी बल निधान ॥
सच्चिदानन्द तू करुणाकन्द, मैं महामन्द मुझे अपना जान ।
अति दुखी भया, तुझे कूक रहा, कर मुझ पे दया दे अपना ज्ञान ॥
तू ही सखा स्नेही तू ही है हमारा परिवार ॥५॥

चार वेद छः शास्त्र पुकारें, सार गुण की संभार नहीं ।
फिर ऋषि मुनि और सन्त महन्त, थके गा-गा पर पार नहीं ॥
जो कर दे सो नहीं बदल सके, किसी और को अख्त्यार नहीं ।
जो करै सो ईश्वर आप करै, किसी और का चहत सहार नहीं ॥
जो करनी चाहे सो कर गुजरे, किसी काम में तू लाचार नहीं ।
कर भक्ति रंक गले लिपटे, बिन भक्ति भूप से प्यार नहीं ॥
जो प्रेमी करै जिससे परिचय, तेरे ऊंच-नीच की ठार नहीं ।
यह 'बस्तीराम' दरवाजे खड़ा, क्यों इसकी सुनते पुकार नहीं ॥
शुभ स्वरूप दर्शा दे अपना खोल के अखण्ड द्वार ॥६॥
धन्य तेरी कारीगरी हो कर्तार ॥

पृष्ठ २८

सृष्टि उत्पत्ति का स्थान

मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप् अर्थात् जिसको तिब्बत कहते हैं, में हुई । यह भारत देश का ही एक भाग था । अंग्रेजों ने अपनी धूर्तता से इसे भारत से पृथक् कर दिया और हमारे राजनैतिक नेताओं की भयंकर भूल से यह अब चीनियों के अधिकार में चला गया । यही नहीं, इसके साथ सहस्रों मील लम्बा चौड़ा भारत का प्रदेश चीनियों ने छीन लिया । जो तिब्बत इन्द्रपुरी और स्वर्ग के नाम से प्रसिद्ध था, जहां का राजा देवराज इन्द्र कहलाता था, जिसका चयन (चुनाव) आदि सृष्टि से महाभारत पर्यन्त होता रहा, जिस तिब्बत की रक्षार्थ भारत के राजे-महाराजे अवसर आने पर देवासुरसंग्राम करते रहे, मानव का आदि उत्पत्ति स्थान वही इन्द्रपुरी तिब्बत आज हमारा नहीं रहा । यही नहीं, इसके साथ हम अपनी शंकर पुरी कैलाश पर्वत को भी चीन के हाथों सौंपकर नपुंसकों की भांति चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं । हमारे नेताओं ने अपनी उदारता का परिचय यह कहकर दिया कि तिब्बत तो सदा से ही चीन का भाग रहा है । उसका फल यह भी हुआ है कि चीनियों ने लद्दाख, सिक्किम, भूटान, नेपाल को भी अपना बतलाना प्रारम्भ कर दिया । इस पर भी उन्होंने सन्तोष नहीं किया । उनकी सेना ने भारत के इन भागों के सहस्रों मील भूभाग पर अधिकार कर लिया और हमें वहां से मार भगाया । हमारे नेता तो उदारता की खान हैं, उन्होंने यह कहकर टाल दिया - "क्या हो गया कुछ ऊंची नीची पर्वत की चोटियों पर चीनियों ने अधिकार कर लिया है, जो बर्फ से ढ़की रहती हैं, जहां मानव रहता ही नहीं, यदि रहता भी है तो बड़ी कठिनाई से ।

पृष्ठ २९

उसके चले जाने से भारत की क्या हानि है ? चीन वाले और आगे बढ़े तथा अब सारे भारत पर ही अपना अधिकार करना चाहते हैं । उसके लिए अनेक प्रकार की सहायता करके पाकिस्तान को उभारते रहते हैं । हमारे लिए यह ऐसी समस्या खड़ी हो गई है जिसे सुलझाया नहीं जा सकता ।

मानव के आदि उत्पत्ति स्थान, भारत के पवित्र भाग स्वर्गपुरी, देवराज इन्द्र के तिब्बत को खोने का यह फल हमें मिला है । जिसकी सुरक्षार्थ हमारे पूर्वजों ने अनेक युद्ध किए, जो देवासुरसंग्राम के नाम से प्रसिद्ध हुए । ये संग्राम आदि सृष्टि से ही प्रारम्भ हो गये थे, जिनकी थोड़ी-सी चर्चा महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार की है । किसी ने शंका कि कि लोग तो पहले तिब्बत में उत्पन्न हुए थे फिर वे सारे भारतवर्ष और संसार में कैसे फैले ? इसका समाधान करते हुए वे लिखते हैं –

  • आदि सृष्टि में केवल एक मनुष्य जाति थी । पश्चात् श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान्, देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो भेद हुए । फिर आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए । शूद्रों में जो मूर्ख और अनाड़ी थे उनसे ही दस्युओं की वृद्धि होने लगी । फिर विद्वानों (देवों) और अविद्वानों (शूद्रों) असुरों में सदा लड़ाई बखेड़ा हुवा करता, जब बहुत उपद्रव होने लगे तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकर यहां आकर बसे । इसी से देश का नाम आर्यावर्त हुवा । तिब्बत प्रदेश इसी का भाग है ।

पृष्ठ ३०

आर्यावर्त्त की सीमा

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्तं विदुर्बुधाः ॥
(मनु० २।२२॥)

सरस्वतीदृषद्‍वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते ॥२॥
(मनु० २०१॥)
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र ॥१॥ तथा देव नदी सरस्वती, पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल व आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम की ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्रा कहते हैं, जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है । हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर तथा रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने प्रदेश हैं, उन सबको आर्यावर्त इसलिए कहते हैं कि आर्य अर्थात् देव विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहलाता है । आर्यावर्त - भारत के असली निवासी आर्य लोग ही हैं । जो विदेशी इतिहासकार लिखते हैं कि मध्य एशिया वा ईरान से आकर आर्य भारतवर्ष में बसे हैं, यह सर्वथा मिथ्या है, इसका कोई प्रमाण नहीं । यदि आर्य लोग बाहर से आकर भारत में बसे हैं तो उन के आने से पूर्व इसका कोई और नाम होना चाहिए । आर्यों के यहां आने से पूर्व का इस देश का नाम बताने का कोई साहस तो करे । तीन काल में भी कोई नहीं बता सकता । यथार्थ बात

पृष्ठ ३१

यह है कि भारत भूमि के एक प्रदेश तिब्बत में ही मनुष्यों की उत्पत्ति हुई और वहां से चलकर शेष सारे आर्यावर्त को बसाने वाले आर्य लोग ही हैं । इसीलिए इसका नाम आर्यावर्त है ।

कौल, भील, द्रविड़ आदि जातियों को जो लोग भारत के आदिवासी बताते हैं और आर्यों को बाहर से आया हुवा लिखते हैं, यह सब विदेशियों की धूर्तता है क्योंकि वे स्वयं विदेशी थे और आर्यों को विदेशी बताकर यह सिद्ध करना चाहते थे कि तुम भी विदेशी, हम भी विदेशी, फिर तुम आर्य लोग इसे अपना देश बताकर स्वराज्य क्यों मांगते हो । हम अंग्रेजों की अपेक्षा भारत पर तुम्हारा कोई अधिक अधिकार नहीं । यह हीन भावना उत्पन्न करके भारतीयों को सदा के लिए अपना दास रखना चाहते थे । यह उनका बहुत बड़ा षड्यन्त्र था और इसमें भारत के सभी पढ़े लिखे लोग फंस गये और अपने ही घर में अपने को विदेशी मान बैठे और सभी इतिहास भूगोल की पुस्तकों में यह पढ़ाने लगे कि आर्य लोग बाहर से आये हुए विदेशी हैं । और दुःख तो यह है कि स्वराज्य प्राप्‍ति के पश्चात् आज २१ वर्ष हो गये फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है ।

इस युग के महापुरुष जगद्‍गुरु महर्षि दयानन्द जी महाराज क्रान्तिकारी थे जिन्होंने डंके की चोट में यह लिखा तथा अपने उपदेशों में भी बार-बार यह कहा - आर्यावर्त देश आर्यों का बसाया हुवा है । ये ही इसके आदिवासी हैं और सृष्टि के आदि से ये ही आज तक यहां बसते आये हैं । कुछ इतिहासकार स्वामी दयानन्द के नाम से उपर्युक्त सत्य को अपने ग्रन्थों में लिखने का साहस करने लगे हैं । जो विदेशी इतिहासकार तथा उनके भारतीय शिष्य द्रविड़, भील आदि जंगली जातियों

पृष्ठ ३२

को भारत के आदिवासी बताते हैं तथा आर्यों को विदेशी कहते हैं वे यह नहीं जानते कि द्रविड़ादि जातियां भी आर्यों की ही सन्तान हैं । उनके पतित होने का कारण मनु जी महाराज ने इस प्रकार लिखा है -
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ (मनु० १०।४३)

पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।
पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः ॥ (मनु० १०।४४)
किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों से लड़कर उन्हें जीत तथा निकालकर इस देश के राजा हुए । पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है ? ये निम्नलिखित क्षत्रिय जातियां यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन आदि धार्मिक क्रियाओं के लोप होने से धीरे-धीरे शूद्रता को प्राप्‍त हो गईं । इसका मुख्य कारण ब्राह्मणों (गुरुओं) के न मिलने से धार्मिक शिक्षा से वञ्चित होना था । जैसे - द्रविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दरद और खश आदि ।

इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि इन जातियों के पूर्वज सब आर्यक्षत्रिय थे । केवल सच्चे गुरुओं के न मिलने से ये शूद्र बन गये । जो अनाड़ी मूर्ख हो उसे ही शूद्र कहते हैं । विदेशी धूर्तों ने आर्यों को विदेशी तथा इन द्रविड़ादि को यहां के आदिवासी बताकर सदा के लिए इनके मध्य एक भित्ति खड़ी कर डाली जिससे भारत के लोग परस्पर झगड़ते रहें और अंग्रेजों का राज्य

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भारत पर सदा बना रहे । फूट डालो और राज्य करो इस नीति को अपनाकर भारत को वे अपना दास रखना चाहते थे । किन्तु पांच सहस्र वर्ष पश्चात् एक महान् क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द आये, जिस निर्भीक सन्यासी ने निर्भय हो इनकी पोल खोल डाली और अंग्रेजी राज्य की जड़ को बारूद का पलीता लगा दिया जिससे विदेशी राज्य का गलासड़ा वृक्ष भस्मसात् हो धड़ाम से गिर पड़ा और इन विदेशी लुटेरों को यहां से भागना पड़ा । इसलिये महर्षि दयानन्द को अंग्रेजों ने अपने गुप्‍त पत्रों में बागी फकीर लिखा और उनको विष देकर मरवाने का षड्यन्त्र स्वयं अंग्रेजों ने किया । ऐसा अब इतिहास लेखक मानने लगे हैं ।

उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि आर्य ही इस आर्यावर्त देश के निवासी हैं और द्रविड़, भील, किरात आदि इन्हीं की सन्तान हैं । इनमें कोई विदेशी नहीं है । इन सब के पूर्वज आर्य ही हैं । यह ठीक है कि आर्यों की सन्तान विदेशों में भी गई और वहां पर ही जाकर बस गई । जैसे ईरान के लोग आर्यों की सन्तान हैं, उनकी स्‍त्रियां घाघरा पहनती हैं जो भारतीय स्‍त्रियों का पहनावा है । स्‍त्रियां अपनी वेश-भूषा को बड़ी देर से छोड़ती हैं । इसी कारण अब तक ईरान में देवियों की वेश-भूषा भारतीय ढंग की है ।

खलीफा हारूरशीद पर किसी शत्रु ने चढ़ाई कर दी थी । उस समय भारत के सिन्ध राजाओं से उन्होंने शत्रु से रक्षार्थ सहायता मांगी । उसकी सहायतार्थ यहां से बड़ी भारी सेना गई थी । उसकी सहायता से खलीफा को विजय प्राप्‍त हुवा । उससे

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प्रसन्न होकर खलीफा ने ईरान का राज्य भारतीय सेना के सेनापति को सौंप दिया । वे सेना सहित वहीं बस गये और आज तक अपने गुण, कर्म, स्वभाव भारतीय ढंग के उनमें सुरक्षित हैं । वे गौवों का दूध-घी खाते तथा मल्ल्युद्ध (कुश्ती) में बड़ी रुचि रखते हैं और आज भी वे सारे संसार में मल्लविद्या में एक अच्छा स्थान रखते हैं ।

सारे अरब देश में क्योंकि मुसलमान हैं और ईरान के लोग भी मुसलमान हैं । मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव उनके खान-पान पर पड़े बिना कैसे रह सकता था । उन पर आर्यधर्म वा परम्पराओं का पूर्ण प्रभाव नहीं रहा । मैं स्वयं श्री रूपचन्द जी आर्य पहलवान बामला (हिसार) निवासी के साथ ईरान के प्रसिद्ध पहलवान जो भारत में आधुनिक कुश्ती की शिक्षा देने के लिए आये हुए थे और कई वर्ष तक भारतीय पहलवानों को मल्ल विद्या का प्रशिक्षण देते रहे, उनसे मिला तथा बातें कीं । उनके प्रशिक्षण का प्रकार देखा । वे हमारे पहलवानों को प्राचीन व्यायाम पद्धति आसनों के व्यायाम के ढंग से ही व्यायाम सिखाते थे जिस से शरीर में लचकीलापन और स्फूर्ति अधिक आये । ईरान के पहलवानों में इसी व्यायाम पद्धति के कारण तथा गोदुग्ध और गोघृत का ही सेवन करने के कारण हमारे भारतीय पहलवानों की अपेक्षा स्फूर्ति बहुत अधिक है । वे प्रथम पांच या दस मिनट में जय-पराजय का निर्णय कर डालते हैं तथा अपनी स्फूर्ति के कारण दूसरे पहलवानों को चक्कर में डाल देते हैं । दौर्भाग्य से भारत के पहलवान भैंस के घी दूध का अधिक सेवन करते हैं तथा आसनों के व्यायाम प्रायः नहीं करते, अतः ये कुश्ती में ईरान के पहलवानों के समान चुस्ती नहीं रखते ।

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रोहतक के कुश्ती दंगल में हमारे तथा ईरानी के पहलवानों में एक और अन्तर मैंने अपनी आंखों से देखा । ईरान के पहलवानों में दम नहीं । वे दस मिनट के पीछे हांफने लगते हैं और थक जाते हैं । फिर वे कुश्ती करने में असमर्थ हो जाते हैं । उस समय उनको पराजित करना बड़ा ही सरल हो जाता है । उन को गिराना उस समय वामहस्त का कार्य है । इसका मुख्य कारण उनका मांसाहार है और भारतीय पहलवान विशेषकर हरयाणे के पहलवान प्रायः सभी निरामिष भोजी हैं, गोश्त नहीं खाते । यह सर्वमान्य सत्य है कि गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शीघ्र थक जाता है । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी था । जब उसका मल्लयुद्ध भारत केसरी विजेता हरयाणे के प्रसिद्ध आर्य पहलवान मास्टर चन्दगीराम से हुवा तो मेहरदीन हार गया और ३५ मिनट के संघर्ष में वह इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका । कुछ मिनट के पश्चात् अन्य पहलवानों ने उसको सहारा दिया । यदि मांस खाने का दोष मेहरदीन पहलवान में न होता तो चन्दगीराम उसको कभी नहीं जीत सकता था, क्योंकि मेहरदीन में तो चन्दगीराम की अपेक्षा एक सौ साठ पौंड भार अधिक है । चन्दगीराम उसके सामने बालक सा लगता था । किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वह जीत जायेगा । किन्तु परम्परा से जो आदि सृष्टि से लेकर आज तक पवित्र आहार-विहार और ब्रह्मचर्य, सदाचार की शिक्षा हरयाणे में प्रचलित है उसी में शिक्षित दीक्षित मा० चन्दगीराम आर्य पहलवान है । न वह मांस अण्डे को छूता है, न तम्बाकू, शराब का सेवन करता है । उसी के

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फलस्वरूप उसको विजय प्राप्‍त हुवा और उसने भारत केसरी बनकर भारत का नाम ऊंचा किया । उसका विजय आर्य संस्कृति का विजय है ।
इस से भारतीय पहलवानों को शिक्षा लेनी चाहिये और अपनी पवित्र परम्परा के अनुसार अपना शुद्ध गोदुग्ध, घृतादि का सात्विक आहार तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन बिताना चाहिए । फिर संसार में सर्वत्र इनका विजय ही होगा । ईरान के पहलवान मांस खाना छोड़ दें तो वे भी संसार के सर्वोच्च स्थान प्राप्‍त कर सकते हैं क्योंकि उनमें प्राचीन भारतीय आर्य ऋषियों का ही रक्त है ।
देश-देशान्तरों और द्वीप-द्वीपान्तरों में जो बस्तियां आज देखने में आतीं हैं वे सभी हमारे पूर्वज आर्यों ने ही बसाईं थीं । महाभारत तक तो अनेक ऋषि-महर्षियों का गमनागमन भी भारत से बाहर के देशों में होता रहा । धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय वा अश्वमेध यज्ञ में तथा महाभारत के युद्ध में भाग लेने के लिए प्रायः सभी देशों से राजे-महाराजे आये थे । आदि सृष्टि से महाभारत तक तो हमारे देश का चक्रवर्ती राज्य सारे भूगोल में रहा है । महाभारत युद्ध के पश्चात् सारी व्यवस्था बिगड़ गई । वेद का प्रचार करने वाले दूसरे देशों में नहीं पहुंच सके क्योंकि वेद प्रचारक ऋषियों की परम्परा महाभारत युद्ध के साथ समाप्‍त हो गई । इसी कारण वेद प्रचार के अभाव में वैदिक मर्यादाओं का लोप होने लगा और आर्यावर्त से भिन्न पूर्व दिशा से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम दिशाओं में रहने वालों का नाम दस्यु, म्लेच्छ तथा असुर हो गया और नैऋति, दक्षिण, आग्नेय दिशाओं में (आर्यावर्त से भिन्न) रहने वाले मनुष्यों का नाम

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राक्षस हो गया । अब देखने से ज्ञात होता है कि हब्शी लोगों का स्वरूप जैसा राक्षसों का वर्णन किया है वैसा ही भयंकर दीख पड़ता है । उपर्युक्त सत्य को हमारे स्मृतिकारों ने इस प्रकार कहा है –
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः ॥ (मनु० १०।१४)
म्लेच्छदेशस्त्वतः परः ॥ (मनु० २।२३)
इस से यही सिद्ध होता है कि आर्यों की सन्तान जो भारत से बाहर अन्य देशों में बसी, वही ऋषियों वा विद्वानों के सत्संग तथा शिक्षा के अभाव में असुर, दस्यु, म्लेच्छ और राक्षस बन गई । आज यही देखने में आता है सभी देशों में मांस भक्षण तो प्रायः सभी करते हैं । इस्लामी देशों को छोड़कर मद्य का सेवन भी सभी करते हैं, केवल भारत ही ऐसा देश था जहां मुसलमान और अंग्रेजी राज्यकाल से पूर्व सुरापान तथा मांस भक्षण बहुत थोड़ी मात्रा में था । हरयाणा प्रदेश में मद्य मांस का सेवन न होने के समान ही था । स्वराज्य मिलने से पूर्व तक यथार्थ में यह शुद्ध आर्यों का प्रान्त था । सरकार की अशुद्ध नीति के कारण यहां भी अब मद्य-मांस का सेवन बढ़ता जा रहा है ।
हरयाणा प्रदेश आज से २० वर्ष पूर्व शुद्ध आर्य संस्कृति का प्रत्यक्ष केन्द्र था । इसने अपने पूर्वजों की इस पवित्र धरोहर को, जो आदि सृष्टि से ऋषियों के द्वारा इन्हें प्राप्‍त हुई, ज्यों का त्यों सुरक्षित रक्खा हुआ था । आज भी महर्षि दयानन्द की दया से आर्यसमाज पवित्र आर्य संस्कृति की रक्षार्थ हरयाणे में कटिबद्ध है । यदि हमारी सरकार के कर्णधारों को परमात्मा सद्‍बुद्धि प्रदान कर दे तो यह कार्य सरल हो सकता है और यह

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ब्रह्मर्षि देश सारे विश्व में एक शुद्ध आर्य वैदिक संस्कृति का केन्द्र बन सकता है । जो संस्कृति भगवान् ने सृष्टि के प्रारम्भ में वेद ज्ञान के द्वारा मानव के कल्याणार्थ ऋषियों के हृदय में प्रकाशित की, जिसका प्रचार-प्रसार ऋषियों के आश्रमों द्वारा इसी पवित्र भूमि हरयाणा से सारे संसार में होता रहा, जिसके कारण यह ब्रह्मर्षि देशकहलाया और महर्षि व्यास ने जिसे 'धर्मक्षेत्र' 'पुण्यक्षेत्र' नाम देकर अपने लेखनी को चार चांद लगाये ।

वैदिक संस्कृति का प्रकाश

परमात्मा ने सब प्राणियों के कल्याण तथा भरण-पोषण के लिए सब साधन उपस्थित किये हैं । जैसे बाह्यचक्षु की सहायतार्थ सूर्य का प्रकाश, ऐसे ही आन्तरिक चक्षु बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति बुद्धि के लिये वेद का ज्ञान देने की महती कृपा की है ।
स्वयम्भूर्याथातथ्यतो‍ऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः । (यजु० ४०।८॥)
अर्थात् स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है, वह सनातन जीव रूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् विधि पूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है । अतः उसने परम पवित्र चारों वेदों द्वारा ज्ञान का दान करने की महती कृपा की है ।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ (यजु० ३१।७॥)
अर्थ - सर्वव्यापक सच्चिदानन्दस्वरूप, उपासनीय परब्रह्म

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देव ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों को उत्पन्न किया अर्थात् चार ऋषियों के हृदय में वेद ज्ञान का प्रकाश किया ।

अग्नेः ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः (शत० ११।४।२।३॥)
प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का प्रकाश किया । इन चार ऋषियों से यह वेद का ज्ञान ब्रह्मा ने ग्रहण किया ।

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥ (मनु० १।१३॥)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्‍त करवाये ।

वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है । इसलिए उसके पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने को आर्यों ने अपना परम धर्म माना है । इसी का प्रचार देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त सभी ऋषि-महर्षि लोग करते रहे हैं । यह परम्परा आदि सृष्टि से महाभारत पर्यन्त चलती रही और इस वैदिक धर्म वा वैदिक संस्कृति का प्रचार और प्रसार सारे भूमंडल में होता रहा । जिसके कारण सारे विश्व में वैदिक संस्कृति जिसे वेद ने स्वयं विश्ववारा नाम दिया है, का बोलबाला हो गया । सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा (यजु० ७।१४) इस सबसे प्रथम और सर्वोत्तम विश्व की प्रिय, सबको सुख देने

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वाली “विद्या सुशिक्षा जनित नीति”का, जिसे वैदिक संस्कृति कहते हैं, सारे संसार को स्वर्ग बनाने के लिए संसार में ऋषियों ने (देवताओं ने) प्रसार किया । इसी के कारण देश-देशान्तर से ऋषियों और महर्षियों के चरणों में इसकी शिक्षा लेने के लिए भारत में सारे संसार से लोग आते रहे । ये आश्रम वा गुरुकुल प्रायः सारे भारतवर्ष में ही थे । किन्तु इनका बाहुल्य हरयाणा प्रदेश में था, जिसके कारण इस प्रदेश का नाम उस समय ब्रह्मर्षि देश था । भृगु, च्यवन, जमदग्नि, परशुराम, दुर्वासा, कपिल, उद्दालक, पिप्पलाद और महर्षि व्यास के आश्रम हरयाणे में ही थे ।
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ब्रह्मर्षि देश

कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसेनकाः ।
एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ॥ (मनु० अ० २।१९॥)

इस ब्रह्मर्षि देश के अन्तर्गत कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल और शूरसेनक ये चारों देश आ जाते हैं । ब्रह्मावर्त से ब्रह्मर्षि देश कुछ छोटा है । अतः यह ब्रह्मावर्त के अन्तर्गत ही है । मनु जी द्वारा कथित ब्रह्मर्षि देश हरयाणा तथा इसका एक भाग ही है । इसी प्रदेश में संसार के लोग आचार व्यवहार, वैदिक संस्कृति की शिक्षा लेने के लिए आया करते थे ।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ (मनु० २।२०॥)

यह ब्रह्मर्षि देश (हरयाणा) सारे संसार का चरित्रादि की शिक्षा का केन्द्र था । यहीं पर ऋषि और देवताओं का निर्माण होता था, जिनका वर्णन आप देवयुग में पढ़ेंगे ।



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द्वितीय अध्याय - देव युग

भारत के इतिहास में देवयुग प्रसिद्ध है । हरयाणा भारत का एक विशिष्ट भाग होने से देवयुग से विशेष सम्बन्ध रखता है । देवराज इन्द्र आदि देवों की जन्मभूमि भारत ही है । अतः स्वभावतः उन तथा उनकी सन्तान तथा सभी वैवस्त मनु आदि ऋषियों और देवताओं का यह भारत अत्यन्त प्रिय देश है । महाभारत भीष्म पर्व में अनेक श्लोक इस विषय के हैं । एक श्लोक केवल उदाहरण के लिए लिखता हूं –

अत्र ते वणयिष्यामि वर्षं भारत ! भारतम् ।
प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च ॥५॥
भारतभूमि देवभूमि कहलाती है । ये देव कौन थे ? इनका भारत तथा इसके अन्तर्गत हरयाणा आदि प्रदेशों से क्या सम्बन्ध था ? इस पर प्रकाश डाले बिना प्राचीन ऐतिहासिक पृष्टभूमि का ज्ञान नहीं होता, अतः इस पर लिखना यथोचित ही है ।

देव कौन थे ?

युगप्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश प्रकरण में लिखते हैं -
20 - देव विद्वानों को और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूँ ।

वे लिखते हैं उन्हीं (उपर्युक्त) विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्‍त्री और स्‍त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा


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कहाती है । इसके विपरीत अदेव पूजा । इनकी मूर्त्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ ।

स्वामी दयानन्द इस युग के उच्चकोटि के विद्वान्, परोपकारी महात्मा थे । वे वेदादि सत्यशास्‍त्रों और ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्तों के माने हुये सत्यसिद्धान्तों को मानते थे तथा उन्हीं का प्रचार करते थे । उनका कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय न था । सत्य को मानना-मनवाना और असत्य को छोड़ना-छुड़वाना उनको अभीष्ट था । वे सत्य के पुजारी थे । पक्षपात छोड़कर सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन करते थे । वे आप्‍त पुरुष थे । अतः आप्‍तोपदेशः शब्दः न्यायदर्शन (१।१।७) में लिखे के अनुसार उनका कहा वा लिखा प्रमाण होने से सब विचारशील व्यक्तियों को माननीय है । वे अपने ग्रन्थ सत्यप्रकाश में विद्वांसो हि देवाः शतपथ ब्राह्मण (३।७।३।१०) के वचनानुसार लिखते हैं -

जो विद्वान हैं उन्हीं को देव कहते हैं । जो सांगोपांग चार वेदों के जानने वाले हैं उनका नाम ब्रह्मा और जो उनसे न्यूंन कहे हों, उनका नाम देव अर्थात् विद्वान् है ।

वेद और देव

महर्षि दयानन्द वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है ऐसा मानते हैं और ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त सभी ऋषि महर्षि इसी सिद्धान्त को मानते आये हैं । मनु जी महाराज ने इसे

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धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः धर्म का यथार्थ रूप जानने के लिए परम प्रमाण श्रुति (वेद) ही है । न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं महत् सत्य से बढ़कर कोई परम धर्म नहीं और मिथ्या व्यवहार वा अनृत से बढ़कर कोई पाप नहीं । इसलिए देव शब्द का यथार्थ अर्थ क्या है, यह वेद भगवान् की शरण में जाने से ही भली प्रकार से ज्ञात होगा । वेद में देव शब्द का बहुत ही अधिक प्रयोग हुवा है । जैसे ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के आठ मन्त्र हैं । उनमें प्रजापते न त्वदेता छठे मन्त्र को छोड़कर अन्य सात मन्त्रों में इस देव शब्द का प्रयोग हुआ है ।

देव शब्द दिवु धातु से बना है, जिसके क्रीडा (खोलना), विजिगीषा (जीतने की इच्छा), व्यवहार (आदान प्रदान), द्युति (प्रकाश), स्तुति (प्रशंसा), मोद (आनन्द) मद (अहंकार), स्वप्न (निद्रा), कान्ति (शोभा) और गति (१. ज्ञान २. गमन ३. प्राप्‍ति) आदि बारह अर्थ हैं । ये सभी अर्थ देव शब्द में निहित रहते हैं ।

१. यह संसार परमात्मा और विद्वान् दोनों के लिए एक क्रीडास्थल है । एक संसार का कर्त्ता, धर्त्ता और हर्त्ता बनकर सबको यथायोग्य कर्मों का फल देकर खेल खिला रहा है और स्वयं साक्षी बनकर सारे खेल (क्रीडा) का आनन्द ले रहा है । मूर्ख से लेकर विद्वान् तक, कीड़ी से लेकर कुञ्जर तक सभी इस संसार रूपी क्रीडास्थल में अपने खेल खेल रहे हैं । विद्वान् जो देवकोटि के हैं, वे भगवान् की आज्ञानुसार इस खेल के खिलाड़ी बनकर खूब आनन्द लेते हैं और मूर्ख इस संसार के खेल में फंसकर सदा रोते ही रहते हैं । बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आकर दुःख

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भोगते रहते हैं ।
२. विद्वान् उस देव की सहायता से प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्‍त करते हुए अजैष्म अद्य, हमारा आज अवश्य ही विजय होगा, इस वेदोपदेश की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं । उनकी विजिगीषा सदैव पूर्ण होती है, मूर्ख पग पग पर पराजय-विफलता का मुख देखते हैं ।
३. देव व्यवहारकुशल, मूर्ख व्यवहारशून्य होते हैं ।
४. देव ज्ञानी और दूसरों को ज्ञान देने में सदैव तत्पर रहते हैं, मूर्ख अविद्याग्रस्त होने से स्वयं घोर अंधकार में डूबे रहते हैं ।
५. देवों की सर्वत्र स्तुति होती रहती है क्योंकि वे सदैव परहित में संलग्न रहते हैं, मूर्ख (असुरों) को निन्दा का मुख देखना पड़ता है ।
६. देवों के स्वप्‍न सारे संसार को स्वर्ग बनाने के होते हैं और मूर्खों के स्वप्‍न उन्हें ही दुःख दरिद्रता के चित्रों से चित्रित कर सुख की नींद नहीं सोने देते । देव लोग शरीर और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए उचित मात्रा में निद्रा का सेवन करते हैं परन्तु असुर सदैव निद्रा वा आलस्य में पड़े रहते हैं एवं अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को यों ही व्यतीत कर देते हैं ।
७. देव भगवान् की आज्ञानुसार आचरण करने से सदैव मुदित (प्रसन्नचित्त) हो आनन्द में रहते हैं, असुर अपनी मूर्खता से स्वयं दुःखी एवं औरों को भी दुःखी रखते हैं ।
८. देवों में स्वात्माभिमान और मूर्खों में मिथ्याभिमान अहंकार होता है ।
९. देवों में दिव्य गुणों के कारण विशेष कान्ति (कमनीयता) होती है जिसके कारण वे सब को प्रिय (कमनीय) लगते हैं, मूर्खों से दूर रहने में ही सब का कल्याण है । उन में उनके दुर्गुणों के कारण कोई आकर्षण वा कमनीयता नहीं होती ।

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१०. देव पूर्ण विद्वान् ज्ञानी होते हैं और मूर्ख मूर्खता के कारण अविद्या अज्ञान के भंडार होते हैं ।
११. देव सदैव शुभ कर्मों के करने के लिये अग्रसर रहते हैं, सदैव शुभ कर्मों को करने के लिये पुरुषार्थ करते हैं, जुटे रहते हैं । मूर्ख प्रमादी, आलसी अथवा अधर्म पाप करने में अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझते हैं ।
१२. देव अपने जीवन में पृथिवी से लेकर परमात्मा तक का ज्ञान प्राप्‍त करते हैं और अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्‍ति करके अपना जीवन सफल बनाते हैं ।
इस प्रकार दिवु धातु के १२ अर्थों को अपने अन्दर धारण करके यथा नाम तथा गुण के अनुसार अपने वाचक देव शब्द को सार्थक कर दिखलाते हैं ।
जिस प्रकार ये अर्थ विद्वानों में घटते हैं, उसी प्रकार परमात्मा में भी घटते हैं ।
निरुक्त वेद का व्याकरण है, उसमें महर्षि यास्क ने लिखा है -
देवो दानाद्वा, दीपानाद्वा, द्योतानाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा । (अ० ७ पा० ४ ख० १५)
दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते हैं अपनी वस्तु को दूसरे के लिये देना । दीपन कहते हैं प्रकाशन करने को । द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को । इनमें से दान का मुख्य दाता ईश्वर है, जिसने कि जगत् के सब पदार्थ दे रक्खे हैं । तथा विद्वान् मनुष्य भी विद्या आदि धनों (द्रव्यों)

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के देने वाले होने से देव कहलाते हैं और सब मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव है । तथा माता, पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या, और सत्यपदेशादि के करने से देव कहाते हैं । वैसे ही सूर्यादि लोकों को भी जो प्रकाशित करने वाला है वह ईश्वर ही मनुष्यों के उपासना करने योग्य इष्ट देव है, अन्य कोई नहीं । जगत् में तो तेतीस (३३) देवताओं की चर्चा रहती है, वे निम्नलिखित हैं –

तेतीस देव वा देवता

यस्य त्रयस्‍त्रिंशद् देव अंगे गात्रा विभेजिरे ।
तान् वै त्रयस्‍त्रिंशद् देवानेके ब्रह्मविदो विदुः॥
(अथर्व० का० १० प्रपा० २३ अनु० ४ म० २७)

शरीर में तेतीस देवता किस भांति काम करते हैं, इस रहस्य को प्रत्येक नहीं जान सकता, कोई विरला ही ब्रह्मवेत्ता इस के रहस्य को जानता है ।
आठ वसु - १. पृथिवी, २. द्यौ, ३. अग्नि, ४. वायु, ५. अन्तरिक्ष, ६. चन्द्रमा, ७. सूर्य, ८. नक्षत्र - इनका नाम वसु है ।
ग्यारह रुद्र - जो शरीर में दस प्राण हैं अर्थात् १. प्राण, २. अपान, ३. व्यान, ४. समान, ५. उदान, ६. नाग, ७ कूर्म, ८. कृकल, ९. देवदत्त, १०. धनञ्जय ११. ग्यारहवां जीवात्मा है । जब ये शरीर से निकलते हैं तो सम्बन्धियों को रुलाते हैं, अतः इन्हें रुद्र कहा जाता है ।
बारह आदित्य - संवत्सर के बारह मास चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद,

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आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, आदित्य कहे जाते हैं, क्योंकि ये जगत् के समस्त पदार्थों के आयु को ग्रहण करते जाते हैं । इन्द्र (बिजली) और प्रजापति (यज्ञ) ये सब मिलकर तेतीस देवता कहे जाते हैं । ये तेतीस शक्तियां ब्रह्म के तेतीस देवों के रूप में इस जगत् के अन्दर कार्य करती हैं ।
विद्या सदुपदेश के द्वारा जो विद्वान् ज्ञानी मानव मात्र को अविद्या अन्धकार से दूर हटाकर वेद ज्ञान के विस्तृत प्रकाश में ले आते हैं ऐसे निष्काम ज्ञानियों को देव कहते हैं । उनके गुण, कर्म और स्वभाव पर वेद भगवान् बड़ा अच्छा प्रकाश डालता है ।
सदा गावः शुचयो विश्वधायसः सदा देवा अरपसः । (सा० पू० इन्द्रकाण्ड अ० ४ खं० १० मं० ६)

गौवें सदा शुद्ध पवित्र रहती हैं और अपने अमृतरूपी दुग्धादि के द्वारा सारे संसार का धारण पोषण करती हैं । इसी प्रकार देवसंज्ञक निष्काम ज्ञानी विद्वान् सदा निर्दोष और निष्पाप होते हैं । वे पवित्र ज्ञानगंगा बहाकर सारे संसार के पाप तथा दोषों को धो डालते हैं अर्थात् सबको ज्ञानामृत पिला कर निष्पाप करके इनका धारण पोषण करते हैं । जैसे हमारे सभी महर्षि महाभारत से पूर्व इसी प्रकार के थे । महर्षि पतञ्जलि अपने महाभाष्य में लिखते हैं -

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अष्टाशीतिसहस्राण्यूर्ध्वरेतसामृषीणां भभूवुस्तत्रागस्त्याष्टमैः ऋषिभिः प्रजनोऽभ्युंपगतः तत्रभवतां यदपत्यं तानि गोत्राणि, अतोऽन्ये गोत्रावयवाः । (महाभाष्य अ० ४ पा० १ सू० ७९)

ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त, अर्थात् आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल तक ८८ हजार ऊर्ध्वरेता, अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि महर्षि हुये हैं । ये सभी निर्दोष, निष्पाप, निष्काम-सेवी, देवतुल्य, आप्‍त पुरुष थे । सारी आयु ब्रह्मचर्य की तपस्या करते हुये, वेद के पवित्र ज्ञान का प्रचार और प्रसार करते रहे । इन्हीं महात्माओं की कृपा से आर्यावर्त्त देश सारे संसार का गुरु रहा और इसका सम्पूर्ण भूमण्डल पर चक्रवर्त्ती राज्य रहा । उपर्युक्त ८८ हजार ऋषियों में से केवल अगस्त्य आदि ८ ही ऋषियों ने विवाह किया । इसलिये ८ ही गोत्र प्रारम्भ से थे, पीछे अनेक उपगोत्र उन्हीं की सन्तानों में चल पड़े । गृहस्थ होते हुये भी ऋषि-महर्षि बड़े संयम से रहते थे, केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये वीर्य दान देते थे । जैसे योगिराज श्रीकृष्ण जी महाराज, विवाह होने के पश्चात् भी बारह वर्ष तक दोनों पति और पत्‍नी ब्रह्मचर्य पालन के लिये घोर तपस्या करते रहे । तत्पश्चात् प्रद्युम्न जैसे वीर पुत्र की कामना से गृहस्थ बने, गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिये तत्पर हुये । महर्षि दयानन्द जी ने अपनी लेखनी से जिस महात्मा की प्रशंसा की है वे श्रीकृष्ण जी ही हैं । महर्षि अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में लिखते हैं -

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“देखो ! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है । उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आ‍प्‍त पुरुषों के सदृश है । जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा...”

इसी प्रकार देव युग में सभी आश्रमवासी आर्य उच्च चरित्र के होते थे ।
विद्वानों के पापरहित होने का एक मुख्य कारण है, वे रात दिन प्राणिमात्र के कल्याण के लिये घोर पुरुषार्थ करते हैं । इस सत्य को वेद भगवान् ने इस प्रकार कहा है -
न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः ।
परिश्रम के बिना देव मित्र नहीं बनते । देवों की मित्रता प्राप्‍त करने के लिये शरीर और मस्तिष्क को घोर परिश्रम करके थकाना होता है । देवों की मित्रता का लाभ परिश्रम से थके हुये मानवों को ही प्राप्‍त होता है । देव और भगवान् की दैवी शक्तियां पुरुषार्थी व्यक्ति की मित्र और सहायक बनती हैं ।
इन्द्र इच्चरत सखा ।
विद्या धन आदि अनन्त ऐश्वर्यों का स्वामी इन्द्र परमात्मा पुरुषार्थी का ही सखा बनता है । यह भी उपर्युक्त सत्य की पुष्टि में प्रमाण है ।
देव स्वयं पुरुषार्थी होते हैं और पुरुषार्थियों के ही सखा होते हैं । ऐसा ही देवों के देव परमपिता परमात्मा का स्वभाव है, इसलिये उसी के गोद में बैठकर आनन्दामृत पान करने का सौभाग्य देवों को ही मिलता है ।

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यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥
(यजु० अ. ३२ म. १०)
अर्थात् जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप धारण करने हारे परमात्मा में मोक्षरूप आनन्दामृत को प्राप्‍त होके देवसंज्ञक विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, उसकी प्राप्‍ति के लिये संयम, ब्रह्मचर्यव्रत का सेवन, देव बनने के लिये करते हैं । कठोपनिषद् २।१२ में इसका इस प्रकार वर्णन है -

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।
जिस परमात्मा की प्राप्‍ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य की साधना भक्त लोग करते हैं उसका नाम ओ३म् है ।
देवा अग्निं धार्यन् द्रविणोदाम् । (ऋ० १।७।३।२॥)
उस विज्ञानादि धन देने वाले को ही, ज्ञानस्वरूप होने से अग्नि कहते हैं, निष्काम ज्ञानी विद्वान् देव लोग जानते हैं, प्राप्‍त करते हैं ।
तेषामेषो ब्रह्मलोको येषां तयो ब्रह्मचर्यम् ।

ब्रह्मलोक उन्हीं का है जो ब्रह्मचर्य के पालनार्थ तपस्या करते हैं । तपस्वी ब्रह्मचारी तप करके देव बनकर प्रभु की प्राप्‍ति करते हैं । क्योंकि देवों का देव परमात्मा स्वयं ब्रह्मचारी है । इसलिये ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले देवों का वह प्रिय है और वे उसे अत्यन्त प्रिय हैं । इसलिये उनका तच्चक्षुर्देवहितम् वह सर्वद्रष्टा ज्ञानी प्रभु निष्काम ज्ञानी विद्वान् देवों का हितैषी हितसाधक है । क्योंकि प्रशिषं यस्य देवाः । यस्यच्छायामृतम् देवजन उस प्रभु की आज्ञा वा प्रशासन का पालन करते हैं । ईश्वर के अनुशासन में चलने वाले देव लोग होते हैं । ईश्वर की

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छात्रछाया वा संरक्षण को अमृततुल्य मानते हैं ।
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (अथर्व० ११।५।१९)
निष्काम, ज्ञानी, देव लोग ब्रह्मचर्यरूपी तप से मृत्यु को दूर भगाते हैं । इनकी तपस्या वा साधना मुख्यरूप से ब्रह्मचर्य अर्थात् संयम का जीवन है ।

शतायुर्वै पुरुषः
सामान्यतया पुरुष की आयु सौ वर्ष की होती है किन्तु जो देव सारी आयु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उनकी आयु ३०० वा ४०० वर्ष की होती है । यजुर्वेद में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है –

त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम् ।
यद्‍देवेषु त्र्यायुषम् तन्नोऽअस्तु त्र्यायुषम्॥
(त्र्यायुषम्) इस पद की चार बार आवृत्ति होने से तीन सौ वर्ष से अधिक चार सौ वर्ष पर्यन्त भी आयु का ग्रहण किया है । इसकी प्राप्‍ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करके और अपना पुरुषार्थ करना उचित है । सो प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये - हे जगदीश्वर ! आपकी कृपा से जैसे विद्वान् लोग विद्या, धर्म और परोपकार के अनुष्ठान से आनन्दपूर्वक तीन सौ वर्ष पर्यन्त आयु को भोगते हैं वैसे ही तीन प्रकार के ताप से शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकाररूप अन्तःकरण इन्द्रिय और प्राण आदि को सुख करने वाले विद्या विज्ञान् सहित आयु को हम लोग प्राप्‍त होकर तीन सौ वा चार सौ वर्ष पर्यन्त सुखपूर्वक भोगें । (महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेदभाष्य ३।६२)

हमारा प्राचीन साहित्य भी इसकी सम्पुष्टि करता है । जैसे महर्षि व्यास की आयु महाभारत के समय ३०० वर्ष से भी

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अधिक थी । मुनिवर चाणक्य ३०० वर्ष से भी अधिक आयु तक जीते रहे । ब्रह्मचारी भीष्म पितामह १७६ वर्ष की आयु में युवा योद्धा महारथियों के छक्के छुड़ाते रहे और उनका रोम रोम तीरों से बींधा हुआ था, यहां तक कि उनकी शय्या भी तीरों की बन गई थी । उसी शरशय्या पर विश्राम करते हुये अपने पुत्र पौत्रों को उपदेश देते रहे । मृत्यु बेचारी प्रतीक्षा करती रही । जब तक सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में नहीं आया तब तक मृत्यु को अपने निकट फटकने भी नहीं दिया । इसीलिये मृत्युञ्जय की उपाधि विवश होकर देवतुल्य ब्रह्मचारी भीष्म को देनी पड़ी । शरशय्या पर लेटे हुये जो उपदेश ब्रह्मचारी भीष्म ने दिया, अनुशासन पर्व उसका सारमात्र और साक्षी है । संसार के कल्याण के लिये दीर्घायु तक देव लोग अपने शरीर को धारण करते हैं ।

अयं लोकः प्रियतमो देवानाम्
देवताओं को यह देव लोक वा शरीर अत्यन्त प्रिय होता है । ये महात्मा शरीर और लोक को मिथ्या कहकर इनसे घृणा नहीं करते । ब्रह्मचर्य से दीर्घजीवी होकर शरीर का सदुपयोग करते हैं और संसार की हितसाधना में अपना सर्वस्व लगाते हैं एवं अपने मानव जन्म को सफल बनाते हैं । इसलिये -
देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे । (साम० ३।६६।२।३)
हे इन्द्र ! सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! ये निष्काम ज्ञानी देव लोग तेरी मित्रता के लिये संयम करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । क्योंकि भगवान् संयमी देवों का मित्र होता है ।
देवानामं यः पितरम् ॥ऋ० २।२६।३॥

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देवों निष्काम ज्ञानियों का परमात्मा पितर (पिता) पालक और रक्षक है । भगवान् का वरदहस्त सदा उनके शिर पर रहता है । इसलिये -

मम देवासो अनु केतमायन् ॥ऋ० ४-२६-२॥
देव लोग भगवान् के संकेत पर अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुसार चलते हैं । इसलिये वे भगवान् की कृपा के पात्र होते हैं ।
देवाश्चित् ते असुयं प्रचेतसो बृहस्पते यज्ञियं भागमानशुः ॥ऋ० २।२३।२॥
उस महान् रक्षक प्रभु का यज्ञ के योग्य भाग होता है, उस जीवनोपयोगी भाग को ये देव (ज्ञानी) ही प्राप्‍त करते हैं । वास्तव में ईशप्रदत्त पदार्थों के सदुपयोग से देव लोग सुख और आनन्द का उपभोग करते हैं देवों का जीवन यज्ञमय होता है ।

यज्ञो वै श्रेषठतमं कर्म ॥शतपथ॥
यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है, अथवा सभी श्रेष्ठ कर्मों का नाम यज्ञ है । इस शतपथ ब्राह्मण के वचनानुसार देव लोग यज्ञ (परोपकार) के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं करते ।
देवा अन्योऽन्यस्मिन् जुह्वतश्चेरुः

ब्राह्मण ग्रन्थ में यह वर्णन मिलता है । देव लोग अपने में अपने लिये हवन नहीं करते थे, अपितु एक दूसरे में हवन करते हुये विचरते थे । वे स्वयं पहले न खाकर दूसरों को खिलाने में ही आनन्द लेते थे । परस्पर एक दूसरे की सेवा में तत्पर रहते थे । इसीलिये देव यज्ञशील होते हैं । यज्ञ में प्रत्येक आहुति के

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इदन्न मम (यह मेरा नहीं है) लगा है, यह उपर्युक्त सत्य का ही द्योतक है ।
यक्षन्ति प्रचेतसः
ज्ञानी यज्ञ करते हैं, दान देते हैं और सत्संग करते हैं तथा ईश्वर की पूजा करते हैं । एक प्राचीन कथा इसकी साक्षी है ।

एक बार प्रजापति ने देव और असुरों को परीक्षार्थ बुलाया और उनमें प्रथम असुरों को भोजन के लिये आसनों पर बैठा दिया । भोजन परोस दिया गया, किन्तु सभी असुरों के दोनों हाथों पर इस प्रकार से लकड़ी के डण्डे बाँध दिये गये कि जिस से कोहनियों में से उनके हाथ मुड़ न सकें और भोजन करने की आज्ञा दे दी । साथ ही भोजन के लिये समय भी नियत कर दिया, जिससे नियत समय के अन्दर भोजन कर लें । असुरों ने देखा, हाथ मुड़े बिना भोजन मुख में नहीं जा सकता, अतः भोजन कैसे किया जाये, इस चिन्ता में पड़ गये । सभी अपना पेट भरने के लिये चिन्तित तथा आतुर थे, अतः सभी ऊपर को मुख फाड़ कर अपने हाथों से भोजन ऊपर उछाल कर मुखों में डालने का यत्‍न करने लगे । ऊपर उछाला हुआ भोजन मुख में न पड़कर इधर-उधर भूमि पर तथा उनके शरीर के अन्य अंगों पर पड़ता था । इस प्रकार करते करते समय भी समाप्‍त हो गया तथा भोजन भी सारा खराब हो गया । साथ ही उनके वस्त्र स्थानादि भी खराब हो गये तथा वे भूखे के भूखे उठ गये ।

असुरों के पश्चात् प्रजापति ने देवों को भोजनार्थ निमन्त्रित किया तथा उनके साथ भी पूर्ववत् व्यवहार किया । देवों ने अपने स्वभावानुसार ही विचार किया और परस्पर एक दूसरे के

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मुख में भोजन डालना आरम्भ कर दिया । इस प्रकार समय से पूर्व की एक दूसरे को भोजन खिलाकर सब तृप्‍त हो गये । देवों और असुरों के गुण-कर्म-स्वभाव में यही अन्तर होता है । देव दूसरे को पहले भोजन कराकर स्वयं पीछे भोजन करता है और असुर दूसरों को भोजन कराना ही नहीं चाहता । वह तो केवल अपना पेट भरना वा अपने प्राण तर्पण करना ही मुख्य प्रयोजन समझता है । इसी कारण परोपकारी देव तथा स्वार्थी असुरों में कभी परस्पर प्रेम नहीं होता और सदैव संघर्ष ही रहता है । यह सार्वकालिक और सार्वभौम सिद्धान्त है । एक माता पिता की सन्तान में से देव और असुर दोनों ही देखने में आते हैं ।

अविचेतसो मज्जन्ति ।
अज्ञानी असुर पाप कर्म करके डूब मरते हैं । यह ऋग्वेद ९।६४।२१ का वचन है । देव ज्ञानी लोग भवसागर से तरते हैं क्योंकि उन्होंने निष्काम कर्मों के द्वारा तारने वाले प्रभु को अपना मित्र बना लिया है, तरने के अन्यान्य साधनों को संजोया है और संभाल कर रक्खा है । मूर्ख इसके विपरीत आचरण करता है । वह नौका की पेंदी में ही छिद्र कर रहा होता है, डूबने के सभी साधनों को जुटाता है, अतः आप भी डूब मरता है और साथियों को भी डुबोता है । शतपथ में लिखा है -
सत्यं वै देवा अनृतं मनुष्याः ।

देव सत्यस्वरूप होते हैं, देवों के आचरण में अनृत, असत्य, झूठ का लवलेश भी नहीं होता । उनका जीवन, व्यवहार सत्य से ओतप्रोत रहता है । देवों और मनुष्यों में यही तो भेद है कि देव सत्य के पुजारी होते हैं और मनुष्य सत्य के परित्याग से मिथ्याचरण, अधर्माचरण करते रहते हैं । सामान्य मनुष्य की

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यही धारणा होती है कि अनृत (असत्य) के बिना मेरे स्वार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती । भय, अज्ञान आदि भी उसको अनृत में प्रवृत्त करते रहते हैं । यदि मनुष्य देव बनना चाहे तो उसे वेद की इस आज्ञा का पालन करना चाहिये -
इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि (यजु० १।५)
मैं अनृत, असत्य व्यवहार का परित्याग करके सत्याचरण की प्रतिज्ञा करता हूँ । क्योंकि -
मनुष्येभ्यो देवानुपैति ॥
इस शतपथ के वचनानुसार मनुष्यों से ऊपर उठकर सत्याचरण के द्वारा देवत्व की प्राप्‍ति होती है । मानव जीवन का लक्ष्य देव जीवन है । मानव के जीवन की सफलता देव बनने में ही है । उसके लिये अनृत का त्याग और सत्य का ग्रहण अनिवार्य है । इसके बिना देवत्व संभव नहीं । मानव मात्र के लिये वेद की यही आज्ञा है -
मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥ऋ. १०।५३।६॥
मननशील होकर यथार्थ में मनुष्य बनो, इसी से सन्तुष्ट न रहो, आगे बढ़ने का यत्‍न करो । स्वयं देव बनो, यदि किसी कारण ऐसा न कर सको तो यत्‍न करो कि आपका प्रतिनिधि आपकी सन्तान दिव्यगुणों को धारण करने वाली हो । परन्तु निष्काम कर्म करने वाले देवसंज्ञक ज्ञानी विद्वान बनें । प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य है कि अपने आगे आने वाली पीढ़ी या सन्तान को देव बनाने का यत्‍न करे । देव और सामान्य विद्वानों में यह भेद होता है -
देवत्रा विप्र उदीर्यन्ति वाचम् ॥

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देवता बनने के लिए देवों की वाणी अर्थात् दिव्यभावयुक्त वाणी का व्यवहार करते हैं । इसीलिये जो ज्ञानयुक्त कर्म करने वाले विप्रसंज्ञक विद्वान् ब्राह्मण होते हैं वे देवविषयक (देवों के समान) वाणी बोलते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में आता है कि यज्ञों में मानुषी वाणी न बोले, वैष्णवी वा दैवी वाणी का प्रयोग करे । इसलिये देवता लोग यज्ञ में परमात्मा की वेदवाणी का प्रयोग करते हैं । वे व्यर्थ नहीं बोलते, सारयुक्त देववाणी - वेदवाणी का उच्चारण करते हैं । देव लोग अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहते, केवल स्वयं यज्ञ करते रहें तथा औरों को यज्ञ करने की प्रेरणा न करें, यह दैवी स्वभाव के विरुद्ध है । इसलिये -

देवान् यज्ञेन बोधय ॥
देव लोग अपने अन्य साथी देवों को यज्ञ (परोपकार), अध्ययन आदि श्रेष्ठ कर्मों द्वारा जगा दें और सदैव जागरूक रक्खें । ऐसे देव विद्वानों का सत्संग जिन सौभाग्यशाली मनुष्यों को मिलता है उनका जीवन सफल होता है । क्योंकि -

जिष्ण्‍वेषां विश्वे भवन्तु देवाः ॥
ऐसे व्यक्तियों के जयशील चित्तों की देव लोग रक्षा करते हैं । देवों के नेतृत्व में भी सदैव तृप्‍त और प्रसन्न रहते हैं । वे जिधर भी जाते हैं, उधर विजयश्री उनके पगों को चूमती है । अच्छे व्यक्ति की सहायता तो देव करते ही हैं किन्तु वे पतितों से भी घृणा नहीं करते, उनका भी उद्धार करते हैं ।
उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः ।
उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः ॥
(ऋ० १०।१३७।१)

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अर्थः - हे (देवाः) लोकोपकारक महापुरुषो ! (उत) और (अवहितं) नीचे गिरे को, हे (देवाः) पतितोद्धारक विद्वानो ! पुनः फिर से (उन्नयथा) ऊपर ले जावो, उठावो, उन्नत करो । (उत) और हे (देवाः) देवो ! (आगः चक्रुषम्) बारम्बार अपराध करने वाले को, हे (देवाः) आनन्दित करने वालो ! (पुनः) फिर से (जीवयथा) जिलाओ, जीवन दो ।

अज्ञान वा मूर्खता के कारण मानव से अनेक दोष वा अपराध होते हैं । मनुष्य का जीवन बहुत मूल्यवान् है क्योंकि वह प्राणिमात्र में श्रेष्ठ है । उन्नति के लिये सब प्राणियों से अधिक साधन इसे प्राप्‍त हैं । किन्तु जीवात्मा अल्पज्ञता तथा अहंकार के वश कितने ही अकरणीय कुकर्म कर डालता है जिस से वह पतित हो जाता है, ईश्वर तथा समाज दोनों की ही दृष्टि से गिर जाता है तो सामान्य लोग भी उससे घृणा करने लगते हैं । ऐसी अवस्था में देव लोग उस पर दया करके देवा उन्नयथा पुनः पुनः उस पतित को, गिरे हुये को उठाते हैं और दुष्ट पुरुष हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ऐसे व्यक्ति के पतन पर उपहास करते हैं, किन्तु सज्जन उसको सान्त्वना देकर उठने के लिये पुनः उत्साहित करते हैं । यह विशेष कार्य परोपकारी, विद्वान्, देव लोग करते हैं ।

जब कोई मनुष्य गिर जाता है, विद्वानों के उत्साहित करने पर भी वह बारम्बार अपराध करता है, पापाचरण में निरन्तर रत रहने लगता है । इस से उसका आत्मा मानो मर सा जाता है । ऐसे मरे हुये, आत्मसम्मानविहीन, मृतकप्राय, मानव नामधारी प्राणियों के लिये वेद देवों का कर्त्तव्य बताता

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है । देवा जीवयथा पुनः निष्काम परोपकारी विद्वान् देवजन ऐसे पतित मुर्दों को फिर जीवन देते हैं, क्योंकि किसी को गिरा देना तो सरल है, किन्तु उठाना बहुत ही कठिन कार्य है । किसी को मार देना तो कोई बड़ी बात नहीं, किन्तु जीवन दान करना अत्यन्त कठिन और वीरता का कार्य है । ऐसे कार्य को देव ही करते हैं । पुनन्तु मा देवजनाः (अ० ५।१९।१) देवजन, विद्वान् पुरुष हमें पवित्र करते हैं । अच्छे आचार वालों को उन्नत करने में कोई विशेष बात वा कठिनाई नहीं होती । कठिनाई वा विशेषता नीचे गिरे वा पतित व्यक्ति के उत्थान करने में है । जो पतित से घृणा करते हैं, वेद की दृष्टि में वे कोई विशेष महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नहीं होते । वेद तो पतितोधारकों और मृतकों को जीवन देने वाले को देव की पदवी देता है । स्वामी दयानन्द ऐसे ही महापुरुष हुये हैं जिन्होंने पतित अमीचन्द, मुन्शीराम आदि के समान सहस्रों व्यक्तियों का अपने सदुपदेश से उद्धार किया । गुरुदत्त जैसे सहस्रों नास्तिकों को आस्तिक बनाया । प्राचीन काल में ब्रह्मा से जैमिनि पर्यन्त ऋषि महर्षि देवजन यही कार्य करते रहे हैं ।

आदि सृष्टि में ब्रह्मा, विष्णु, महादेवकार्तिकेयगणेश, सरस्वती, लक्ष्मी आदि विद्वान् और विदुषी हमारे पूर्वज जो ऋषि महर्षि और देवी देवता हुये हैं उन सब ने अपना जीवन मानव ही नहीं, प्राणिमात्र के कल्याण के लिये न्यौच्छावर किया था, अतःएव अपनी अमर कीर्ति तथा यशःशरीर से आज भी वे अमर हैं । उनके विषम में प्रातः स्मरणीय महर्षि प्रवर दयानन्द जी महाराज

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अपनी अमरकृति सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं -
ब्रह्मा विष्णु महादेव नामक (हमारे) पूर्वज महाशय विद्वान् (थे) ......(उन्हों)ने भी परमेश्वर में ही विश्वास करके उसी की स्तुति प्रार्थना और उपासना की, उससे भिन्न की नहीं की । वैसे हम सब को करना योग्य है ।
(सत्यार्थप्रकाश प्रथम समुल्लास)
हमारे उपर्युक्त ब्रह्मादि देवगण प्राचीन काल में मानव मात्र को आस्तिक, धार्मिक और विद्वान् बनाने के लिये कृतसंकल्प थे । सामान्य विद्वानों में और देवों में क्या भेद होता है इस पर बौधायनगृह्यसूत्र (प्र० १ अ० १) में अच्छा प्रकाश डाला है । यथा -
१. उपनीतमात्रो व्रतानुचारी वेदान् किञ्चिदधीय ब्राह्मणः
अर्थात् जिसका केवल यज्ञोपवीत हुआ है, जो ब्रह्मचर्यादिव्रत का पालन करता है, तथा जिसने वेदों का कुछ भाग पढ़ा है वह ब्राह्मण है । यह प्रथम प्रकार का विद्वान् होता है ।
२. एकां शाखामधीय श्रोत्रियः ।
उपर्युक्त यज्ञोपवीतधारी ब्रह्मचारी वेद की एक शाखा पढ़ने से श्रोत्रिय कहलाता है ।
३. अंगाध्याय्यनूचानः ।
उपर्युक्त नियमपालन करने वाला अंगों सहित वेद पढ़ने से अनूचान कहाता है ।
४. कल्पाध्यायी ऋषिकल्पः ।

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कल्प सहित वेद पढने से विद्वान् की "ऋषिकल्प" संज्ञा हो जाती है ।
५. सूत्रप्रवचनाध्यायी भ्रूणः ।
सूत्र भाष्य के साथ पढ़ने से भ्रूण संज्ञा वाला विद्वान् बनता है ।
६. चतुर्वेदाद् ऋषिः ।
चारों वेदों का अध्ययन करने से ऋषि संज्ञा प्राप्‍त होती है ।
७. अत ऊर्ध्वं देवः ।

ऋषियों से भी अधिक परोपकारी, विद्वान् को देव कहते हैं । परोपकाराय सतां विभूतयः सत्य का आचरण करने वाले जिन चारों वेदों के विद्वानों का सर्वस्व प्राणिमात्र के हितार्थ व्यय होता है, वे देव कहलाते हैं । वे प्रजाहित में अपना सर्वस्व लगा देते हैं । उपर्युक्त विद्वान् कैसे बनाये जाते हैं -

मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ।
यह शतपथब्राह्मण (१४।५।८।२) का वचन है । वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है । वह कुल धन्य है, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् है, जिसके माता पिता धार्मिक विद्वान् हों । जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है उतना किसी से नहीं । जैसे माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित चाहती है उतना कोई नहीं चाहता ।

पहले सन्तान को विद्वान् और श्रेष्ठ बनाने के लिये माता पिता तपश्चर्या किया करते थे । इस पर भी बौधायन गृह्यसूत्र (१।७) में

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प्रकाश डाला है । सामान्य विद्वान् बनाने के लिये सामान्य तपक्रिया करते थे और विशेष श्रोत्रिय आदि विद्वान् बनाने के लिये विशेष ब्रह्मचर्यादि व्रतों का सेवन करना आवश्यक था । जैसे अथ यदि कामयेत श्रोत्रियं जनयेयमिति आ-अरुन्धत्युपस्थानात् कृत्वा त्रिरात्रमक्षारलवण शिनावधश्शायिनौ ब्रह्मचारिणावासाते ॥९॥

यदि पति पत्‍नी की यह इच्छा हो कि हम श्रोत्रिय को उत्पन्न करें तो तीन दिन तक पति पत्‍नी क्षार लवण रहित भोजन करें, नीचे सोयें और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करें और अहतानां च वाससां परिधानं सायं प्रातश्चालंकरणमिषुप्रतोदयोश्च धारणमग्निपरिचर्या च ॥१०॥ चतुर्थ्यामुपसंवेशनं च । अर्थात् शुद्ध, निर्दोष, वस्‍त्रों का परिधान, सायं प्रातः अलंकार धारण और इषु तथा भाले आदि धारण करें । अग्निहोत्र करें । चौथी रात्रि में पके पदार्थों का होम करें और गर्भाधान करें । और यदि अनूचान की इच्छा हो तो अनूचानं जनयेयमिति द्वादशरात्रमेतद् व्रतं चरेत् । अनूचान विद्वान् उत्पन्न करने वाले गृहस्थ पति पत्‍नी बारह दिन क्षार-लवण रहित भोजन, भूमिशयन और ब्रह्मचर्य का पालन करें, फिर गर्भाधान करें । यदि कामयेत भ्रूणं जनयेयमिति चतुरो मासानेतद् व्रतं चरेत् यदि यह इच्छा हो कि भ्रूण संज्ञक मेरी सन्तति हो तो पति पत्‍नी चार मास तक उपर्युक्त क्षार-लवण रहित भोजन, भूमिशयन की तपश्चर्या करते हुये ब्रह्मचर्य का पालन करें, फिर वीर्य दान देवें । यदि कामयेत देवं जनयेयमिति संवत्सरमेतद् व्रतं चरेत् । यदि देव उत्पन्न करने की कामना हो तो उपर्युक्त ब्रह्मचर्य का एक वर्ष पालन करें । तब

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होम आदि करके गर्भाधान संस्कार करें । तब देवतुल्य सन्तान की प्राप्‍ति होगी ।

इसी सिद्धान्त के अनुसार पूर्ण युवावस्था में देवी अञ्जना और पवन महात्मा का विवाह हुवा था । विवाह के पश्चात् भी उन दोनों ने २० वर्ष तक कठोर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया, उसी के फलस्वरूप देवरत्‍न हनुमान् जैसे योद्धा का उनके गृह में जन्म हुवा ।

रामायण किष्किन्धाकाण्ड तृतीय सर्ग में हनुमान् के विषय में निम्न प्रकार से चर्चा की है –

ततः स हनुमान् वाचा श्लक्ष्णया सुमनोज्ञया ।
विनीतवदुपागम्य राघवौ प्रणिपत्य च ॥३॥
आबभाषे च तौ वीरौ यथावत् प्रशशंस च ।
सम्पूज्य विधिवद् वीरौ हनुमान् मारुतात्मजः ॥४॥
उवाच कामतो वाक्यं मृदु सत्यपराक्रमौ ।
राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ ॥५॥

हनुमान् ने तत्पश्चात् नम्रभाव से उन दोनों रघुवंशी वीरों के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके मन को अत्यन्त प्रिय लगने वाली मधुर वाणी से उनके साथ वार्तालाप आरम्भ किया । पवनपुत्र हनुमान् ने पहले तो उन दोनों वीरों की यथोचित प्रशंसा की । फिर विधिवत् उनका पूजन (आदर) करके स्वच्छन्द रूप से मधुर वाणी से कहा - वीरो ! आप दोनों सत्यपराक्रमी राजर्षियों और देवताओं के समान प्रभावशाली, तपस्वी तथा

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कठोर व्रत का पालन करने वाले जान पड़ते हैं ।

धैर्यवन्तौ सुवर्णाभौ कौ युवां चीरवाससौ ॥८॥

आप धैर्यशाली, सुवर्णसमान कान्ति वाले चीरवस्‍त्रधारी हैं, आप दोनों का क्या परिचय है ? इस प्रकार बहुत प्रशंसा करने पर बार बार पूछने पर भी राम लक्ष्मण ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो उसने अपना परिचय इस प्रकार दिया –

प्राप्‍तोऽहं प्रेषिस्तेन सुग्रीवेण महात्मना ।
राज्ञा वानरमुख्यानां हनूमान् नाम वानरः ॥२१॥
उन्हीं वानरशिरोमणियों के राजा महात्मा सुग्रीव के भेजने से मैं यहाँ आया हूँ । मेरा नाम हनुमान् है । मैं भी वानर जाति का ही हूँ ।

युवाभ्यां सह धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति ।
तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम् ॥२२॥
धर्मात्मा सुग्रीव आप दोनों से मित्रता करना चाहते हैं । मुझे आप लोग उन्हीं का मन्त्री समझें । मैं पवन का पुत्र वानर जाति का ही हूँ । तब राम ने लक्षमण को हनुमान् से बातचीत करने के लिए कहा -
अभिभाषस्व सौमित्रे सुग्रीवसचिवं कपिम् ।
वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदम ॥२७॥
शत्रु का दमन करने वाले लक्ष्मण ! सुग्रीव सचिव कपिवर हनुमान् से जो बात के मर्म को समझने वाले हैं, तुम स्नेह पूर्वक

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मधुर वाणी से बातचीत करो ॥२७॥

यह कहकर हनुमान् की पुरुषोत्तम राम ने इस प्रकार प्रशंसा की -
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः ।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम् ॥२८॥

जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता ।

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम् ॥२९॥

निश्चय ही इसने समूचे व्याकरण का कई बार स्वाध्याय किया है, क्योंकि बहुत भाषण करने पर भी इसके मुख से कोई अपशब्द नहीं निकला ।

न मुखे नेत्रयोर्वापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा ।
अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् ॥३०॥

सम्भाषण के समय इसके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुवा हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ ।

अविस्तमसन्दिग्धम् अविलम्बितसमद्रुतम् ।
उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमे स्वरे ॥३१॥

इतने थोड़े ही शब्दों में बड़ी स्पष्टता के साथ अपना

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अभिप्राय निवेदन किया है, उसे समझने में कहीं कोई सन्देह नहीं हुवा है । रुक रुक कर, शब्दों अथवा अक्षरों को तोड़ मरोड़ कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है जो सुनने में कर्ण-कटु हो । इसकी वाणी हृदय में मध्यमा रूप से स्थित है और कण्ठ से बैखरी रूप में प्रकट होती है, अतः बोलते समय इसकी आवाज न बहुत धीमी रही है न बहुत ऊंची । मध्यम स्वर में ही इसने सब बातें कहीं हैं ।

संस्कारक्रमसम्पन्नां अद्‍भुतामविलम्बिताम् ।
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहारिणीम् ॥३२॥

यह संस्कार और क्रम से सम्पन्न अद्‍भुत, अविलम्बित तथा हृदय को आनन्द प्रदान करने वाली कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करता है ।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया ।
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि ॥३३॥

हृदय, कण्ठ और मूर्धा इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इसकी इस विचित्र वाणी को सुनकर किस का चित्त प्रसन्न न होगा । वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्‍भुत वाणी से बदल सकता है ।

एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु ।
सिध्यन्ति हि कथं तस्य कार्याणां गतयोऽनघ ॥३४॥

निष्पाप लक्षमण ! जिस राजा के पास इसके समान दूत

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न हों, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है ।

एवं गुणगणैर्युक्ता यस्य स्युः कार्यसाधकाः ।
तस्य सिध्यन्ति सर्वेऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिताः ॥३५॥

जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं ।

इससे सिद्ध होता है कि हनुमान् के पिता और माता ने उत्तम प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करके वीर हनुमान् को उत्पन्न किया था । इसी कारण सांगोपांग चारों वेद पढ़कर विद्वान् बना तथा बलवान् और शक्तिशाली भी इतना बना कि सारी लंका को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । वह सारे संसार में वज्रांगबली (बजरंगबली) के नाम से प्रसिद्ध है । हिन्दू उस देव सम विद्वान् को शक्ति का देवता मानकर आज तक पूजते हैं । उसे बन्दर कहना बहुत बड़ी मूर्खता है । वह मनुष्यों में उच्च कोटि का आदर्श विद्वान् था । मुनिवर वाल्मीकि ने उपर्युक्त श्लोकों में जिसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है, उसको पूंछ लगा कर बन्दर (पशु) सिद्ध करना सबसे बड़ी मूर्खता है । वे वानर जाति में, जो मनुष्यों की ही जाति थी, उत्पन्न हुये थे, किन्तु पशुओं में नहीं । बन्दर कहीं चारों वेदों का विद्वान् हो सकता है ?

सामान्य बुद्धि रखने वाला मानव भी इसे स्वीकार नहीं कर सकता । “क्या हनुमानदि बन्दर थे” नाम की अपनी पुस्तक में महाविद्वान् ठाकुर अमरसिंह जी ने इस विषय पर

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अच्छा प्रकाश डाला है । देवतुल्य विद्वान् हनुमान् को पूंछ लगा कर बन्दर बना डालना पाखण्ड वा मूर्खता ही कही जा सकती है । वे भारतीय इतिहास के एक उज्जवल रत्‍न थे । इतिहास प्रसिद्ध वैराट नगर में (जो जयपुर राज्य के अन्तर्गत है) एक पर्वत के शिखर पर हनुमान् जी की एक प्रतिमा को देखने का अवसर मिला, जो बिना पूंछ की और मानवाकृति जैसी बनाई गई है । इसे गोभक्त महात्मा वीर रामचन्द्र जी ने बनवाकर लगवाया है । यह उनकी उत्तम और सत्य भावनाओं को प्रकट करने वाला चित्र है ।

मुझे प्रथम बार जब सनातनधर्मियों के मन्दिर में मनुष्य के रूप में हनुमान् जी की मूर्ति देखने का अवसर मिला तो अत्यन्त हर्ष हुवा कि भारत में सनातनधर्मियों में भी श्री पंडित रामचन्द्र वीर के समान विचारशील व्यक्ति उत्पन्न हो गये हैं जो इतिहास की इस सत्यता को भली भांति समझ गये हैं कि हनुमान् जी बन्दर (पशु) नहीं बल्कि वे महामानव थे । इस प्रकार दुराग्रह छोड़कर ऐतिहासिक सत्यता को स्वीकार करने वाले पंडित रामचन्द्र जी वीर के सामने कौन अपना शिर नहीं झुकायेगा ।

अस्तु ! हनुमान् जी भारतीय इतिहास को चार चांद लगाने वाले क्षत्रिय वीर थे जो किष्किन्धा के राजा सुग्रीव के महामन्त्री थे, यह रामायण से स्पष्ट सिद्ध होता है । वे इतने उच्चकोटि के देवता (विद्वान्) और बलवान् थे कि पौराणिक काल में शक्ति के देवता मानकर सारे भारत में पूजे जाने लगे और जय बजरंगबली का जयघोष सारे भारतवर्ष में आज भी हिन्दुओं में प्रचलित है । इसका निष्कर्ष यही है कि

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ब्रह्मचर्यव्रत पालन के फलस्वरूप माता अञ्जना और पवन पिता को हनुमान् समान सौभाग्यशाली सन्तान प्राप्‍त हुई जिसने अपने माता-पिता को भी अमर कर दिया ।

इसी प्रकार योगिराज श्रीकृष्ण जी महाराज ने विष्णु-गिरि पर्वत पर अपने समान पुत्र प्राप्‍ति के लिये घोर तपस्या की थी । महाभारत के अनुशासन पर्व के १३९वें अध्याय का १०वां श्लोक इस प्रकार है -

व्रतं चचार धर्मात्मा कृष्णो द्वादशवार्षिकम् ।
दीक्षितं चागतौ द्रष्टुमुभौ नारदपर्वतौ ॥

महादेवी रुक्मिणी से विवाह के पश्चात् महाराज योगिराज श्रीकृष्ण जी ने गृहस्थ में प्रवेश नहीं किया और विष्णुगिरि पर्वत पर उपमन्यु ऋषि के आश्रम में १२ वर्ष तक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया । क्षार लवण रहित भोजन और भूमि पर शयन किया । उस समय धर्मात्मा कृष्ण के दर्शन करने के लिए नारद और पर्वत दोनों ऋषि वहां पधारे । अन्य ऋषि भी इस कठोर तपस्या को देखने के लिये पहुँचे ।

कृष्णद्वैपायनश्चैव धौम्यश्च जपतां वरः ।
देवलः काश्यपश्चैव हस्तिकाश्यप एव च ॥११॥
अपरे चर्षयः सन्तो दीक्षादमसमन्विताः ।
शिष्यैरनुगताः सिद्धैर्देवकल्पैस्तपोधनैः ॥१२॥

इसके अतिरिक्त कृष्णद्वैपायन व्यास, जप करने वालों में

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श्रेष्ठ धौम्यदेवलकाश्यप, हस्तिकाश्यप तथा अन्य साधु, महर्षि जो दीक्षा और इन्द्रिय संयम (ब्रह्मचर्य) से सम्पन्न थे, अपने देव समान तपस्वी एवं सिद्ध शिष्यों के साथ महाराजा श्रीकृष्ण के दर्शन करने आये ।

तेषामतिथिसत्कारमर्चनीयं कुलोचितम् ।
देवकीतनयः प्रीतो देवकल्पमकल्पयत् ॥१३॥

देवकी के पुत्र भगवान् श्रीकृष्ण ने बड़ी प्रसन्न्ता के साथ देवताओं के समान उन महर्षियों का अतिथि सत्कार किया और अपने कुल के अनुरूप यथोचित आदर सम्मान किया ।

हरितेषु सुवर्णेषु बर्हिष्केषु नवेषु च ।
उपोपविविशुः प्रीता विष्टरेषु महर्षयः ॥१४॥

श्रीकृष्ण जी महाराज के दिये हुये हरे और सुनहरे रंग वाले कुशों के नवीन आसनों पर वे महर्षि प्रसन्नता पूर्वक विराजमान हुए । इस प्रकार ऋषियों का सत्कार किया ।

कथाश्चकुस्ततस्ते तु मधुरा धर्मसंहिताः ।
राजर्षीणां सुराणां च ये वसन्ति तपोधनाः ॥१५॥

तत्पश्चात् जो राजर्षि, देवता और तपस्वी, मुनिगण वहाँ निवास करते थे उनके सम्बन्ध में धर्मयुक्त, मधुर कथायें कहने लगे ।

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ब्रह्मचर्य का तेज

ततो नारायणं तेजो व्रतचर्येन्धनोत्थितम् ।
वक्त्रान्निःसृत्य कृष्णस्य वन्हिरद्‍भुतकर्मणः ॥१६॥

भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से ब्रह्मचर्यरूपी इन्धन से प्रज्वलित तेज अग्नि के रूप में प्रकट हो रहा था । अर्थात् उनके मुख पर अग्नि के समान देदीप्यमान ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज वा कान्ति जगमगा रही थी ।
ऋषियों ने पूछा आप यहां यह घोर तपस्या क्यों कर रहे हैं ? वासुदेव ने उत्तर दिया -

व्रतं चर्तुमिहायातस्त्वहं गिरिमिमं शुभम् ।
पुत्र चात्मसमं वीर्ये तपसा लब्धुमागतः ॥३३॥

मैं ब्रह्मचर्य रूपी तपस्या द्वारा अपने ही समान वीर्यवान् पुत्र पाने की इच्छा से व्रतपालन करने के लिए इस मंगलकारी पर्वत पर आया हूँ ।

व्रतचर्यापरीतस्य तपस्विव्रतसेवया ।
मम वन्हिः समुद्‍भूतो न वै व्यथितुमर्हथ ॥३२॥

मैं अपने तुल्य पुत्र की कामना से ब्रह्मचर्यव्रत पालन में बारह वर्ष से लगा हुवा हूँ । तपस्वी महात्माओं के इस ब्रह्मचर्यव्रत सेवन करने से मेरे अन्दर अग्नि के समान तेज प्रकट हुवा है । आपको उससे कोई चिन्ता वा कष्ट नहीं होना चाहिये ।

ततो ममात्मा यो देहे सोऽग्निर्भूत्वा विनिःसृतः ।
गतश्च वरदं द्रष्टुं सर्वलोकपितामहम् ॥३४॥

ब्रह्मचर्य के इस कठोर व्रतपालन से मेरा आत्मा जो इस

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शरीर में है वह अग्नि के समान प्रकाशित वा तेजस्वी हो गया और सारे संसार के पितामह अर्थात् परमपिता परमात्मा के दर्शन के लिये ब्रह्मलोक वा द्युलोक गया था अर्थात् वरदा माता की गोद में चला गया था ।

तेन चात्मानुशिष्टो मे पुत्रत्वे मुनिसत्तमाः ।
तेजसोऽर्धेन पुत्रस्ते भवितेति वृषध्वजः ॥३५॥
मुनिवरो ! उस परमपिता ने मेरे आत्मा को यह उपदेश दिया है कि आपको अपने तेज (वीर्य) के अर्धभाग से अपने समान पुत्र की प्राप्‍ति होगी । इस पवित्र व्रत के पालन के फलस्वरूप अपने अनुरूप प्रद्युम्न नाम का तेजस्वी पुत्र महारानी रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न हुवा जो गुण और आकृति में अपने पिता के समान था ।

प्राचीनकाल में सन्तानोत्पत्ति के लिये सभी गृहस्थ ब्रह्मचर्यादि व्रत का पालन करते थे । विद्वान् को ही गृहस्थाश्रम में प्रवेशार्थ आज्ञा मिलती थी, ऐसी उस समय राज्यव्यवस्था थी । मनु जी महाराज की व्यवस्था इस प्रकार है -

वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम् ।
अविलुप्‍तब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत् ॥मनु० ३।२॥

जब यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्तकर धर्म से चारों, तीन, दो वा एक वेद को सांगोपांग पढ़के, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुवा हो, वह पुरुष वा स्‍त्री गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे । वे आगे लिखते हैं -

गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि ।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् ॥मनु० ३।४॥

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गुरु की आज्ञा ले, स्नान कर (स्नातक होकर), विद्या समाप्‍त कर, गुरुकुल से अनुक्रमपूर्वक आकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर लक्षणयुक्त अपने गुण कर्म स्वभाव अनुसार कन्या से विवाह करे ।

इससे सिद्ध हुवा कि अखण्ड ब्रह्मचर्य और न्यून से न्यून सांगोपांग एक वेद के पढ़ने के पश्चात् स्नातक होने पर विवाह करने की आज्ञा वा अधिकार मिलता था । माता पिता और आचार्य प्रायः सभी अपनी सन्तान और शिष्यों को देव बनाने का यत्‍न करते थे । जिस प्रकार योगिराज श्रीकृष्ण जी और देवी रुक्मिणी ने वीर प्रद्युम्न को और महाराज पवन और माता अञ्जना ने वीर हनुमान् को बनाने का यत्‍न किया और सभी ऋषि महर्षि अपने शिष्यों को आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते (अथर्व० ११।५।१७) इस वेदाज्ञानुसार स्वयं ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये धार्मिक विद्वान् बनाने के लिये जीवन भर सतत यत्‍नशील रहते थे । इसलिये प्राचीन काल में इनको भी देव कहा जाता था । इसीलिये आर्यावर्त में “पञचदेव पूजा” प्राचीन परम्परा से चली आती है –

मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव ।
(तैत्तिरीय १।११)

उपचर्यः स्‍त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः । (मनु० ५।१५४)

अर्थात् माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पति वा पत्‍नी पूजनीय देव माने जाते थे । यही जीवित मूर्त्तिमान् देव होते हैं

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क्योंकि इनके संग से मनुष्य देह की उत्पत्ति, पालन, सत्य शिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्‍ति होती है । ये ही परमेश्वर को प्राप्‍त करने की सीढ़ियां हैं । इस में इतना विशेष समझ लें कि स्‍त्री के लिये पति और पुरुष के लिये पत्‍नी पूजनीय है ।

जो शिवविष्णुअम्बिकागणेश और सूर्य की पत्थरादि की मूर्त्ति बनाकर पूजते हैं यह वेद विरुद्ध पाखण्ड है । यह पौराणिक युग की असत्य कल्पना है इसलिये सर्वथा त्याज्य है ।

प्राचीन काल में पितर और ऋषि महर्षि देवगण ब्रह्मचर्य पालन की यथार्थ क्रियात्मक शिक्षा देते थे । वह ब्रह्मचर्य भी तीन प्रकार का होता है - कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम । उनमें से कनिष्ठ वह होता है जो कि चौबीस वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर वेदादि विद्या और सुक्षिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी संयम से रहे, लम्पटता कभी न करे, उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब गुणों के वास कराने वाले होते हैं । ऐसे ब्रह्मचारी का नाम वसु होता था अर्थात् वह बसने योग्य, जीने योग्य हो जाता था । उसकी आयु सत्तर वा अस्सी वर्ष तक होती है । इस कनिष्ठ ब्रह्मचर्य का पालन तो सब के लिये अनिवार्य था । शूद्र और वैश्य इस का सेवन करते थे ।

दूसरा मध्यम ब्रह्मचर्य है । जो मनुष्य चालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करता है उसके प्राण इन्द्रिय अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होते थे और वह सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करने वाला सच्चा ब्रह्मचारी होता था । ऐसा रुद्र नामक ब्रह्मचारी ही सच्चा क्षत्रिय कहलाता था । उसकी आयु १५० से २०० वर्ष होती थी ।

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उत्तम ब्रह्मचर्य अड़तालीस वर्ष पर्यन्त तीसरे प्रकार का होता है । ऐसा ब्रह्मचारी सकल विद्याओं को ग्रहण करता है । उसके प्राण उसके अनुकूल होकर दीर्घजीवी होता है । अर्थात् वह इस तीसरे उत्तम प्रकार के अखण्डित ब्रह्मचर्य के सेवन करने से पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्यन्त आयु को भोगता है और सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्‍त होता है । ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ही सच्चा ब्राह्मण होता है । वह अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने में सदैव तत्पर होता है । संसार में कोई अशिक्षित (अनपढ़) न रहने पावे यह विद्वान् अथवा ब्राह्मण का ठेका होता है । अविद्या नाम के महाक्लेश को जो सब क्लेशों का जनक है, देवसंज्ञक विद्वान् ब्राह्मण ही नष्ट करता है ।

चतुर्वेदाद् ऋषिः जो चारों वेदों का सांगोपांग अध्ययन करने के लिए ४८ वर्ष के पवित्र, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य पालनार्थ घोर तपस्या करता है, वह ऋषि कहलाता है । एक-एक वेद के सांगोपांग अध्ययन करने में बारह-बारह वर्ष लग जाते हैं ।

जो ४८ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसकी आदित्य संज्ञा है । आदित्य सूर्य का नाम है । जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार दुम दबाकर भाग जाता है और सर्वत्र प्रकाश का साम्राज्य छा जाता है उसी प्रकार जहां चारों वेदों के पूर्ण विद्वान्, आदित्य ब्रह्मचारी होते हैं, वहां अविद्या के दर्शन नाममात्र को भी नहीं होते । ऐसे ही आदित्य ब्रह्मचारी ऋषि

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होते थे । और अत ऊर्ध्वं देवः देव ऋषियों से भी ऊँचे होते हैं । आयुर्वेद शास्त्र इस विषय में पुष्टि करता है -
चतस्राऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवन सम्पूर्णता किञ्चित्परिहाणिश्चेति । आषोडशाद्‍वृद्धि । आपञ्चविंशतेर्यौवनम् । आचत्वारिंशतः सम्पूर्णता । ततः किञ्चित्परिहाणिश्चेति ॥

महर्षि दयानन्द जी ने सुश्रुत के सूत्रस्थान के ३५वें अध्याय का उद्धरण दिया है । अर्थ निम्न प्रकार से है -

इस शरीर की चार अवस्थायें हैं । एक वृद्धि, जो सोलहवें वर्ष से ले के पच्चीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की वृद्धि (बढ़ती) होती है । दूसरी यौवन, जो पच्चीसवें वर्ष के अन्त और छब्बीसवें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है । तीसरी सम्पूर्णता, पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है । चौथी किञ्चितपरिहाणि, जब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट हो के पूर्णता को प्राप्‍त होते हैं । आजकल पाठ कुछ भेद से सुश्रुतसंहिता में इस प्रकार मिलता है –

वयस्तु त्रिविधं बाल्यं मध्यं वृद्धमिति । तन्नोन षोडशवर्षा बालाः । तेऽपि त्रिविधाः क्षीरपाः, क्षीरान्नादाः अन्नादा इति । तेषु संवत्सरपराः क्षीरपा द्विसंवत्सरपराः क्षीरान्नादाः, परतो अन्नादा इति । षोडशसप्‍तत्योरन्तरे मध्यं वयः । तस्य विकल्पो वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता हानिरिति । तत्र आविंशतेर्वृद्धिः, आत्रिंशतो यौवनम्, आचत्वारिंशतः सर्वधात्विन्द्रियबलवीर्यसंपूर्णता, अत ऊर्ध्वमीषत्वपरिहाणिर्यावत्सप्‍ततिरिति सप्‍ततेरुर्ध्वं क्षीयमाणधात्विन्द्रियबलवीर्योत्साहमहन्यहनि

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वलिपलितखालित्यजुष्टं कासश्वासप्रभृतिभिरुपद्रवैरभिभूयमानं सर्वक्रियासु असमर्थं जीर्णागारमिव अभिवृष्टमवसीदन्तं वृद्धमाचक्षते । (सुश्रूत० सूत्रस्थान ३५-३५)

अर्थात् वयः तीन प्रकार का होता है वाल्य मध्य और वृद्ध । उनमें से सोलह वर्ष से न्यून वय वाले बालक होते हैं, उन में भी तीन भेद होते हैं - १. क्षीरप - केवल दूध पीने वाले, २. क्षीरान्नाद - दूध पीने वाले और अन्न खाने वाले, ३. अन्नाद - अन्न खाने वाले । उनमें से एक वर्ष की आयु तक क्षीरप, दो वर्ष वाले क्षीरान्नाद, इससे आगे अन्नाद होते हैं । सोलह और सत्तर वर्षों के बीच में मध्यवय होता है । उसके चार भेद हैं - वृद्धि, यौवन, सम्पूर्णता तथा हानि । उनमें बीस वर्ष तक यौवन, चालीस वर्ष तक सब धातुओं, इन्द्रियों के बल और शक्ति (वीर्य की पूर्णता) । इसके पश्चात् सत्तर वर्ष की आयु तक कुछ घटती । सत्तर वर्ष के पश्चात् वृद्ध कहाता है, उस अवस्था में धातुओं, इन्द्रियों के बल वीर्य तथा उत्साह क्षीण हो रहे होते हैं, प्रतिदिन झुर्रियां, सफेद बाल तथा गंजापन बढ़ता है, कास-श्वास-खांसी दमा आदि उपद्रवों से दबा रहता है, सभी इन्द्रियों की क्रियाओं में असमर्थ (दुबला) होता है, पुराने घर की भांति, बरस चुके बादल की भांति नष्ट हो रहा होता है । पाठभेद के होने पर भी दोनों के आशय-अभिप्राय में कोई अन्तर (भेद) नहीं है । स्मृतियों में भी इसी आशय के वचन मिलते हैं । यथा हारीतस्मृति के अ० ५ में आता है –

आषोडशाद् भवेद् बाल् आपञ्चत्रिंशं युवा नरः ।
मध्यमः सप्‍ततिर्यावत् परतो वृद्ध उच्यते ॥

पृष्ठ ८०

अर्थात् सोलह वर्ष तक बालक होता है, पैंतीस तक युवा, सत्तर तक मध्यम अवस्था, उसके पश्चात् वृद्ध कहलाता है । यहां यह समझना चाहिये कि यह वसु ब्रह्मचर्य वाले मनुष्यों की अवस्था का वर्णन प्रतीत होता है ।

रुद्र ब्रह्मचारी और आदित्य ब्रह्मचारी की युवावस्था बड़ी देर तक रहती है । जैसे बाल ब्रह्मचारी भीष्म १७६ वर्ष की आयु में महाभारत युद्ध में कौरव पक्ष मे महासेनापति थे क्योंकि वह सब से अधिक बलवान् और युद्ध विद्या में सबसे अधिक निष्णात पण्डित थे । जिसकी आयु चार सौ वर्ष की होगी वह ब्रह्मचारी तीन सौ वर्ष की आयु तक युवा रहता होगा । ऐसे ही रुद्र ब्रह्मचारी १५० वर्ष की आयु तक युवा रहता होगा । जैसे शान्तनु का भाई बाह्लिक १६० वर्ष से तो अधिक आयु का था, उसका बेटा सोमदत्त, पौत्र भूरिश्रवा और प्रपौत्र भी अर्थात् चार पीढ़ी युद्ध में सम्मिलित थी । ब्रह्मचर्य सब शक्तियों का भण्डार है । महर्षि दयानन्द जी इस विषय में लिखते हैं -

“जो अपने कुल की उत्तमता, उत्तम सन्तान, दीर्घायु, सुशील, बुद्धि, बल, पराक्रमयुक्त, विद्वान् और श्रीमान् करना चाहें वे सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या और २५ वर्ष से पूर्व पुत्र का विवाह कभी न करें । वैसे मध्यम विवाह का समय कन्या का २० वर्ष पर्यन्त और पुरुष का ४० (चालीसवां) वर्ष और उत्तम विवाह का समय कन्या का २४ वर्ष और पुरुष का ४८ वर्ष है । यह सब सुधारों का सुधार, सब सौभाग्यों का सौभाग्य और सब उन्नतियों की उन्नति करने वाला कर्म है ।”

उपर्युक्त नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्‍त्रियों का

पृष्ठ ८१

है । जो विवाह करना ही न चाहें वे मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहें । ऐसे पूर्ण विद्वान्, जितेन्द्रिय, विषयभोग की कामना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हों वे ब्रह्मचर्याश्रम से ही सन्यास लेवें । क्योंकि वेदोक्त धर्म ही में आप चलना और दूसरों को समझाकर चलाना सन्यासियों का विशेष धर्म है । क्योंकि जितना अवकाश और निष्पक्ष-पातता सन्यासी को होती है उतनी गृहस्थ, ब्राह्मणादियों को नहीं हो सकती । और जब ब्राह्मण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता सन्यासी ही होता है । जो इस प्रकार के पुरुष वा स्‍त्री हों और विद्या, धर्म वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही उनका प्रयोजन हो वे विवाह न करें । प्राचीनकाल में पञ्चशिख आदि पुरुष, गार्गी आदि स्‍त्रियाँ हुई थीं जो सारी आयु ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या करती हुई संसार के उपकार में लगी रहीं ।

हम पहले लिख चुके हैं कि इस देश में ८८ हजार ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी ऋषि हुये हैं जिन्होंने विद्या, धर्म वृद्धि और सब संसार के उपकार में अपना सर्वस्व न्यौछावर किया है । इन्हीं देव लोगों के बसाने के कारण आर्यावर्त देवताओं का देश कहलाया और जिन नदियों दृषद्‍वती (ब्रह्मपुत्रा) और सरस्वती के कांठों पर देव लोगों ने बस्तियां बसाईं और जो आर्यावर्त्त की सीमाओं का निर्धारण करती हैं वे नदियां भी देवनदियां कहलाईं ।

पृष्ठ ८२

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्तं विदुर्बुधाः ॥
सरस्वती दृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्तं प्रचक्षते ॥
(मनु० २।२२,१७)

देवों आर्यविद्वानों द्वारा निर्मित बसाया हुआ देश आर्यावर्त्त कहलाया । इस विषय में प्रथम अध्याय में ३० पृष्ठ से ३८ पृष्ठ तक विस्तार से लिख चुके हैं ।

जिन ब्रह्मादि देवर्षियों ने प्राचीनकाल में आर्यावर्त्त देश को देवभूमि बनाया उनके विषय में हमारे देव और ऋषि अग्रिम अध्याय में पढ़ें ।

तृतीय अध्याय - हमारे देव और ऋषि


पृष्ठ ८३

सृष्टि के आदि में आर्यावर्त्त देश ऋषियों मुनियों और देवताओं से परिपूरित था । सात्त्विक आहार व्यवहार के कारण सत्त्व गुण प्रधान देव और ऋषियों का बाहुल्य था । क्योंकि देवत्वं सात्त्विका यान्ति (मनु० अ० १२।१) मनु जी के इस विधानानुसार जो मनुष्य सात्त्विक होते हैं वे देव विद्वानों की गति को प्राप्‍त होते हैं । इसीलिये ब्रह्मादि ८८ सहस्र ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी देव ऋषि पवित्र देवभूमि भारत में हुये हैं । आदि सष्टि में ब्रह्मा से लेकर महाभारत काल में जैमिनि महर्षि पर्यन्त यह देवों की परम्परा चलती रही । उनसे ब्रह्मा आदि देवों की उत्पत्ति तथा वंश परम्परा के विषय में प्राचीन ग्रन्थों में निम्न प्रकार से वृत्त मिलता है ।

महर्षि ब्रह्मा आदि देवों की उत्पत्ति

हमारे पूर्वजों की वंशावली रामायण महाभारत और पुराण आदि ग्रन्थों में दी है, उनमें मतभेद अवश्य है, सब में समानता नहीं मिलती । प्रलय वा अवान्तर प्रलय के पश्चात् अमैथुनी सृष्टि में जो व्यक्ति प्रथम उत्पन्न होता है, वह नर ब्रह्मा कहा जाता है ।

निष्प्रभेऽस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृते ।
बृहदण्डमभूदेकं प्रज्ञानां बीजमव्ययम् ॥
(महाभारत आदिपर्व १।२९)

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सृष्टि के प्रारम्भ में जब वस्तु विशेष वा नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ अर्थात् अण्ड के समान गोल आकृति वाली पृथ्वी उत्पन्न हुई, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था अर्थात् सब प्रकार की सृष्टि के उसमें बीज विद्यमान थे ।

युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षते ।
यस्मिन् संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्ब्रह्म सनातनम् ॥३०॥

इस सृष्टिकल्प के आदि में उसी महान् एवं दिव्य अण्डाकार पृथिवी को चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है । जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, अर्थात् वह सर्वव्यापक होने से उसमें भी विद्यमान रहता है ।

अद्‍भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् ।
अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तत् सदसदात्मकम् ॥३१॥
वह ब्रह्म परमात्मा अद्‍भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूप से व्याप्‍त, अव्यक्त, सूक्ष्म कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय था । और जो कुछ सदसत् रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है, जो सब में व्यापक है ।

यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः ।
ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुः कः परमेष्ठ्यथ ॥३२॥
प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्‍त वै ।
ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः ॥३३॥

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उस परमात्मा ने अण्डे के समान पृथिवी से ही प्रथम देहधारी प्रजापालक, स्वामी देवगुरु, पितामह ब्रह्मा को तथा इसी प्रकार रुद्र (महादेव), मनु, प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र उत्पन्न किये । तत्पश्चात् इक्कीस प्रजापति उत्पन्न किये । ये मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु आदि इक्कीस प्रजापति कहलाते हैं, कुछ विद्वानों का ऐसा मत है ।

राजर्षयश्च बहवः सर्वे समुदिता गुणैः ।

इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों को उत्पन्न किया, इस प्रकार सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई ।
इससे यही सिद्ध हुआ कि आदि सृष्टि में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है ।
मनु महाराज भी इसी प्रकार मानते हैं । वे लिखते हैं -

सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रज्ञाः ।
अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥८॥
तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् ।
तस्मिन् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥९॥

उस परमात्मा ने अपने शरीर (प्रकृति) से नाना प्रकार की प्रजा (सृष्टि) रचने की कामना करते हुये आरम्भ में अप (कारण मूल जल) की उत्पत्ति की और उसमें बीज (शक्तिरूप) आरोपित किया । वह (बीज) सहस्रों आदित्यों की प्रभा वाला सुवर्ण के समान अण्डरूप हो गया । उसमें सब लोकों का पितामह (उत्पादक) ब्रह्मा (परमात्मा) उत्पन्न हुआ, अर्थात् परमात्मा ने उसमें अपनी शक्ति प्रकट की ।

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महर्षि ब्रह्मा

अग्नि, वायु, सूर्य आदि महर्षियों से ब्रह्मा ने चारों वेदों का ज्ञान ग्रहण किया था । मूर्त्तियों में ब्रह्मा के चार मुखों की कल्पना कर डाली है ।

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इस प्रकार सिद्ध है कि मनु महाराज अण्डाकृति वाली पृथ्वी से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं, उसी से ब्रह्मादि ऋषियों की उत्पत्ति हुई ।

वायु पुराण अ० १० में ब्रह्मा से आगे जो पुरुष हुये उनकी वंशावली निम्न प्रकार से दी है -

विराजमसृजद् ब्रह्मा सोऽभवत् पुरुषो विराट् ।
स सम्राट् सा सरूपात्तु वैराजस्तु मनुः स्मृतः ॥१४॥
स वैराजः प्रजासर्गः स सर्गे पुरुषो मनुः ।
वैराजात् पुरुषाद् वीराच्छतरूपा व्यजायत ॥१५॥

अर्थात् ब्रह्मा ने विराट् को उत्पन्न किया, उस विराट् से मनु की उत्पत्ति हुई और वही मनु प्रजाओं की सृष्टि करने वाला हुवा, उसी मनु से ही नानाविध प्रजायें उत्पन्न हुईं ।

अथर्ववेद में भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे (१८-२२-२) प्राणियों में ब्रह्मा सर्वप्रथम उत्पन्न होता है । अथवा जो मानव सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, वह ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध होता है । प्रथमोत्पन्न व्यक्ति जो चारों वेदों का विद्वान् हो उसे ब्रह्मा नाम से सम्बोधित किया जाता है । इस सृष्टि के वैवस्वत मन्वन्तर के ब्रह्मा की वंशावली निम्न प्रकार से है -

ब्रह्मा
विराट्
मनु

मनु से समस्त प्रजायें ।

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वाल्मीकीय रामायण में ब्रह्मा

बालकाण्ड में ब्रह्मा का वर्णन इस प्रकार है -

अव्यक्तप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः ॥७०-२०॥

अव्यक्त परमात्मा तथा प्रकृति से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । वे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुये, इसी कारण उनका नाम स्वयंभू है, उनके सांसारिक माता-पिता नहीं थे । परमात्मा पिता और प्रकृति (स्थूल भूतरूप पृथिवी) माता थी । माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (अथर्ववेद) ।

ब्रह्मा की वंशावली

तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः ।
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्मृतः ॥७०-७१॥
ब्रह्मा से मरीचि की उत्पत्ति हुई, मरीचि के पुत्र कश्यप हुये, कश्यप से विवस्मान् का जन्म और विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ ।

मनुः प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुश्च मनोः सुतः ।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् ॥२२॥

मनु प्रथम प्रजापति थे, उन से इक्ष्वाकु नामक पुत्र हुआ । उस इक्ष्वाकु को ही अयोध्या का प्रथम राजा समझना । यही कुल इक्ष्वाकु कुल के नाम से प्रसिद्ध है । इस वंश में महाराजा रघु और दशरथ के पुत्र महाराजा राम हुये ।

१. ब्रह्मा
२. मरीचि
३. कश्यप
४. विवस्मान्
५. वैवस्त मनु (प्रथम प्रजापति)
इक्ष्वाकु

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महाभारत के आदिपर्व के ६५वें अध्याय में ब्रह्मा का वर्णन इस प्रकार है -

हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्य स्वयम्भुवे ।
सुरादीनामहं सम्यग् लोकानां प्रभवाप्ययम् ॥९॥

वैशम्पायन जी ने कहा, अच्छा मैं स्वयम्भू भगवान् (ब्रह्मा) को नमस्कार करके तुम्हें देवतादि सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति और नाश का यथावत् वर्णन करता हूँ ।

ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः ।
मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ॥१०॥

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र छः महर्षि विख्यात हैं । मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु । ॥१०॥

मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः ।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्‍त्रयोदश ॥११॥

मरीचि के पुत्र कश्यप थे और कश्यप से ही ये समस्त प्रजायें उत्पन्न हुईं हैं । ब्रह्मा के एक पुत्र दक्ष भी थे । उस प्रजापति दक्ष के शौभाग्यशालिनी तेरह कन्यायें हुईं ।

अदितिर्दितिर्दनुः काला दनायुः सिंहिका तथा ।
क्रोधा प्राधा च विश्वा च विनता कपिला मुनिः ॥१२॥
कद्रूश्च मनुजव्याघ्र दक्षकन्यैव भारत ।
एतासां वीर्यसम्पन्नं पुत्रपौत्रमनन्तकम् ॥१३॥

उनके नाम इस प्रकार हैं - १. अदिति २. दिति ३. दनु

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४. काला ५. दनायु ६. सिंहिका ७. क्रोधा (क्रूरा) ८. प्राधा ९. विश्वा १०. विनता ११. कपिला १२. मुनि १३. कद्रू - ये सब सभी दक्ष की कन्यायें हैं । इनके बलपराक्रमसम्पन्न पुत्र पौत्रों की संख्या बहुत है ।

अदित्यां द्वादशादित्याः सम्भूता भुवनेश्वराः ।
ये राजन् नामतस्तास्ते कीर्तयिष्यामि भारत ॥१४॥

अदिति के पुत्र बारह आदित्य हुये, जिन्हें लोकेश्वर के नाम से कहते हैं । भरतवंशी नरेश ! उन सबके नाम तुम्हें बता रहा हूँ ।

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च ।
भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा ॥१५॥
एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुच्यते ।
जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः ॥१६॥

धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, ग्यारहवें त्वष्टा और बारहवें विष्णु कहे जाते हैं । इन सब आदित्यों में विष्णु छोटे हैं, किन्तु गुणों में सबसे बढ़कर हैं ।

दैत्यों का वर्णन

एक एव दितेः पुत्रो हिरण्यकशिपुः स्मृतः ।
नाम्ना ख्यातास्तु तस्येमे पञ्च पुत्रा महात्मनः ॥१७॥

दिति का एक ही पुत्र हिरण्यकशिपुः अपने नाम से विख्यात हुआ, उस महामना दैत्य के पांच पुत्र थे ।

प्रह्लादः पूर्वजस्तेषां संह्लादस्तदनन्तरम् ।
अनुह्लादस्तृतीयोऽभूत तस्माच्च शिबिवाष्कलौ ॥१८॥

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उन पांचों में प्रथम का नाम प्रह्लाद है । दैत्यों में भी यह एक देवता माना जाता है । उससे छोटे को संह्ललाद कहते हैं । तीसरे का नाम अनुह्लाद है । उसके बाद चौथे का नाम शिवि और पांचवां वाष्कल है ।

प्रह्लादस्य त्रयं पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत ।
विरोचनस्य कुम्भश्च निकुम्भश्चेति भारत ॥१९॥

भारत ! प्रह्लाद के तीन पुत्र हुये, जो सर्वत्र विख्यात हैं । उनके नाम ये हैं - विरोचन, कुम्भ और निकुम्भ ।

विरोचनस्य पुत्रोऽभवद् बलिरेकः प्रतापवान् ।
बलश्च प्रथितः पुत्रो बाणो नाम महासुरः ॥२०॥

विरोचन का एक ही पुत्र हुआ, जो महाप्रतापी बलि के नाम से प्रसिद्ध है । बलि का विश्वविख्यात पुत्र बाण नामक महान् असुर है ।

रुद्रास्यानुचरः श्रीमान् महाकालेति यं विदुः ।
चतुस्‍त्रिंशद दनोः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत ॥२१॥

जिसे सब लोग भगवान् शंकर के पार्षद श्रीमान् महाकाल के नाम से जानते हैं । भारत ! दनु के ३४ पुत्र हुये, जो सर्वत्र विख्यात हैं ।

तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिर्महायशाः ।
शम्बरो नमुचिश्चैव प्रलोमा चेति विश्रुतः ॥२२॥
असिलोमा च केशी च दुर्जयश्चैव दानवः ।
अयःशिरा अश्वशिरा अश्वशंकुश्च वीर्यवान् ॥२३॥


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तथा गगनमूर्धा च वेगवान् केतुमांश्च सः ।
स्वर्भानुरश्वो अश्वपतिर्वृषपर्वाजकस्तथा ॥२४॥
अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः ।
इषुपादेकचक्रश्च विरूपाक्षो हराहरौ ॥२५॥
निचन्द्रश्च निकुम्भश्च, कुपटः कपटस्तथा ।
शरभः शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा ॥
ऐते ख्याता दनोर्वंशे दानवाः परिकीर्तिताः ।२६।

उनमें महायशस्वी राजा विप्रचित्ति सबसे बड़ा था । उसके बाद शम्बर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरा, अश्वशिरा, पराक्रमी, अश्वशंकु, नगनमूर्धा, वेगवान्, केतुमान्, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, वृषपर्वा, अजक, अश्वग्रीव, सूक्षम, महाबली, तुहुण्ड, इषुपाद, एकचक्र, विरूपाक्ष, हर, अहर, निचन्द्र, निकुम्भ, कुपट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य और चन्द्रमा हैं । ये दनु के वंश में विख्यात दानव बताये गए हैं ।

अन्य जो काला दनायु आदि ९ कन्यायें हैं उनकी वंशावली भी महाभारत में अत्यन्त विस्तार से वर्णित है । उनका विवरण विस्तारभय से देना उचित नहीं है ।

ब्रह्मा के छः मानस पुत्र, संभव है कि वे उनके विद्यापुत्र (शिष्य) हों ।

ब्रह्मा
•मरीचि, •अत्रि, •अंगिरस, •पुलस्त्य, •पुलह, •क्रतु

मरीचि
कश्यप
कश्यप से ही सब प्रजा उत्पन्न हुई ।


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ब्रह्मा के एक पुत्र दक्ष प्रजापति थे, उनकी तेरह कन्यायें थीं, उन्हीं से देव, दैत्य और दानवादि की उत्पत्ति हुई, इसका ऊपर वर्णन हो चुका है ।

ब्रह्मा
दक्ष प्रजापति
•अदिति, •दिति, •दनु, •काला, •दनायु, •सिंहिका, •क्रोधा, •प्राधा, •विश्वा, •विनता, •कपिला, •मुनि, •कद्रू

अदिति से १३ आदित्य (देव) उत्पन्न हुये ।

अदिति
•धाता, •मित्र, •अर्यमा, •इन्द्र, •वरुण, •अंश, •भग, •विवस्वान्, •पूषा, •सविता, •त्वष्टा, •विष्णु

दिति का एक पुत्र
हिरण्यकशिपु

दिति का वंश दैत्य (असुर) नाम से प्रसिद्ध हुआ । इन दैत्यों में प्रह्लाद देव माना जाता है ।

हिरण्यकशिपु के पांच पुत्र हुये ।


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हिरण्यकशिपु
•प्रह्लाद, •संह्लाद, •अनुह्लाद, •शिवि, •वाष्कल ।

प्रह्लाद की भी तीन संतानें हुईं ।

प्रह्लाद
•विरोचन, •कुम्भ, •निकुम्भ

विरोचन का महाप्रतापी एक पुत्र बलि हुआ ।

विरोचन
•बलि

बलि का पुत्र महाप्रतापी बाणासुर महाकाल नाम से प्रसिद्ध है ।

दनु के चौंतीस पुत्र दानव कहलाये । उनमें दानवों का सुप्रसिद्ध और महायशस्वी प्रथम राजा विप्रचित्ति हुआ है ।

इस प्रकार देव और असुरवंश दोनों ही ब्रह्मा की सन्तान हैं । दोनों वंश महर्षि ब्रह्मा के ही वंश में हैं । आज भी जिस प्रकार देव विद्वान् श्रेष्ठ और असुर मूर्ख, दुष्ट प्रकृति की सन्तान एक ही पिता की देखने को मिलती है, इसी प्रकार देवयुग में और आदि सृष्टि से ही महर्षि ब्रह्मा के वंश में ही देवासुर उत्पन्न हुये । इतना ही नहीं, यक्ष और राक्षस भी इसी प्रकार ऋषिकुल में ही उत्पन्न हुये ।


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यक्ष और राक्षसादि

देवर्षि ब्रह्मा का एक पुत्र पुलस्त्य मुनि था, वह बड़ा तेजस्वी था । वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड के द्वितीयसर्ग में उसके विषय में लिखा है -

प्रजापतिसुतत्वेन देवानां वल्लभो हि सः ।
इष्टः सर्वस्य लोकस्य गुणैः शुभ्रैर्महामतिः ॥६॥
प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण ही देवता लोग उनसे बहुत प्रेम करते थे, वे बड़े बुद्धिमान् थे और अपने उज्जवल गुणों के कारण ही सब लोगों के प्रिय थे ।
वे मेरु पर्वत के निकट राजर्षि तृणबिन्दु के आश्रम में गये और वहीं तपस्या करने लगे । उनका राजर्षि तृणबिन्दु की सुयोग्य कन्या से पाणिग्रहण हो गया । उनका एक विश्रवा नाम का पुत्र हुआ जो अपने पिता के ही समान था ।

श्रुतिमान् समदर्शी च व्रताचाररतस्तथा ।
पितेव तपसा युक्तो ह्यभवद् विश्रवा मुनिः ॥३४॥

विश्रवा मुनि वेद के विद्वान्, समदर्शी, व्रत और आचार का पालन करने वाले तथा अपने पिता पुलस्त्य मुनि के समान ही तपस्वी हुये ।

अथ पुत्रः पुलस्त्यस्य विश्रवा मुनिपुंगवः ।
अचिरेणैव कालेन पितेव तपसि स्थितः ॥३-१॥

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पुलस्त्य के पुत्र मुनिवर विश्रवा थोड़े ही समय में पिता की भांति तप में संलग्न हो गये ।

सत्यवाञ्शीलवान् शान्तः स्वाध्यायनिरतः शुचिः ।
सर्वभोगेष्वसंसक्तो नित्यं धर्मपरायणः ॥२॥

वे सत्यवादी, शीलवान्, जितेन्द्रिय, स्वाध्याय परायण, बाहर भीतर से पवित्र, सम्पूर्ण भोगों में अनासक्त तथा सदा ही धर्म में तत्पर रहने वाले थे ।

ज्ञात्वा तस्य तु तद्‍वृत्तं भरद्वाजो महामुनिः ।
ददौ विश्रवसे भार्यां स्वसुतां देववर्णिनीम् ॥३॥

विश्रवा के इस उत्तम आचरण को जानकर महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का, जो देवांगना के समान सुन्दरी थी, उनके साथ विवाह कर दिया । विवाह करने के पश्चात् बहुत वर्षों तक घोर तप करते रहे ।

अथ प्रीतो महातेजाः सेन्द्रैः सुरगणैः सह ।
गत्वा तस्याश्रमपदं ब्रह्मेदं वाक्यमब्रवीत् ॥॥

तब उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महातेजस्वी ब्रह्मा जी इन्द्र आदि देवताओं के साथ उनके आश्रम पर पधारे और इस प्रकार बोले-

परितुष्टोऽस्मि ते वत्स कर्मणानेन सुव्रतः ।
वरं वृणीष्व भद्रं ते वरार्हस्त्वं महामते ॥१५॥

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उत्तमव्रत का पालन करने वाले वत्स ! मैं तुम्हारे इस कर्म तपस्या से बहुत सन्तुष्ट हूँ । महामते ! तुम्हारा भला हो, तुम कोई वर मांगो, क्योंकि तुम वर पाने योग्य हो ।

अथाब्रवीद् वैश्रवणः पितामहमुपस्थितम् ।
भगवंल्लोकपालत्वमिच्छेयं लोकरक्षणम् ॥१६॥

यह सुनकर वैश्रवण ने अपने निकट खड़े हुये पितामह से कहा - भगवन् ! मेरा विचार लोक की रक्षा करने का है, अतः मैं लोकपाल होना चाहता हूँ ।

अथाब्रवीद् वैश्रवणं परितुष्टेन चेतसा ।
ब्रह्मा सुरगणैस्सार्धं बाढ़मित्येव हृष्टवत् ॥१७॥

वैश्रवण की इस बात से ब्रह्मा जी के चित्त को और भी सन्तोष हुआ । उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक कहा - “बहुत अच्छा” ।
ब्रह्मा ने इन्द्र, वरुण और यम, जो तीन लोकपाल थे, उनके साथ चौथा लोकपाल वैश्रवण को बना दिया ।

पुष्पक विमान की भेंट

लोकपाल की उपाधि देने के उपरान्त ब्रह्मा ने चौथे लोकपाल वैश्रवण को पुष्पक विमान अर्पित किया ।

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एतञ्च पुष्पकं नाम विमानं सूर्यसन्निभम् ।
प्रतिगृह्णीष्व यानार्थं त्रिदशैः समतां व्रज ॥२०॥

यह सूर्यतुल्य तेजस्वी पुष्पक विमान है । इसे अपनी सवारी के लिए ग्रहण करो और देवताओं के समान हो जाओ ।

स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामः सर्व एव यथागतम् ।
कृतकृत्या वयं तात दत्त्वा तव वरद्वयम् ॥२१॥

तात ! तुम्हारा कल्याण हो, अब हम सब लोग, जैसे आये हैं वैसे लौट जायेंगे । तुम्हें ये दो वर देकर हम अपने को कृत्कृत्य समझते हैं ।

ब्रह्मा आदि देवताओं से आशीर्वाद पाकर ये देवर्षि वैश्रवण जो आगे चलकर धनेश और कुबेर नाम से विख्यात हुये, अपने पिता विश्रवा से पूछने लगे - पितामह, ब्रह्मा ने मुझे लोकपाल तो बना दिया किन्तु निवास के लिए कोई स्थान नहीं बताया, मैं ऐसा स्थान चाहता हूँ जहां रहने से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचे । उसके पिता ने लंकापुरी में निवास करने का आदेश दिया, जो दक्षिण समुद्र के तट पर त्रिकूट नामक पर्वत के शिखर पर बसी हुई है ।

लंकापुरी का वर्णन

तत्र त्वं वस भद्रं ते लंकायां नात्र संशयः ।
हेमप्राकारपरिखा यन्त्रशस्‍त्रसमावृता ॥२८॥

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बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम निःसन्देह लंकापुरी में ही जाकर रहो । उसकी चारदीवारी सोने की बनी हुई है । उसके चारों ओर चौड़ी खाइयां खुदी हुई हैं और अनेकानेक यन्त्रों तथा शस्‍त्रों से सुरक्षित है ।

रमणीया पुरी सा हि रुक्मवैदूर्यतोरणा ।
राक्षसैः सा परित्यक्ता पुरा विष्णुभयार्दितैः ॥२९॥

वह पुरी बड़ी ही रमणीय है । उसके फाटक सोने और नीलम के बने हुये हैं । पूर्वकाल में भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित हुये राक्षसों ने उस पुरी को त्याग दिया था ।

शून्या रक्षोगणै सर्वै रसातलतलं गतैः ।
शून्या सम्प्रति लंका सा प्रभुस्तस्या न विद्यते ॥३०॥

वे समस्त राक्षस रसातल को चले गये थे । इसलिये लंकापुरी सूनी हो गई । इस समय लंकापुरी सूनी ही है । उसका कोई स्वामी नहीं है ।
अपने पिता की आज्ञानुसार वैश्रवण कुबेर लंकापुरी में निवास करने लगा । कुछ काल पश्चात् लंकापुरी सहस्रों राक्षसों से भर गई । धर्मात्मा वैश्रवण राक्षसों के राजा होकर उन पर राज्य करने लगे । राक्षस भी उनकी आज्ञा में आनन्दपूर्वक रहने लगे ।

काले काले तु धर्मात्मा पुष्पकेण धनेश्वरः ।
अभ्यागच्छद् विनीतात्मा पितरं मातरं च हि ॥३५॥

धर्मात्मा धनेश्वर कुबेर समय-समय पर पुष्पक विमान के

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द्वारा अपने माता-पिता से मिल जाया करते थे । उनका हृदय बड़ा ही विनीत था ।
इसका विवाह सुमाली नामक राक्षस की पुत्री कैकसी से हुआ । कैकसी की माता का नाम “केतुमती” था । यह वंश राक्षसों का एक अन्य वंश था, जो महर्षि पुलस्त्य के सःन्तानों से चला था ।

राक्षसाश्च पुलस्त्यस्य वानराः किन्नरास्तथा ।
यक्षाश्च मनुजव्याघ्र पुत्रास्तस्य च धीमतः ॥
(महा० आदिपर्व ६६।७)

नरश्रेष्ठ ! बुद्धिमान् पुलस्त्य मुनि के पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर तथा यक्ष हैं । जिनकी वंशावली रामायण में विशद रूप से वर्णित है ।

पुलस्त्य
(पत्‍नी भया) •हेति, •प्रहेति,

हेति
(पत्‍नी सालकटंकटा) विद्युतकेश
सुकेश
•माल्यवान्, •सुमाली, •माली,

सुमाली
कैकसी (पुत्री)

इस कैकसी का विवाह विश्रवा से हुआ था । इसी वंश के राक्षस रसातल (पाताल - अमेरिका) को चले गये थे ।

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अशक्नुवन्तस्ते विष्णुं प्रतियोद्‍धुं बलार्दिताः ।
त्यक्त्वा लंकां गता वस्तुं पातालं सहपत्‍नयः ॥२२॥
सुमालिनं समासाद्य राक्षसं रघुसत्तम ।
स्थिताः प्रख्यातवीर्यास्ते वंशे सालकटंकटे ॥२३॥
(रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८)

वे किसी प्रकर भगवान् विष्णु का सामना नहीं कर सके । सदा ही उनके बल से पीड़ित होते रहे । अतः निशाचर लंका को छोड़कर अपनी स्‍त्रियों के साथ पाताल (अमेरिका) में रहने के लिये चले गये ।
रघुश्रेष्ठ ! वे विख्यात पराक्रमी निशाचर सालकटंकट वंश में विद्यमान राक्षस सुमाली का आश्रय लेकर रहने लगे ।

“सालकटंकट” यह वंश सुमाली की पितामही (दादी) सालकटंकटा के नम से विख्यात हुआ । अमेरिका में सालकटंकट के विषय में जो जनश्रुति प्रचलित है उसकी चर्चा भारतवर्ष का इतिहास द्वितीय खंड के चतुर्थ भाग में ३३९ पृष्ठ पर आचार्य रामदेव जी ने इस प्रकार की है -

अमेरिका में परम्परागत जनश्रुति

प्राचीन मैक्सिकन या एजटेक लोगों में यह अनुश्रुति विद्यमान थी कि उनकी सभ्यता का मूल पश्चिम या उत्तर-पश्चिम में है । सम्पूर्ण अमेरिका महाद्वीप में निवास करने वाली जातियों में यह अनुश्रुति किसी न किसी रूप में विद्यमान थी । एजटेक लोगों में तो यह लिखित रूप में पाई जाती है । यहां ध्यान रखना चाहिये कि अमेरिकन लोगों के लिये पश्चिम या उत्तर-पश्चिम

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एशियाटिक देश वा प्राच्य देश ही होंगे । अमेरिकन अनुश्रुति के अनुसार क्वेटसालकटल नाम का एक शुभ्र व्यक्ति प्राच्य देशों से उनके देश में आया था । इसकी दाढ़ी बहुत लम्बी थी, कद उंचा, बाल काले और रंग शुभ्र था । इसने अमेरिका निवासियों को कृषि की शिक्षा दी, धातुओं का प्रयोग सिखलाया और शासन व्यवस्था की कला में निपुणता प्राप्‍त कराई ।

क्वेटसालकटल अमेरिकन लोगों के लिये इतना अधिक लाभकारक और उपयोगी सिद्ध हुआ कि पीछे से उसकी देवता की तरह पूजा होने लगी । इस रहस्यमय व्यक्ति ने अमेरिका में सतयुग का प्रारम्भ किया । इसके प्रभाव से पृथ्वी पुष्पों और फलों से परिपूर्ण हो गई । इतना बड़ा अनाज होने लगा कि एक व्यक्ति एक सिट्टे से अधिक न उठा सकता था । नानाविध रंगों की कपास उगने लगी । अभिप्राय यह है कि उस दैवी पुरुष के प्रभाव से अमेरिका में नवीन युग प्रारम्भ हो गया ।

परन्तु यह क्वेटसालकटल बहुत समय तक अमेरिका में न रह सका । किसी देवता के प्रकोप से - क्या कारण था, इसका हमें पता नहीं है, इसे देश छोड़कर जाना पड़ा । जब वह मैक्सिकन खाड़ी के समीप पहुँच गया, तब उसने अपने अनुयायियों से विदा ली और समुद्र पार करके वापिस चला गया ।

यह क्वेटसालकटल कौन था ? इसमें सन्देह नहीं कि यह प्राच्य देश का रहने वाला था और इसका वर्णन सूचित करता है कि यह आर्य जाति का था । हम केवल अनुमान नहीं

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कर रहे हैं । हमारे पास इसके लिये दृढ़प्रमाण विद्यमान हैं । यह क्वेटसालकटल कौन था, इसे स्पष्ट करने के लिए रामायण के उत्तरकाण्ड में एक बड़ी मनोरंजक और उपयोगी कथा मिलती है । उसमें राक्षसों की उत्पत्ति की कथा लिखते हुये सालकटंकट वंश के राक्षसों की उत्पत्ति का वर्णन किया है । इनका विनाश विष्णु ने किया और उससे पराजित होकर सालकटंकट वंश के राक्षस लोग, जिनका मूल निवास-स्थान लंकाद्वीप था, पाताल देश में चले गये । इनका नेता “सुमाली” था ।

इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि विष्णु द्वारा पराजित सालकटंकट राक्षस पाताल वा अमेरिका देश में जा बसे थे और उन्हीं में से सुमाली, जो उनका नेता था, उसकी कन्या कैकसी के साथ देवर्षि विश्रवा का विवाह हुआ । आदि सृष्टि से ही पातालादि देशों के साथ हमारे पूर्वजों का विवाहादि सम्बन्ध प्रचलित था क्योंकि हमारा महाभारत पर्यन्त सारे संसार में चक्रवर्ती राज्य रहा ।

अमेरिका के “मैक्सिकन” क्वेटसालकटल और भारतीय सालकटंकट ये दोनों ही एक शब्द के रूपान्तर हैं । इन दोनों शब्दों का जनश्रुति एवं रामायण के वर्णन की इतिहास में पूर्ण समानता है । मैक्सिकन इतिवृत्त के अनुसार जो क्वेटसालकटल प्राच्य देशों का देवता उस देश के निवासियों को कृषि, धातुविद्या तथा शासन व्यवस्था सिखाने में समर्थ हुआ था, वह सालकटंकट सुमाली के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था ।

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राक्षस आदि कौन थे

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राक्षस लोग प्राचीन भारत की एक जाति विशेष ही थे, जो ब्रह्मादि ऋषियों की सन्तान ही थे । रावणादि राक्षसों का वेद, शास्‍त्रादि आर्य-साहित्य में कुशल होना, यज्ञ यागों का करना रामायण से स्पष्ट सिद्ध होता है । राक्षस लोग भारतीय थे, वे सभ्यता और भौतिक उन्नति में भारतीयों से न्यून न थे । वे अमेरिका आदि देशों में राजनैतिक कारणों से (विष्णु के सताये हुये) बाधित होकर गए थे । उनके द्वारा वैदिक सभ्यता का पाताल देश (अमेरिका) में अच्छा प्रचार हुआ । क्वेटसालकटल वा सालकटंकट के फिर पाताल देश से लौट आने की कथा भी रामायण के उत्तरकाण्ड के अष्टम सर्ग में अत्यन्त विस्तार से लिखी है ।

चिरात्सुमाली व्यचरद्रसातलं, स राक्षसो विष्णुभयार्दितस्तदा ।
पुत्रैश्च पौत्रैश्च समन्वितो बली, ततस्तु लंकामवसद्धनेश्वरः ॥२९॥

भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित होकर राक्षस सुमाली सुदीर्घकाल तक अपने पुत्र पौत्रों के साथ रसातल (अमेरिका) में विचरता रहा । इसी मध्य में धनाध्यक्ष कुबेर (वैश्रवण) ने लंका को अपना निवास स्थान बनाया ।
इस प्रकार राक्षस आदि आर्यों की ही सन्तान थे किन्तु ये इन्द्र आदि देवताओं को सताते थे ।

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ततस्तु ते राक्षसपुंगवास्‍त्रयो, निशाचरै पुत्रशतैश्च संवृताः ।
सुरान्सहेन्द्रानृषिनागयक्षान्, बबाधिरे तान् बहुवीर्यदर्पिताः ॥४६॥

सुमाली, माल्यवान् और माली आदि तीनों श्रेष्ठ राक्षस अपने बहुत पुत्रों तथा अन्यान्य राक्षसों के साथ रहकर अपने बाहुबल के अभिमान से युक्त होकर इन्द्र और अन्य देवताओं को, ऋषियों, नागों तथा यक्षों को पीड़ा देने लगे । (उत्तरकाण्ड ५।४६)

तब भगवान् शंकर के परामर्श से भगवान् विष्णु ने इन सुमाली आदि राक्षसों का अनेक बार समूल विध्वंस किया तथा इन्हें बाधित कर पाताल देश (अमेरिका) में भगाया । पुनः लंका के वैश्रवण द्वारा बसाये जाने के पश्चात् ये राक्षस अमेरिका से लौटकर लंका में आकर बस गये ।

इस प्रकार संक्षेप से राक्षसों का वर्णन हमने किया, इनकी कथायें एवं वंशावली रामायण तथा महाभारत में विस्तार से वर्णित है । इनका राक्षस नाम जीवों की रक्षा करने के कारण पड़ा । जब प्रजापति ब्रह्मा ने पूछा कि इन जीव जन्तुओं की रक्षा कौन करेगा, तब जिन्होंने रक्षा का भार संभाला वे राक्षस कहलाये । यज्ञ करने वाले याज्ञिक लोग यक्ष कहलाये ।

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‘रक्षाम’इति यैरुक्तं राक्षसास्ते भवन्तु वः ।
‘यक्षाम’इति यैरुक्तं यक्षा एव भवन्तु वः ॥१३॥
(उत्तर काण्ड सर्ग ४)

तुम में से जिन्होंने यह कहा है कि हम रक्षा करेंगे वे राक्षस नाम से प्रसिद्ध हों और जिन्होंने यज्ञ करना स्वीकार किया वे यक्ष नाम से विख्यात हों । इस प्रकार ये दोनों नाम ब्रह्मा प्रजापति के ही रखे हुये हैं ।
रक्षा करने वाले राक्षस और यज्ञ करने वाले यक्ष कहलाये । ये सब ब्रह्मा आदि के वंश में ही हुये ।

रावण आदि राक्षसों का वंश

राक्षसराज सुमाली की कन्या ने अपने पिता की आज्ञा से वैश्रवण (कुबेर) को वर लिया । उनकी सन्तान इस प्रकार हुई ।

विश्रवा (पत्‍नी - सुमाली की कन्या कैकसी)
•रावण, •कुम्भकर्ण, •सूर्पणखा, •विभीषण

यह सब जानते हैं कि रावण और कुम्भकर्ण दोनों महाबली राक्षस लोक में उद्वेग (हलचल) उत्पन्न करने वाले थे । विभीषण बाल्यकाल से ही धर्मात्मा थे । वे सदा धर्म में स्थिर रहते थे । स्वाध्याय और नियमित आहार करते हुये इन्द्रियों को अपने वश में रखते थे ।

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विभीषणस्तु धर्मात्मा नित्यं धर्मे व्यवस्थितः ।
स्वाध्यायनियताहार उवास विजितेन्द्रियः ॥३९॥
(उत्तर काण्ड ९ सर्ग)

ऐसा प्रतीत होता है कि विश्रवा और वैश्रवण नाम के अनेक ऋषि इस वंश में हुये हैं । उनमें से ही एक विश्रवा की सन्तान रावण आदि राक्षस थे । प्राचीन साहित्य में यह रीति प्रचलित थी कि प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम देकर साधारण व्यक्तियों के नाम छोड़ देते थे । ऐसा ही यहां किया गया है ।

इससे यही सिद्ध होता है कि देव, असुर, किन्नर, राक्षस, वानर आदि सब ऋषियों की सन्तान हैं । जो महर्षि ब्रह्मा के शिष्यों (मानसपुत्रों) की ही सन्तान हैं, उनके बहुत शिष्य थे, उनकी सन्तानों से सभी देवासुरादि की सृष्टि वा परम्परा चालू हुई । यह प्राचीन साहित्य से प्रमाणित होता है । इन्हीं की सन्तान ने अमेरिका आदि देशों को बसाया तथा वहां पर आर्य सभ्यता का प्रचार वा प्रसार किया ।

कृषि की शिक्षा देकर भौतिक उन्नति के साधनों को जुटाया । खाना, पीना, ओढ़ना, पहनना, भवन निर्माण, पशु-पालन और अनेक प्रकार के कलाकौशल भी सिखलाये ।

जिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि ऋषियों तथा उनके शिष्यों और पुत्र पौत्रों ने इस पवित्र वैदिक संस्कृति का सारे विश्व में सन्देश फैलाया, वे जिन विशेष गुण, कर्म और स्वभाव के कारण सब देवों में शिरोमणि माने जाते हैं उन वैदिक काल वा देवयुग के त्रिदेव का इतिहास आप अग्रिम अध्याय में अवलोकन करें ।


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चतुर्थ अध्याय - त्रिदेव

परमात्मा के असंख्य नाम हैं । क्योंकि परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं वैसे ही उसके अनन्त नाम भी हैं । आदि सृष्टि में ब्रह्मादि ऋषियों के नाम परमेश्वर के नामों का अनुकरण करके ही रखे गए हैं ।

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्‍ विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिस्वानमाहुः ॥
(ऋ० १६४-४६)

जो एक अद्वितीय सत्य ब्रह्म है । विप्र (विद्वान्) लोग उस एक का ही बहुत नामों से उच्चारण करते हैं । इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम मातरिश्व आदि नामों से उसी परम दिव्य परमात्मा का ग्रहण किया जाता है । उपर्युक्त नाम अनेक ऋषि और अन्य वस्तुओं के भी ब्रह्मादि ऋषियों ने वेद को देख कर सृष्टि के आरम्भ में रखे थे ।

ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ।
स एव विष्णुः स प्राणः स कालो‍ऽग्नि स चन्द्रमाः ॥

इसमें कुछ पाठभेद भी मिलता है -
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट् ।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमा ॥ कैवल्य उपनिषद् ॥

पाठभेद होने पर भी अर्थ में समानता है ।

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सब जगत् के बनाने से ब्रह्मा, सर्वव्यापक होने से विष्णु, दुष्टों को दण्ड देकर रुलाने से रुद्र, सबका कल्याण करने वाला होने से शिव, सर्वत्र व्याप्‍त ज्ञानदाता अविनाशी होने से अक्षर, स्वयं प्रकाशस्वरूप होने से अग्नि, प्रलय में काल और सबका काल होने से काल, वायु के समान बलवान् होने से वायु वा मातरिश्वा, सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप ज्ञान का दाता होने से सूर्य, रवि, आदित्य नाम हैं । ऐश्वर्यशाली होने से इन्द्र, सबको आनन्द देने वाला होने से चन्द्रमा है । जो सब स्थानों पर प्राप्‍त है और जो सब कुछ जानता है, इससे उस परमेश्वर का नाम “अंगिरा” है ।

परमेश्वर के नामों का अनुकरण करके अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, रुद्र, महेश, हर, इन्द्र आदि नाम ऋषियों तथा अन्य पदार्थों के ब्रह्मादि ऋषियों ने सृष्टि के प्रारम्भ में रखे । इस विषय में मनु जी महाराज का यह श्लोक प्रमाण है -

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥१-२१॥

ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक् पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये ।

त्रिदेव

ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) ये तीनों नाम भी उपरिलिखित

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लेखानुसार परमात्मा के नामों को देखकर हमारे इन पूर्वज देवर्षियों के रखे गये । इन महापुरुषों ने अपने नामों “यथा नाम तथा गुणः” के अनुसार ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव को बनाकर वैसा ही आचरण किया । इसलिये एक अरब छियानवें करोड़ वर्षों से भी अधिक काल व्यतीत होने पर भी ये तीनों महापुरुष आर्य जाति में आबालवृद्ध वनिता आज तक इतने आदर से स्मरण किये जाते हैं, जैसे ये इसी युग में हम सबके सम्मुख ही हुए हों और उनके किये उपकारों को हम अब भी प्रत्यक्ष देख रहे हों । देवों की यही तो विशिष्टता होती है कि वे अपने पवित्र सेवा कार्यों के कारण अमर हो जाते हैं ।

अब इन तीनों दिव्य, ऐतिहासिक पुरुषों की चर्चा इतिहास के आधार पर की जाती है ।
देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः ।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः ॥
(मनु० १२-४०)

अर्थात् जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे देव अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और तमोगुणी नीचगति को प्राप्‍त होते हैं ।

आदि सृष्टि में देवयुग में सहस्रों ऋषि मुनि और देवी देवता हुए हैं, किन्तु ब्रह्मा, विष्णु और महेश - ये तीन देवता अति प्रसिद्ध हैं । हरयाणे के सामान्य लोग पांच देवता मानते हैं ।

सदा भवानी दाहिने गोरीपुत्र गणेश ।
पांच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश ॥

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इनमें भव (महेश) की राणी भवानी (पार्वती वा गौरी) और गौरी के पुत्र गणेश, दो और देवताओं की गणना करके पांच की संख्या पूरी करते हैं । हरयाणे का शिव परिवार से विशेष स्नेह वा सम्बन्ध है, इसके कारण ये इसके अतिरिक्त छठा देवता स्वामी कार्तिकेय (शिव के द्वितीय पुत्र) को मानते हैं । आर्य संस्कृति के उपर्युक्त तीन वा पांच-छः देवताओं की विशेष मान्यता क्यों है, इस पर थोड़ा प्रकाश डालना उचित है ।
ब्रह्मा आदि देवों के विषय में इससे पूर्व के अध्याय में कुछ प्रकाश डाला जा चुका है, यहां थोड़ा विशेष लिखना आवश्यक है ।

सर्वश्रेष्ठ विद्वान ब्रह्मा

निरुक्तकार यास्क ने लिखा है ब्रह्मा सर्वविद्यः । सर्व वेदितुमर्हति । ब्रह्मा परिवृढः श्रुततः ।

अर्थात् ब्रह्मा सब विद्याओं का जानने वाला होता है । वह यज्ञ तथा सभी विद्याओं के जानने में समर्थ होता है । ज्ञान से बढ़ा हुआ होने से ही वह ब्रह्मा (वृहत्) कहलाता है ।

वेदों का ज्ञाता ब्रह्मा

वेद सब सत्यविद्याओं के ज्ञान का नाम है । ईश्वरप्रदत्त वेद ज्ञान की शिक्षा अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों के द्वारा आदि सृष्टि में ब्रह्मा को मिली । इसलिये श्वेताश्वतर उपनिषद् (६-१८) में लिखा है -

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महर्षि सूर्य

सूर्यात् सामवेदः (शतपथ) । आदि सृष्टि में ईश्वर के द्वारा इन्हीं के हृदय में सामवेद का ज्ञान प्रकट हुआ । इन से ब्रह्मा ने ग्रहण किया ।

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यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।

परमेश्वर ने ब्रह्मा को सृष्टि के आदि में उत्पन्न करके चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेदों का ज्ञान दिया । और ब्रह्मा ने यह वेदज्ञान अन्य ऋषियों को दिया । इसलिये ब्रह्मणे नमः उपनिषदों के अन्त में मिलता है, आदि गुरु ब्रह्मा को नमस्कार लिखते हैं । मुण्डकोपनिषद् में प्रमाण दिया है -

ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्‍ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥

ब्रह्मा जी सब देवों में पहले जन्म लेने से तथा सबसे विद्वान् होने से प्रथम माने जाते हैं । उन्हीं के पीछे अन्य मानवों ने जन्म लिया, उन सब प्राणियों तथा पदार्थों के नामकरण आदि इन्होंने ही किये । इसलिये ये विश्व के कर्ता कहलाये । सब संस्था आदि के निर्माण के कारण ये ही सब भुवनों के रक्षक कहलाये । और सब विद्याओं में श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या का प्रवचन अपने ज्येष्ठपुत्र अथर्वा के लिए किया । ब्रह्मा का हिरण्यगर्भ एक नाम था । हिरण्यगर्भ के बनाये हुए योगशास्‍त्र के दो श्लोक विष्णुपुराण २-१३ में मिलते हैं, जिनका भावार्थ यह है - योगी कभी अपनी साधना का अहंकार नहीं करता, वह मान को हानिकारक और अपमान को हितकर समझता है, इसलिए वह लोकैषणा से सदा दूर रहता है ।


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आयुर्वेद के प्रवक्ता ब्रह्मा

चरकसंहिता चिकित्सा स्थान १-४ में आयुर्वेदविद्या की परम्परा इस प्रकार दी है । ब्रह्मा ने आयुर्वेद की विद्या दक्ष प्रजापति को दी, दक्ष ने अश्विनीकुमारों को और अश्विनीकुमारों से इस विद्या को इन्द्र ने प्राप्‍त किया । सुश्रुत में भी ब्रह्मा को आयुर्वेद का प्रथम प्रवक्ता बताया है । ब्रह्मा ने हस्त्यायुर्वेद नाम का भी एक ग्रन्थ बनाया था ।

धनुर्वेद का आदिप्रवक्ता

महाभारत में लिखा है -

अर्जुनस्तु महाराज ब्राह्ममस्‍त्रमुदैरयत् ।
सर्वास्‍त्रप्रतिघातार्थं विहितं पद्मयोनिना ॥

सब अस्‍त्रों के प्रतिघात के लिये ब्रह्मा जी ने ब्रह्मास्‍त्र का निर्माण किया । अर्जुन ने भी इस परम्परागत विद्या को ग्रहण किया था ।

ब्रह्मास्‍त्र का निर्माता

ब्राह्मेणास्‍त्रेण संयोज्य ब्रह्मदण्डनिभं शरम् । (वा० रा० यु० का० २२।२५)

ब्रह्मास्‍त्र के निर्माता और शिक्षक स्वयं ब्रह्मा जी महाराज थे ।

पुष्पक विमान के आदि निर्माता

वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड के पन्द्रहवें सर्ग में लिखा है -

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देवोपवाह्यमक्षय्यं सदा दृष्टिमनःसुखम् ॥४०॥
बहवाश्चर्यं भक्तिचित्रं ब्रह्मणा परिनिर्मितम् ।
निर्मितं सर्वकामैस्तु मनोहरमनुत्तमम् ॥४१॥
न तु शीतं न चोष्णं च सर्वर्त्तुसुखदं शुभम् ॥

ब्रह्मा (विश्वकर्मा) द्वारा निर्मित विमान देवताओं का वाहन न टूटने फूटने वाला, देखने में सदा सुन्दर और चित्त को प्रसन्न करने वाला था । उसके भीतर अनेक प्रकार के आश्चर्यजनक चित्र थे । उसकी दीवारों पर नाना प्रकार के बेल बूटे बने हुये थे, जिससे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी । सब प्रकार की अभीष्ट वस्तुओं से सम्पन्न मनोहर और परम उत्तम था । न अधिक ठंडा न अधिक गर्म, किन्तु सभी ऋतुओं में सुखदायक और मंगलकारी था ।
काञ्चनस्तम्भसंवीतं वैदूर्यमणितोरणम् ॥३८॥
मुक्ताजालप्रतिच्छन्नं सर्वकालफलद्रुमम् ।
मनोजवं कामगमं कामरूपं विहंगमम् ॥३९॥
मणिकाञ्चनसोपानं तप्‍तकाञ्चनवेदिकम् ॥४०॥

उस विमान के खम्भे तथा फाटक स्वर्ण और वैदूर्यमणि के बने हुये थे । वह सब ओर से मोतियों की जाली से ढ़का हुआ था । उसके भीतर ऐसे वृक्ष लगे हुये थे जो सभी ऋतुओं में फल देने वाले थे । उसका वेग मन के समान तीव्र था । यात्रियों की इच्छानुसार सब स्थानों पर जा सकता था । तथा चालक की इच्छानुसार छोटा बड़ा रूप भी धारण कर लेता था । उस आकाशचारी विमान में मणि और स्वर्ण की सी सीढ़ियां तथा तपाये हुए सोने की वेदियां बनी हुईं थीं ।

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लिपि निर्माता ब्रह्मा

अपने अन्तर्गत भावों को किसी दूरस्थ व्यक्ति के आगे प्रकट करने तथा ज्ञान को सुदीर्घ काल तक सुरक्षित रखने के लिये लिखने की आवश्यकता हुवा करती है । यह लिखावट लिपि कहाती है । सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले लिपि के आविष्कर्ता ब्रह्मा जी ही थे । इसी कारण उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुवा । सर्ग के आदि से लेकर आज से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व तक यही लिपि प्रयोग में लाई जाती रही है । वेद भी इसी लिपि में लिपिबद्ध हुये । प्राचीन शिलालेख इसी लिपि में मिलते हैं । इसी प्रकार व्याकरण, ज्योतिषशास्‍त्र, गणितशास्‍त्र, अश्वशास्‍त्र, नाट्यशास्‍त्र, इतिहास (पुराण), मीमांसा आदि का प्रणयन भी सब विषयों के विद्वान् ब्रह्मा ने ही किया था ।

ब्रह्मा के चतुर्मुख

जो मूर्त्तियां ब्रह्मा की प्रस्तर वा मिट्टी की पुरानी, पुराने खण्डहरों से खुदाई से मिलती हैं और आजकल भी जो मन्दिरों तथा बाजारों में उनके चित्र मिलते हैं, वे चतुर्मुख (चार मुखों वाले) मिलते हैं । जो सृष्टि नियम के विरुद्ध होने से असम्भव है ।

सभी महापुरुषों के साथ कुछ कुछ विचित्र चमत्कारिक बातों को जोड़ देना यह पौराणिक युग की मिथ्या कल्पना है । कुछ इसको अलंकारिक रूप कहकर यह व्याख्या करते हैं कि अग्नि आदि चारों ऋषियों से ब्रह्मा ने नियम पूर्वक चारों वेदों का अध्ययन किया था और चतुर्वेदाद्‍ऋषि चारों वेदों का ज्ञान होने से ऋषि संज्ञा की प्राप्‍ति होती है । इसी कारण चारों

पृष्ठ ११८


वेदों के ज्ञाता होने से ब्रह्मा के चार शिरों की कल्पना कर चार शिर वाली मूर्ति की रचना पौराणिकों ने कर डाली जिससे भ्रम ही फैला, लाभ कुछ नहीं हुआ । ऐसी एक मूर्ति का चित्र इस पुस्तक में ८६ पृष्ठ पर दिया है, जो रोहतक जिले के अन्तर्गत सोनीपत तहसील में सतकुम्भा (सप्‍तकुम्भा) नामक प्राचीन दुर्ग से मिली है, यह भी पौराणिक काल से तीर्थ स्थान माना जाता है ।

अब द्वितीय देव विष्णु का वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों के अनुसार करता हूँ ।

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पृष्ठ ११९

विष्णु

अदिति के बारह पुत्र आदित्य वा देव माने जाते हैं । महाभारत आदि पर्व में लिखा है -

एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते ।
जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः ॥
(महा० आदि० ६५-१६)
विष्णु देवों में बारहवां है । सब आदित्यों में कनिष्ठ होता हुआ भी गुणों में सबसे अधिक है ।

वायु पुराण भी इसकी पुष्टि करता है -
ततस्त्वष्टा ततो विष्णुरजघन्यो जघन्यजः ॥६६॥

जन्म वा आयु में सबसे छोटा होने पर भी विष्णु छोटा नहीं माना गया । वायु पुराण में पुरुषश्रेष्ठ विष्णु को सब देवों का राजा लिखा है - आदित्यानां पुनर्विष्णुः ॥७०।५॥ अर्थात् बारह आदित्यों में से विष्णु को राज्य दिया गया । यह बारह देवों का कुल ही देवकुल वा सुरकुल नाम से प्रसिद्ध है । देवों का राजा होने से विष्णु सुरकुलेश कहलाया । यही विकृत होकर हरकुलीस बन गया जो यूनानियों का प्रसिद्ध देवता है तथा जिसका चित्र यूनानियों के बहुत मुद्राओं (सिक्कों) पर मिलता है । यवन लोग भी हरकुलीस (Hercules) के बारह भ्राता मानते हैं और हरकुलीस को सबसे कनिष्ठ (छोटा) मानते हैं ।

हमारे साहित्य में विष्णु को महासेनापति, राजा आदि माना गया है । इसके भी सहस्र नाम विष्णुसहस्रनाम पुस्तक

पृष्ठ १२०

में लिखे हैं । ये नाम महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १४९ से लिये गये हैं । राम कृष्ण आदि विष्णु के अठारह अवतार माने जाते हैं । सर्वव्यापक परमात्मा को एकदेशी होकर जन्म मरण के चक्कर में आने की कोई आवश्यकता नहीं । सर्वशक्तिमान् होने से वह अपने सब कार्य सृष्ट्युत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने में सर्वथा समर्थ है । रावणादि राक्षसों को मारने के लिये उसके अवतार धारण करने की वार्ता कहना उसका हास्य (मजाक उड़ाना) करना ही है । वह ईश्वर अकायमव्रणम् है, वह कभी शरीर (काया) धारण नहीं करता । ऐसा यजुर्वेद ४०-८ में स्पष्ट उल्लेख है । अतः विष्णु, राम, कृष्ण आदि सब हमारे पूर्वज आर्यजाति के महापुरुष थे, राजर्षि थे, देव थे ।

इसी प्रकार विष्णु जी महाराज १-सुरेश, देवों के स्वामी, २-धन्वी, धनुर्धारी या धनुष धारण करने वाले, ३-विक्रमी शूरवीर, ४-दुराधर्ष, किसी से भी न हारने वाले, ५-कवि, पुरुषार्थी, ६-वेदवित्, वेदों के विद्वान, ७-महातपः, महातपस्वी धर्मात्मा, ८-लोकाध्यक्ष, समस्त लोकों (प्रजाओं) के अध्यक्ष अधिपति वा राजा, ९-सुराध्यक्ष, १०-धर्माध्यक्ष, ११-सहिष्णु, सहनशील, १२-जेता, स्वभाव से युद्धों में विजय प्राप्‍त करने वाला, १३-वैद्य, आयुर्वेद शास्‍त्र के ज्ञाता चिकित्सक, १४-सदायोगी, सदैव योगाभ्यास करने वाले, १५-वीरहा, असुरादि शत्रुओं के वीरों का संहार करने वाले, १६-शास्ता, सब पर शासन करने वाले, १७-पुरु, सबको विद्या देने वाले विद्वान्, १८-सुरारिहा, देवों के शत्रुओं का हनन करने वाले, १९-वाचस्पतिः, सब विद्याओं के स्वामी भण्डार, २०-अग्रणी, नेता, २१-ग्रामणी, जनसमुदाय के नेता,

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२२-धरणीधर, धरती माता को धारण करने वाले राजा, २३-श्रुतिसागर, वेदरूपी ज्ञान के सागर, २४-सुभुजः, सुन्दर सुदृढ़ भुजाओं वाले क्षत्रिय, २५, महेन्द्रः, इन्द्र से भी महान्, २६-वाग्मी, वेदव्याख्याता, २७-आदिदेवः, आदि सृष्टि में होने वाले देव, २८-सुव्रतः, श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करने वाले २९-सुमुखः, सुन्दर मुख वाले प्रसन्न्वदन ३०-वीरबाहु, पराक्रमी वीर, ३१-गोपतिः, गौवों के पालक वा रक्षक, ३२-अमृतपः, अमृत पीने वाले तथा पिलाने वाले ३३-महर्षि, वेदों के ज्ञाता ३४-मेदिनीपतिः, राजा, ३५-सामगः, सामवेद का गान करने वाले, ३६-भिषक्, परम वैद्य, ३७-श्रीनिघिः, सब प्रकार के धनैश्वर्य के आधार, ३८-वीरः, ३९-शौरिः, शूर कुल में उत्पन्न, ४०-महातेजा महातेजस्वी, ४१-रणप्रियः, धर्म युद्ध प्रेमी, ४२-शान्तः, साधारण अवस्था में शान्त रहने वाले, ४३-शूरसेनः, शूरवीरों की सेना से युक्त, ४४-चतुर्वेदवित्, चारों वेदों के ज्ञाता ४५-महाकर्मा, महान् कर्मयोगी ४६-गदाधरः, गदा को धारण करने वाले, ४७-सर्वप्रहरणायुधः, सर्व प्रकार के शस्‍त्रास्‍त्रों को धारण करने वाले योद्धा, ४८-यज्ञपतिः, यज्ञ के रक्षक, ४९-भीमपराक्रमः, भीषण पराक्रम करने वाले योद्धा ५०-दक्षः, सब विद्या तथा कलाओं में निष्णात् पण्डित ५१-सात्त्विकः, सत्त्व गुण प्रधान देवता ५२-हुतभुक् यज्ञशेष खाने वाले ५३-धनुर्धरः, सदैव धनुष धारण करने वाले ५४-धनुर्वेदः, धनुर्विद्या के ज्ञाता ५५-रक्षणः, सब की रक्षा करने वाले सच्चे वीर क्षत्रिय राजा और ५६-विद्वत्तमः, विद्वानों में परम विद्वान् आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध थे ।

इनका ध्वज गरुडपक्षी के चित्र से युक्त था, इसलिये इनका

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एक प्रसिद्ध नाम ५७-गरुड़ध्वज था, ५८-वायुवाहनः वायु में विमान द्वारा गमन करने वाले महारथी थे । सब का कल्याण करने वाले ५८-स्वस्तिकृत् थे ।

उनके विमान का नाम गरुड़ था तथा उस पर गरुड़ध्वज अंकित रहता था । ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी विमानों के द्वारा आकाशमार्ग से यात्रा करते थे । सारे राष्ट्र की व्यवस्थार्थ शीघ्र गमनागमन के लिये विमानादि का निर्माण आदि सृष्टि में ही हो गया था । क्योंकि ब्रह्मा आदि विद्वान् सभी विद्याओं के भंडार थे । इसलिये इन देवों की कृपा से आदि सृष्टि में ही कलाकौशल उन्नति के शिखर पर पहुंच चुका था ।

हमारे पूर्वज मूर्ख तथा जंगली नहीं थे । जैसे ईर्षालु विद्वेषी इतिहासकारों ने विकासवाद का पाखण्ड कर उन्हें असभ्य दिखाने का यत्‍न किया है । प्रागैतिहासिक काल, प्रस्तरयुग, धातुयुग, सिन्धु सभ्यता आदि अनेक कपोल कल्पनायें विदेशी इतिहासकारों की मनघड़न्त हैं जो शनैः शनैः मिथ्या सिद्ध हो रही हैं ।
तृतीय देव महेश जो महेश, शिव, हर आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है, उसका वर्णन प्राचीय ग्रन्थों में इस प्रकार है ।

महेश (शिव)

महर्षि व्यास ने महाभारत में मुनिवर उपमन्यु के द्वारा शिवस्‍तोत्र का स्तुवन कराया है । वे कहते हैं -

नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गतिः ।
नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे ॥
(अनुशासन पर्व १५ अ० श्लोक ११)

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उपमन्यु मुनि बोले - महादेव के समान देवता नहीं है, न महादेव के समान गति (ज्ञान-गमन-प्राप्‍ति) है, दान विषय में महादेव के समान कोई नहीं है और न कोई पुरुष संग्राम में ही महादेव के समान योद्धा है । शर्व महादेव वा महेश का ही एक नाम है
देवर्षि ब्रह्मा शिव जी महाराज के रहस्यपूर्ण पवित्रवृत्त को जानते थे । महाभारत अनुशासनपर्व के १७वें अध्याय में लिखा है –

एतद् रहस्यं परमं ब्रह्मणो हृदि संस्थितम् ।
ब्रह्मा प्रोवाच शक्राय शक्रः प्रोवाच मृत्यवे ॥१७५॥

महर्षि ब्रह्मा ने इस महादेव स्‍तोत्र का जो उनके हृदय में एक रहस्य के रूप में अच्छी प्रकार से स्थित था, लोकोपकारार्थ अपने शिष्य शक्र देवराज इन्द्र के लिये प्रवचन किया और शक्र .......चार्य मृत्यु को बताया ।

मृत्युः प्रोवाच रुद्रेभ्यो रुद्रेभ्यस्तण्डिमागमत् ।
महता तपसा प्राप्‍तस्तण्डिना ब्रह्मसद्मनि ॥१७६॥
तण्डिः प्रोवाच शुक्राय गौतमाय च भार्गवः ।
वैवस्वताय मनवे गौतमः प्राह माधव ॥१७७॥
नारायणाय साध्याय समाधिष्ठाय धीमते ।
यमाय प्राह भगवान् साध्यो नारायणोऽच्युतः ॥१७८॥
नाचिकेताय भगवानाह वैवस्वतो यमः ।
मार्कण्डेयाय वार्ष्णेय नाचिकेतोऽभ्यभाषत ॥१७९॥

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मार्कण्डेयान्मया प्राप्‍तो नियमेन जनार्दन ।
तवाप्यहममित्रघ्न स्तवं दद्यां ह्यविश्रुतम् ॥१८०॥

मृत्यु ने रुद्रगणों के लिये वर्णित किया, रुद्रगणों में यह स्‍तोत्र तण्डि को प्राप्‍त हुआ । तण्डि ने ब्रह्म स्थान में महती तपस्या के द्वारा इसे पाया ॥१७६॥

हे माधव ! तण्डि ने शुक्र और गौतम को इसका ज्ञान दिया । गौतम ने वैवस्वत मनु के निकट इसका वर्णन किया और मनु महाराज ने नारायण नामक बुद्धिमान् प्रियपात्र साध्य को इस स्‍तोत्र का उपदेश किया, अच्युत साध्य नारायण ने यम से कहा, सूर्य्यपुत्र भगवान् यम ने नचिकेता से कहा । हे वृष्णिवंशप्रसूत ! नचिकेता ने मार्कण्डेय मुनि के लिये वर्णन किया । हे जनार्दन ! यह स्तोत्र नियम पूर्वक मुझे मार्कण्डेय ऋषि के समीप से प्राप्‍त हुवा है । हे शत्रुनाशन ! मैं तुम्हें यह अविश्रुत स्तोत्र प्रदान करूंगा । (१७७-१८०) ।

शिवस्तोत्र के ज्ञाताओं तथा प्रचारकों की परम्परा का देवर्षि ब्रह्मा से लेकर योगिराज श्रीकृष्ण तक महाभारत में उल्लेख किया है । यह स्तोत्र तण्डि के नाक से अधिक प्रसिद्ध है, अतः तण्डिकृत कहलाता है ।

महाभारत में शिवजी के १००८ नामों का उल्लेख मिलता है, जो उनके गुण, कर्म, स्वभाव और इतिहास पर प्रकाश डालते हैं । महाभारत अनुशासन पर्व १७वें अध्याय के ३१वें श्लोक से १८२ श्लोक तक इनका वर्णन है । विस्तारभय से श्लोकों का परित्याग कर मैं केवल विशेष नामों का ही उल्लेख करता हूँ ।

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१. स्थाणु - कूटस्थ - नित्य है । इसी नाम के कारण प्राचीन प्रसिद्ध नगर स्थाण्वीश्वर (थानेसर) जो कुरुक्षेत्र के पास विद्यमान है, प्रसिद्ध हुवा, और सम्भव है इसे शिवजी महाराज ने बसाया हो और वे स्वयं भी यहां निवास करते थे, क्योंकि (२) कुरुकर्ता (३) कुरुवासी (४) कुरुभूत ये नाम भी शिवजी के ही हैं । कुरुक्षेत्र वा कुरुजांगलादि के निर्माता होने से कुरुकर्त्ता, इस प्रदेश में निवास करने के कारण कुरुवासी और इस प्रदेश को सर्वथा उन्नत करने के कारण इसी में रम गये, इसमें एकरूप होने से कुरुभूत नाम से प्रसिद्ध हुए । यह स्थाण्वीश्वर कुरुप्रदेश वा कुरुक्षेत्र का मुख्यनगर हरयाणे के सम्राट् महाराज हर्षवर्द्धन तक इस प्रदेश की राजधानी रहा । इस नगर का नाम आज तक स्थाण्वीश्वर शिव के स्थाणु नाम के कारण वा समान कूटस्थ सा ही रहा है । (५) महादेव जी सभी विद्याओं के द्वारा सबके कष्टों को हरते थे, इस गुण के कारण वे (६) हर नाम से सारे विश्व में विख्यात हुए ।

वैदिक नाम हरयाणा

जब ब्रह्मा जी ने वेद के आधार पर गुण, कर्म, स्वभावानुसार सभी अधिष्ठानों के नाम रक्खे उसी समय हरयाणा प्रान्त का नाम भी वेद के अनुसार ही रक्खा गया, जिसका आधार निम्नलिखित मन्त्र है -

ऋज्रमुक्षण्यायने रजतं हरयाणे ।
रथं युक्तमसनाम सुषामणि ॥ऋग्वेद ८।२५।२२॥
अभिप्राय यह है कि जिस प्रदेश में समतल होने के कारण

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आवागमन सुगमता से हो सके, वाहन (सवारी) तथा अन्य कृषि आदि कार्यों के लिए बैल आदि पशु जहां बहुतायत से उपलब्ध हो सकते हों । जो भूभाग निरुपद्रव और शान्तियुक्त हो उसका नाम हरयाणः हो सकता है । इस मन्त्र के अनुसार ब्रह्मा जी को इस प्रदेश में उपर्युक्त सभी गुण दिखलाई दिये अतः इसका नाम हरयाणः रक्खा गया, जिसकी प्रसिद्धि शिवजी महाराज के लोकप्रिय गुणों के कारण शीघ्र ही समस्त भूमण्डल पर हो गई, जिसे आप वर्तमान में हरयाणा नाम से स्मरण करते हैं, यह उस प्राचीन हरयाणः प्रदेश का ही एक अंग है ।

शिवजी महाराज के हर नाम के अनुसार उन्हीं के समान अपने ज्ञान आदि गुणों के द्वारा सारे संसार का कष्ट हरने के कारण भी प्रसिद्ध हो गया । सारा भारत हर हर महादेव की गूंज से घोषित हो उठा और यह नाद आर्यजाति का युद्धघोष बन गया । देवर्षि ब्रह्मा से लेकर महर्षि व्यास पर्यन्त इसी देवभूमि ब्रह्मर्षि देश हरयाणे में यज्ञ-याग करते आये हैं । इन्होंने अपने गुरुकुल और आश्रमों का निर्माण यहीं पर किया और इस पवित्र कुरुभूमि में ज्ञान-यज्ञ की ऐसी ज्योति प्रज्वलित की कि जिसने सारे संसार को वेदज्ञान की ज्योति से प्रकाशित कर दिया । मनु जी महाराज को भी विवश हो इस सत्य की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक बनाकर करनी पड़ी -

एतद्‍देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥

यहां इस ब्रह्मर्षि देश हरयाणे की पवित्र भूमि में बने देवों, ऋषियों और आचार्यों के आश्रमों तथा गुरुकुलों में सारे भूमंडल

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के लोग वेदज्ञानविहित चरित्र की शिक्षा लेते थे । फिर महादेव के समान देवता विद्वान् कुरुभूमि के निर्माता इस कुरुभूमि हरयाणे के स्वयं निवासी बनकर अपने विद्या के अगाध सरोवर में संसार के दुःखी लोगों का स्नान कराके, उनको पवित्र बना, उनके कष्टों को हरकर अपने हर नाम को क्यों नहीं सार्थक करते? अवश्य करते । वे तो इससे भी आगे बढ़े ।अपने महाराणी पार्वती (गौरी), गौरीपुत्र गणेश और कार्त्तिकेय को इस कुरुभूमि के निर्माण में लगा दिया, सारे परिवार ने इसे अपने घर बना लिया । कार्त्तिकेय ने हरद्वार के निकट अपने वाहन (ध्वज) के नाम पर मयूरपुर नामक नगर बसाया, जो कनखल में अब भी मायापुर के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके अवशेष अब खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं । रोहतक को अपनी छावनी बना कर देव सेनापति ब्रह्मचारी स्कन्द ने महर्षि व्यास से महाभारत में इस इतिहास के तथ्य को कार्त्तिकेयस्य दयितं (भवनम्) रोहितकम् इस रूप में लिखवा दिया । अर्थात् कार्त्तिकेय का प्रियनगर और भवन (निवास स्थान) रोहतक था । आज तक प्रचलित महादेव पार्वती की सहस्रों कथायें यही सिद्ध करती हैं कि महेश का सारा परिवार इसी ब्रह्मर्षि देश में बहुत वर्ष तक निवास करता रहा और इसके निर्माण में अपना सर्वस्व लगाकर कुरुभूत हो गया ।

इसी कुरुभूमि हरयाणा में सभी शुभ कार्यों के आरम्भ में प्रचलित विध्ननिवारक विनायक गणेश की पौराणिक पूजा, देवी (पार्वती) और शिवजी के उत्सव वा वार्षिक तथा षाण्मासिक मेले, शिवालयों के रूप में प्रत्येक ग्राम नगर के ऊंची शिखर वाले बने मन्दिर, ये सभी इस सत्य इतिहास के प्रत्यक्ष

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प्रमाण और साक्षी हैं कि हर और उसका परिवार हरयाणे के कुरुभूत वा हरयाणाभूत हो गया था । इसी कारण हरयाणे ने भी अपने कुरुजांगल, कुरुभूमि, ब्रह्मर्षिदेश आदि अनेक प्रसिद्ध नाम भुला से दिये । हर के प्रेम में यह प्रदेश इतना मत्त वा पागल हो गया कि हर हर महादेव का घोष लगाते-लगाते केवल हरयाणे नाम का ही स्मरण रक्खा । यह प्रदेश हर का अनन्यभक्त वा श्रद्धालु आज तक है ।

७- शिवः, ८-दीनसाधकः, ९-सर्वाश्यः, १०- सर्वशुभंकरः आदि नाम प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में हैं । वह दीन-दुःखियों के दुःखों को दूर करने वाला, सबका कल्याणकारी, एकमात्र आधार सहारा था । मनुष्यों का ही नहीं, गौ नन्दी बैल सांड आदि सभी पशुओं का पालक और रक्षक था । इसीलिए ११-पशुपति, १२-गोपालि, १३-गोपति, १४-नन्दीश्वर, १५-नन्दीवर्धन, १६-गोवृषेश्वर आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ । यही नहीं, गावो विश्वस्य मातरः गौ सारे संसार की माता है, वे इस रहस्य को भली-भांति जानते थे अतः अपने विशाल ध्वज का चिह्न गो-जाति के प्रतीक नन्दी सांड को बनाया और १७-महाकेतु, १८-वृषकेतु, १९-वृषभध्वज, २०-गोवृषोत्तमवाहन आदि नामों से भी वे आज तक विख्यात रहे ।

पुष्ट्यै गोपालम् व्यक्ति देश, समाज वा राष्ट्र को सर्वप्रकार से पुष्ट करने के लिए गोपालक होना अनिवार्य है, वेद की इस आज्ञा के अनुसार वे गोपालक और गोपति बने । गौ, वा वृष को अपने ध्वज का चिह्न बनाकर सदा के लिये गोमाता को ही

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नहीं, सारे गोवंश को ही प्राणिमात्र में श्रेष्ठ और सबका पूज्य बना दिया । गौ सब गुणों की खान है । गोमाता में सब दिव्य गुणों (देवताओं) का वास है, इस बात को वे देवों के देव २१-महादेव भली भांति जानते थे । इसीलिये वे देवों के ही नहीं, असुरों के भी नेता बने, क्योंकि गोमाता तो देव, असुर, मनुष्य, पिशाच, राक्षस सभी को अपना अमृतरूपी दूध, दही, घी आदि प्रदान करती है । इसीलिये देव असुर सभी के शिवजी महाराज प्रिय और श्रद्धा के पात्र थे । अतःएव महर्षि व्यास ने इन्हें इन नामों से स्मरण किया है -

२२- देवासुरविनिर्माता २३- देवासुरपरायणः ॥१४४॥
२४- देवासुरगुरुः २५- देवो २६-देवासुरनमस्कृतः ।
२७- देवासुरमहामात्रो २८- देवासुरगणाश्रयः ॥१४५॥
२९- देवासुरगणाध्यक्षो ३०- देवासुरगणाग्रणीः ॥
३१- देवातिदेवो ३२-देवर्षिः ३३- देवासुरवरप्रदः ॥१४६॥
३४- देवासुरेश्वरो ३५-विश्वो ३६- देवासुरमहेश्वरः ।
३७- सर्वदेवमयो ३८- अचिन्त्यो ३९- देवात्मा ४०- आत्मसम्भवः ॥१४७॥

उपरिलिखित नामों से सिद्ध होता है कि वे देव और असुर दोनों के ही गुरु, महामात्र (परामर्शदाता) प्रिय, आश्रयदाता स्वामी, कल्याण चाहने वाले अग्रणी नेता थे । देव और असुर दोनों के गणों के निर्माण करने वाले थे । वे दोनों के ही पूज्य थे । सब देवासुर उनको आदरपूर्वक नमस्कार करते थे । वे उनको अपना अध्यक्ष और महेश्वर मानते थे, देवों के देव होने से महादेव कहलाते थे । उनकी शक्ति और गुण इतने थे कि वे देवों के

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तो आत्मा ही थे । उनकी शक्ति आदि अचिन्त्य (विचार में न आने वाली) थी । वे स्वयम्भू अमैथुनी सृष्टि में हुए थे अथवा अपने कार्यों के लिए उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं थी । सभी के स्वामी होने से वे महेश्वर अथवा देवराज इन्द्र के भी स्वामी कहे जाते थे । वे इन्द्र से भी महान् थे । प्रारम्भ में सभी देवासुर उनके ही अधीन थे । क्योंकि वे ४१- ब्रह्मचारी, ४२- जितेन्द्रिय, ४३- ऊर्ध्ववेता, ४४- तपस्वी, ४५- महातपः, ४६-योगी, ४७- सिद्धयोगी, ४८-मुनि, ४९-महात्मा, ५०-महर्षि थे । इसीलिए ५१-महायशस्वी होकर महादेव और महेश्वर की पदवी को प्राप्‍त हुए ।

चारों वेदों का सांगोपांग श्रद्धापूर्वक ५२-व्रताधिप बन कर अध्ययन किया । इस प्रकार ५३- महापण्डित विद्वान् बनकर लोककल्याण किया और पवित्र स्वभाव के कारण ५४-शीलधारी कहलाये । अतः देवासुर सब ही उनको अपना ५५-देवासुरपति मानने पर विवश हुए ।

वे आदर्श सन्तानोत्पत्ति के लिए ही गृहस्थ में प्रविष्ट हुए, इसीलिए गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता नाम से विख्यात हुए । और अपने अनुरूप महायोद्धा गणेश और देवसेनापति कार्तिकेय के समान गुणी सन्तान के पिता बने । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में देवासुर सबने मिलकर उनको अपना अध्यक्ष चयन किया था इसीलिये देवासुरेश्वर, ५६-देवेन्द्र, देवात्मा, देवासुरगणाध्यक्ष आदि नामों से सुशोभित हुए ।

प्रारम्भ में त्रिविष्टप् में सभी देवासुरों की सृष्टि उत्पन्न हुई थी और देवताओं का राज्य आरम्भ से महाभारत के बहुत

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पीछे तक वहां पर रहा । देव मिलकर देवराज इन्द्र का चुनाव करते थे और सभी ने मिलकर उसे स्वर्ग (सभी सुखों से युक्त) सुखदायी बना रखा था, इसीलिए त्रिविष्टप्, मोक्षद्वार, प्रजाद्वार और स्वर्गद्वार इन नामों से यह स्थान प्रसिद्ध हुआ और उस समय में देवराज इन्द्र स्वयं महादेव जी थे । इस कारण उनके नाम ५७-स्वर्गद्वार, ५८- प्रजाद्वार, ५९-मोक्षद्वार, ६०-त्रिविष्टप् पड़ गये । क्योंकि शिवजी महाराज देवेन्द्र प्रजा के लिए त्रिविष्टप् स्वर्ग और मोक्षप्राप्‍ति का द्वार बन गए थे । अतः उपरिलिखित नाम भी उनके साथ जुड़ गये । देवासुर प्रजा उन पर इतनी मुग्घ वा प्रसन्न थी कि उनको अपना ६१- पिता, ६२- माता, ६३-पितामह सब कुछ मानती थी ।

वे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी होने के कारण सर्वप्रकार के रोगों से रहित ६४- निरामय जीवनपर्यन्त पूर्ण स्वस्थ रहे । क्योंकि वे आयुर्वेद विद्या के भी बहुत अच्छे विद्वान् ६५-वैद्य थे । सारी प्रजा को स्वस्थ रहने के उपाय बताते थे । आवश्यकता पड़ने पर रोगों की चिकित्सा भी करते थे । अतः कुशल चिकित्सक होने से ६६-धनवन्तरि नाम से विभूषित थे ।

स्थावर संखिया, कुचलादि और जंगम सर्प, बिच्छू आदि विषों की चिकित्सा में निष्णात थे अतः हालाहल विष का पान, भयंकर विषधर सर्पों का उनके गले वा हाथों पर लिपटे रहना यही सिद्ध करते हैं कि इन्हें विषों से किसी प्रकार का भय नहीं था, इसी कारण ६७-सर्पचीरनिवासन सर्प को वस्‍त्र के समान धारण करने वाले थे । अन्यत्र नागमौञ्जी, नागकुण्डलकुण्डली, नागयज्ञोपवीती, नागचर्मोत्तरच्छद, सर्पकण्ठाग्राधिष्ठित,

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सर्पकण्ठोपहार आदि नामों से शिव को स्मरण किया है । वे अन्य सभी रोगों के चिकित्सक थे ।

उनका अपना स्वस्थ, सुदृढ़, सुन्दर, सुडौल शरीर था । इसीलिए ६८-महाकाय, ६९-महाहनुः, ७०-महारूप, ७१-विशालाक्ष, ७२-महानेत्र, ७३-महावक्षा, ७४-महोरस्कः, ७५-महामूर्धा, ७६-महाहस्त, ७७-महापाद और ७८-लम्बन आदि नामों से विभूषित किया है ।

उनका शरीर ही केवल आदर्श वा दर्शनीय नहीं था । वे क्षत्रियोचित सभी गुणों से युक्त थे । इसलिए ७९-बलवीर, ८०-देवसिंह, ८१-महाबल, ८२-गजहा, ८३-दैत्यहा, ८४-सुबल, ८५-विजय और ८६-पुरन्दर (शत्रु के पुरों दुर्गों को उजाड़ने वाला) आदि नाम क्षात्रप्रधान स्वभाव के सूचक हैं । महादेव जी के ८७-रुद्र, ८८-तिग्मतेज, ८९-तिग्मन्यु, ९०-रौद्ररूप, ९१-सिंहशार्दूलरूप, ९२-सिंहनाद, ९३-शत्रुविनाशन आदि नाम एक सच्चे वीर क्षत्रिय गुण-कर्म और स्वभाव वाले नाम हैं ।

इसीलिए वे ९४-महारथः, ९५-महासेनः, ९६-चमूस्तम्भनः, ९७-सेनापति आदि विशेषणों और पदों से सुशोभित हुए । वे सभी अस्त्रों-शस्त्रों के विद्या में सिद्धहस्त थे अर्थात् धनुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इसीलिए महाभारत में निम्नलिखित नाम तथा गुणों की चर्चा की है - ९८-कमण्डलुधरो, ९९-धन्वी, १००-बाणहस्तः, १०१-कपालवान्, १०२-अशनी, १०३-शतघ्नी, १०४-खड्गी, १०५-पट्टिशी, १०६-चायुधी महान् ।

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जहां वे महात्मा के रूप में कमडलुधारी थे वहां वे धनुष-बाण, अशनी, शतघ्नी, खड्ग, पट्टिश (परशु) आदि अस्त्र शस्त्रों को धारण करने वाले महान् योद्धा भी थे । बहुत प्रकार के अस्त्र शस्त्रों के प्रयोग करने में निपुण होने से महान् आयुधी कहलाते थे । १०७-शूलधर त्रिशूलधारी नाम भी अन्यत्र (महाभारत में) दिया हुवा है । इनका एक नाम वज्रहस्त भी मिलता है । अस्त्र शस्त्र ही इनके आभूषण थे ।

एक शूरवीर क्षत्रिय के सभी गुणों से वे अन्वित थे । इसीलिये राजाओं के राजा १०८-राजराजः १०९-प्रजापति ११०-अमरेश १११-लोकपाल ११२-लोकधाता ११३-गणकर्त्ता और ११४-गणपति आदि नाम अपने समय में राज्य के सबसे प्रमुख प्रधानाधिकारी होने के सूचक हैं । आदि सृष्टि में गणराज्य वा पंचायतराज्य के वे ही प्रथम निर्माता वा संस्थापक थे । इसीलिये महाभारत में ११५-गणाध्यक्ष और ११६-परिषत्-प्रिय - ये नाम भी शिवजी के आये हुये हैं । अपने युग में सब से अधिक योग्य होने से गणाध्यक्ष और महासेनापति चुने गये थे ।
इनके प्रिय शस्त्र पिनाक धनुष, त्रिशूल, परशु आदि के चित्र इनको मानने वाले गण यौधेयादि ने अपनी मुद्राओं पर भी अंकित किये हैं ।

ये युद्धक्षेत्र में अनेक प्रकार के वाद्यों (बाजों) को बजवाते थे । स्वयं भी वाद्यविद्या और संगीतविद्या में निपुण थे । इसीलिये इनके नाम ११७-वेणवी, ११८-पणवी, ११९-ताली, १२०-खली, १२१-कालकंटक आदि महाभारत में आये हैं । बांसुरी, ताल, ढोल, डमरू आदि वाद्य बजवाते थे और

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धनधान्य से इनका कोष परिपूर्ण रहने से खली वैश्रवण (कुबेर) इन के नाम पड़े । काल मृत्यु की माया को आच्छादन करने वाले (ढकने वाले) थे । काल को भी वश में कर रक्खा था ।

वे ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में शिखा रखने से १२२-शिखी, वानप्रस्थ में जटा रखने से १२३-जटी, और सन्यास में भद्र (मुण्डन) करवाने से १२४-मुण्डी कहलाये । वे आरम्भ में कैलाश पर्वत पर रहते थे अथवा ग्रीष्मकाल में उनकी बसती कैलाश पर्वत पर रहती थी । अन्य ऋतुओं में स्थाण्वीश्वर आदि स्थानों में उनका निवास रहता था । इसीलिए वे १२५-कैलाश-गिरिवासी कहलाते थे । महर्षि दयानन्द ने भी पूना के व्याख्यानों में इसकी पुष्टि की थी । यथा - “फिर दूसरे हिमाच्छादित भयंकर ऊंचे प्रदेश में महादेव वास करने लगा, उसे कैलाश कहते थे ।” (उपदेशमंजरी, व्याख्यान ८)

कैलाश पर्वत, कुरुप्रदेश आदि की शासन व्यवस्था करने के लिए शिवजी महाराज भ्रमण करते रहते थे, शीघ्रता से आने जाने के लिए वे वायुयान का प्रयोग किया करते थे, जिसका आकार बाहर से नन्दी (वृषभ) के समान था । उस विमान पर वृषभ के चित्र से युक्त ध्वज (झण्डा) लहराता रहता था । वाल्मीकीय रामायण में लिखा है -

ततो वृषभमास्थाय पार्वत्या सहितः शिवः ।
वायुमार्गेण गच्छन् वै शुश्राव रुदितस्वनम् ॥२७॥
अमरं चैव तं कृत्वा महादेवोऽक्षरोऽव्ययः ॥२९॥
पुरमाकाशगं प्रादात् पार्वत्याः प्रियकाम्यया ॥३०॥
(रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ४)

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$ वृषभाकार वायुयान पर शिवजी महाराज पार्वती के साथ बैठकर वायुमार्ग (आकाश) से जा रहे थे कि उन्हें एक राक्षस बालक का आर्तनाद सुनाई दिया । माता पार्वती को उस पर दया आ गई और विमान रुकवाकर उस बालक की सुरक्षा का प्रबन्ध कर दिया और बड़ा होने पर उस राक्षस जाति के बालक को एक नगराकारी (नगर के आकार वाला) आकाशचारी विमान पुरस्कृत किया ।

शिवजी का विमान कभी बादलों के ऊपर तो कभी बादलों को चीरता हुवा सदा भ्रमण करता रहता था, इसी कारण शिव के १२६-वायुवाहन, १२७-महामेघवासी, १२८-खचर १२९-खेचर (आकाश में विचरने वाला) इत्यादि अनेक पर्यायवाची नाम पड़ गये थे । इस प्रकार वे लम्बी-लम्बी यात्राओं तथा आवश्यक कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिये सदा ही वायुयान (विमान) से गमनागमन करते थे । इसी बात को महर्षि दयानन्द जी ने पूना के व्याख्यानों में कहा है कि जब आर्यावर्त की संख्या अधिक हुई तो उसे न्यून करने के लिये आर्य लोग (शिव आदि) अपने साथ मूर्ख → (अगला पृष्ठ देखें)
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$ यहां लुप्‍तोपमा है । अर्थ होगा - वृषभाकारमिव यानमास्थाय, वृषभमास्थाय, बिना इव और वत् निर्देश के भी इनका अर्थ गम्यमान हो जाता है । जैसे गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित् (अष्टाध्यायी १-२-१) के भाष्य पर पतञ्जलि मुनि लिखते हैं - ङित् को ङिद्‍वत् पढ़ना चाहिये, इसका निराकरण करते हुये वे कहते हैं - अन्तरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते वतिमतिदेशो गम्यते तद्यथा "एष ब्रह्मदत्तः" अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह । ते मन्याहे - ब्रह्मदत्तवदयं भवतीति । एवमिहाप्यङितं ङिदित्याह, ङिद्‍वदिति गम्यते । अकितं किदित्याह किद्‍वदिति गम्यते । इसी प्रकार यहां भी केवल "वृषभम्" इस पद से "वृषभमिव" और "वृषभवत्" ऐसा अर्थ निकलता है ।
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पृष्ठ १३६

शूद्र अनार्य लोगों को लेकर विमान उड़ाते फिरते, जहां सुन्दर प्रदेश देखते, झट वहीं पर बस जाते थे । इससे भी यही सिद्ध होता है कि शिवादि सदा विमानों से ही आया जाया करते थे ।

देवयुग में वर्णाश्रम धर्म

ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त हमारे देवर्षि व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए जिस वर्णाश्रम धर्म को मानते चले आये हैं, उसकी देवयुग के प्रारम्भ में क्या व्यवस्था थी, पाठकों के ज्ञानार्थ इस पर प्रकाश डालना उचित है ।
वर्णाश्रमधर्म ही आर्यों की संस्कृति के प्राण है, इसीलिए देवर्षि महर्षि दयानन्द जी ने भी इस पर अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश [1] में बड़ा बल दिया है । वे पांचवें समुल्लास में लिखते हैं “विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रह्मचर्य, सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ, विचार ध्यान और विज्ञान बढ़ाने, तपश्चर्या करने के लिए वानप्रस्थ और वेदादि सत्यशास्‍त्रों के प्रचार, धर्म व्यवहार का ग्रहण और दुष्ट व्यवहार के त्याग, सत्योपदेश और सबको निःसन्देह करने आदि के लिए सन्यासाश्रम है ।” क्योंकि वे ही धर्मात्मा जन सन्यासी और महात्मा हैं जो स्वयं धर्म में चलकर सब संसार को चलाते हैं जिस से आप और सब संसार को इस लोक अर्थात् वर्तमान जन्म में परलोक अर्थात् दूसरे जन्म में स्वर्ग अर्थात् सुख का भोग करते कराते हैं ।

इसी वर्णाश्रम धर्म का उपदेश महेश्वर शिवजी महाराज ने उमा (पार्वती) के कहने पर नारद आदि ऋषियों को दिया था ।

पृष्ठ १३७

महाभारत अनुशासन पर्व में उसका विस्तार से वर्णन दिया है । उसका थोडा सा दिग्दर्शन कराता हूँ ।
उमोवाच
भगवन् देवदेवेश नमस्ते वृषभध्वज ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं देव धर्ममाश्रमिणां विभो ॥
(अ० १४१, श्‍लो० ६०)

पार्वती बोली - भगवन् ! देवदेवेश्वर ! वृषभध्वज ! देव ! आपको नमस्ते (नमस्कार) है । प्रभो ! अब मैं आश्रमवालों का धर्म सुनना चाहती हूँ ।

श्रीमहेश्वर उवाच
तथाश्रमगतं धर्मं श्रणु देवि समाहिता ।
आश्रमाणां तु यो धर्मः क्रियते ब्रह्मवादिभिः ॥

श्री महेश्वर जी ने कहा - देवि ! एकाग्रचित्त होकर आश्रमधर्म का वर्णन सुनो । ब्रह्मवादी मुनियों ने आश्रमों का जो धर्म निश्चित किया है, वही यहां बताया जाता है ।

ब्रह्मचर्य आश्रमियों का धर्म

यह आश्रम शेष तीनों आश्रमों का मूल है । इसके सुधरने से सभी आश्रम सुधर जाते हैं और इसके बिगड़ने से सब बिगड़ जाते हैं । इसके विषय में शिवजी महाराज कहते हैं -
रहस्यश्रवणं धर्मो वेदव्रतनिषेवणम् ।
अग्निकार्यं तथा धर्मो गुरुकार्यप्रसाधनम् ॥३५॥

पृष्ठ १३८

भैक्षचर्या परो धर्मो नित्ययज्ञोपवीतिता ।
नित्यं स्वाध्यायिता धर्मो ब्रह्मचर्याश्रमस्तथा ॥३६॥
धर्म का रहस्य सुनना, वेदोक्त व्रतों का पालन करना होम और गुरुसेवा करना यह ब्रह्मचर्य आश्रमवासियों का धर्म है । ब्रह्मचारी के लिए भैक्षचर्या (गांवों में से भिक्षा मांगकर लाना और उसे गुरु को समर्पित करना) परमधर्म है । नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहना, प्रतिदिन वेद का स्वाध्याय करना और ब्रह्मचर्याश्रम के नियमों के पालने में लगे रहना, ब्रह्मचारी का प्रधान धर्म है ।

गृहस्थ धर्म

गृहस्थः प्रवरस्तेषां गार्हस्थं धर्ममाश्रितः ।
पञ्चयज्ञक्रियाः शौचं दारतुष्टिरतन्द्रिता ॥
ऋतुकालाभिगमनं दानयज्ञतपांसि च ।
अविप्रवासस्तस्येष्टः स्वाध्यायश्चाग्निपूर्वकम् ॥

गार्हस्थ्य धर्म पर प्रतिष्ठित गृहस्थ आश्रम श्रेष्ठ है । पञ्चमहायज्ञों का करना, बाहर भीतर की पवित्रता, अपनी ही स्‍त्री से सन्तुष्ट रहना, आलस्य त्याग, ऋतुकाल में केवल सन्तान के लिए पत्‍नी को वीर्य दान देना, दान, यज्ञ और कष्ट सहते हुए भी धर्माचरण करना, तपस्या में लगे रहना, पति-पत्‍नी का साथ रहना, एकाकी बहुत काल तक अन्य प्रदेश में पत्‍नी से दूर न रहना और अग्निहोत्र पूर्वक वेदशास्‍त्रों का स्वाध्याय - ये गृहस्थाश्रम के अभीष्ट धर्म हैं ।

पृष्ठ १३९

गृहस्थ का विशेष धर्म

श्रीमहेश्वर उवाच
अहिंसासत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम् ।
शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः ॥
(अनुशासन पर्व १४१-२५)

देवि ! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों को वश में रखना तथा अपने शक्ति के अनुसार दान देना गृहस्थ का उत्तम धर्म है ।
परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्‍त्रीपरिरक्षणम् ।
अदत्तादानविरसो मधुमांसस्य वर्जनम् ॥२६॥
परस्‍त्री से संसर्ग न रखना, धरोहर और स्‍त्री की रक्षा करना, बिना दिये वा पूछे किसी की वस्तु न लेना, मांस मदिरा का सेवन कभी न करना - ये गृहस्थ तथा सामान्यतया अन्य सब का भी धर्म है ।

वानप्रस्थ धर्म

जो घर का वास त्यागकर वन में ही निवास और वन में उत्पन्न आहार पर निर्वाह करे, उस (वानप्रस्थ) का विशेष धर्म यह है -
भूमिशय्या जटाश्मश्रुचर्मवल्कलधारणम् ।
अग्निहोत्रं त्रिषवणं तस्य नित्यं विधीयते ।।

पृष्ठ १४०

पृथ्वी पर सोना, जटा और दाढी मूंछें रखना, मृगचर्म वा वृक्षों के वल्कलवस्त्र धारण करना, प्रतिदिन अग्निहोत्र करना, त्रिकाल स्नान का विधान है ।
ब्रह्मचर्यं क्षमा शौचं तस्य धर्मः सनातनः ।
एवं च विगते प्राणे देवलोके महीयते ॥

ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौचादि उसका सनातन धर्म है । ऐसा करने वाला वानप्रस्थ मृत्यु के पश्चात् देवलोक को प्राप्‍त होता है ।

यतिधर्म

यतिधर्मास्तथा देवि गृहांस्त्यक्त्वा यतस्ततः ।
अकिञ्चन्यमनारम्भः सर्वतः शौचमार्जवम् ॥

हे देवि ! यति संन्यासी का धर्म इस प्रकार है । संन्यासी गृह त्यागकर अन्यों के कल्याणार्थ उपदेश देता हुआ इधर उधर विचरता रहे । वह अपने पास किसी वस्तु का संग्रह न करे, लोभी न हो । व्यर्थ के कार्यों में न फंसे । सब ओर से पवित्रता और सरलता को वह अपने भीतर स्थान दे । और –

सर्वत्र भैक्षचर्या च सर्वत्रैव विवासनम् ।
सदा ध्यानपरत्वं च दोषशुद्धिः क्षमा दया ॥
तत्त्वानुगतबुद्धित्वं तस्य धर्मविधिर्भवेत् ॥

सर्वत्र भिक्षा से जीवन यापन करे । किसी स्थान में मोह करके न रहे । अपना घर न बनावे । सदा ध्यान में तत्पर रहना, दोषों से शुद्ध रहना, सब पर क्षमा और दया का भाव

पृष्ठ १४१

रखते हुए कल्याणार्थ उपदेश देना । अर्थात् कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगाना और बुद्धि को सदैव शुभकार्यों के चिन्तन में लगाये रहना । ये सब संन्यासी के धर्म हैं । ऐसे अतिथि की सेवा करना सब का कर्त्तव्य है ।
तस्य पूजा यथाशक्त्या सौम्यचित्तः प्रयोजयेत् ।
चित्तमूलो भवेद्‍धर्मो धर्ममूलं भवेद्यशः ॥
अतः कोमलचित्त होकर श्रद्धापूर्वक ऐसे संन्यासी अतिथि की यथाशक्ति सेवा करनी चाहिए । क्योंकि चित्त की शुद्धि धर्म का मूल है और यश का मूल धर्म है ।

दान की महिमा

श्रेयो दानं च भोगश्च धनं प्राप्य यशस्विनि ।
दानेन हि महाभागा भवन्ति मनुजाधिपाः ॥

हे यशस्विनि ! धन पाकर उसका दान और भोग करना भी श्रेष्ठ है, परन्तु दान करने से मनुष्य महान् शौभाग्यशाली नरेश होते हैं ।

नास्ति भूमौ दानसमं नास्ति दानसमो निधिः ।
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातक परम् ॥

इस भूमि पर दान के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है । दान के समान कोई निधि नहीं है । सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्य से बढ़कर कोई पातक (गिराने वाला) पापकर्म नहीं है ।

पृष्ठ १४२

वर्णधर्म

विप्राः कृता भूमिदेवा लोकानां धारणे कृताः ।
ते कैश्चिन्नावमन्तव्या ब्राह्मणाहितमिच्छुभिः ॥

ब्राह्मणों को इस भूमि का देवता बनाया है । वे सब लोकों की प्रजा की रक्षार्थ उत्पन्न किये हैं । अतः अपना हित चाहने वाले किसी भी मनुष्य को ब्राह्मणों का अपमान नहीं करना चाहिये । जो अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के द्वारा संसार को सुखी बनाते हैं, उन ब्राह्मणों का सदैव सर्वत्र आदर सत्कार होना चाहिये ।

ब्राह्मण का कर्त्तव्य

स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः ।
कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः ॥
सत्यं शांतिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः ॥

वेदों का स्वाध्याय, पठन-पठन, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना शास्‍त्रविहित ब्राह्मण का धर्म है । वेदों का पढ़ना, यजमान का यज्ञ कराना और दान लेना ये ब्राह्मण की जीविकार्थ साधनभूत कर्म हैं । सत्याचरण करना, मन को वश में रखना, शुद्ध आचार का पालन करना, यह ब्राह्मण का सार्वकालिक सनातन धर्म है ।
विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः । रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है ।

पृष्ठ १४३

तप एव सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः ।
स तु धर्मार्थमुत्पन्नः पूर्वं धात्रा तपोबलात् ॥

सदा तप करना ही ब्राह्मण का धर्म है, इसमें संशय नहीं है । विधाता ने पूर्वकाल में धर्म का अनुष्ठान करने के लिये ही अपने तपोबल से ब्राह्मण को उत्पन्न किया था ।

न्यायतस्ते महाभागे ! सवंशः समुदीरितः ।
भूमिदेवा महाभागाः सदा लोके द्विजातयः ॥३०॥

महाभागे ! मैंने तुम्हारे निकट सब प्रकार से धर्म का निर्णय किया है । महाभाग ब्राह्मण अपने परोपकारी जीवन के कारण इस लोक में सदा भूमिदेव माने गये हैं ।

क्षत्रिय का आचार वा धर्म

क्षत्रियस्य स्मृतो धर्मः प्रजापालनमादितः ।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते ॥
(अनुशासन पर्व १४१-४७)

क्षत्रियों का सर्वप्रथम धर्म प्रजा का पालन करना है । प्रजा की आय के छठे वा दसवें भाग का उपभोग करने वाला राजा धर्म का फल प्राप्‍त करता है ।

क्षत्रियास्तु ततो देवि द्विजानां पालने स्मृताः ।
यदि न क्षत्रियो लोके जगत्स्यादधरोत्तरम् ॥
रक्षणात् क्षत्रियैरेव जगद् भवति शाश्वतम् ॥

देवि ! क्षत्रिय सब द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के पालन में तत्पर रहते हैं । यदि संसार में क्षत्रिय न होता तो

पृष्ठ १४४

इस जगत् में भारी विप्लव (गड़बड़) हो जाता । क्षत्रियों द्वारा रक्षा होने से यह जगत् सदैव सुरक्षित टिका रहता है ।

तस्य राज्ञः परो धर्मो दमः स्वाध्याय एव च ।
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥४९॥
राजा का परम धर्म है इन्द्रिय संयम, ब्रह्मचर्यपालन, वेद का स्वाध्याय, अग्निहोत्र कर्म दान और अध्ययन ।

सम्यग्दण्डे स्थितिर्धर्मो धर्मो वेदक्रतुक्रियाः ।
व्यवहारस्थितिधर्मः सत्यवाक्यरतिस्तथा ॥५१॥

अपराध के अनुसार उचित दण्ड देना, वैदिक यज्ञादि धर्म कार्यों का अनुष्ठान, व्यवहार में न्याय की रक्षा करना और सत्यभाषण में अनुरक्त होना सभी कर्म राजा वा क्षत्रिय के धर्म ही हैं ।

महर्षि देव दयानन्द ने इस विषय में बहुत अच्छा लिखा है - “इसलिए ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्‍न से करावें । क्योंकि क्षत्रियादि ही विद्या, धर्म, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करने हारे हैं, वे कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते, इसलिए वे विद्या व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते । और जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकते, इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं ।”

पृष्ठ १४५

इसलिए सब वर्णों के स्‍त्री पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए ।

क्षत्रिय को मोक्षप्राप्‍ति

आर्त्तहस्तप्रदो राजा प्रेत्य चेह महीयते ।
गोब्राह्मणार्थे विक्रान्तः संग्रामे निधनं गतः ॥५२॥
अश्वमेधजितांल्लोकानाप्नोति त्रिदिवालये ॥५३॥

जो राजा वा क्षत्रिय दुःखी मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, सहायता करता है, वह इस लोक और परलोक में भी सम्मानित होता है । गौवों और ब्राह्मणों को संकट से बचाने के लिए जो पराक्रम दिखाकर संग्राम में परलोक गमन करता है, वह स्वर्ग में वा परलोक में अश्वमेध यज्ञों द्वारा जीते हुए लोकों पर अधिकार स्थिर कर लेता है ।

वैश्य का धर्म

तथैव देवि वैश्याश्च लोकयात्राहिताः स्मृताः ।
अन्य तानुपजीवन्ति प्रत्यक्षफलदा हि ते ॥
यदि न स्युस्तथा वैश्या न भवेयुस्तथा परे ॥
देवि पार्वति! इसी प्रकार वैश्य भी लोगों की जीवनयात्रा के निर्वाह में सहायक माने गये हैं । दूसरे वर्णों के लोग उन्हीं के सहारे जीवननिर्वाह करते हैं क्योंकि वे प्रत्यक्ष फल देने वाले हैं । यदि वैश्य न हों तो दूसरे वर्ण के लोग भी न रहें ।

वैश्यस्य सततं धर्मः पाशुपाल्यं कृषिस्तथा ।
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥५४॥

पृष्ठ १४६

वाणिज्यं सत्पथस्थानमातिथ्यं प्रशमो दमः ।
विप्राणां स्वागतं त्यागो वैश्यधर्मः सनातनः ॥५५॥

पशुओं का पालन, खेती, व्यापार, अग्निहोत्र कर्म, दान, अध्ययन, सन्मार्ग का आश्रय लेकर सदाचार का पालन, अतिथिसत्कार, शम, दम, ब्राह्मणों का स्वागत और त्याग - ये सब वैश्यों के सनातन धर्म हैं ।

महर्षि दयानन्द जी खेती करने वाले किसान के विषय में बहुत अच्छा लिखते हैं -
“यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले हैं और राजा प्रजा का रक्षक है । जो प्रजा न हो तो राजा किसका और राजा न हो तो प्रजा किसकी कहावे ?”
इस प्रकार राजा और प्रजा एक दूसरे पर आश्रित रहते हैं । दोनों ही अपने कर्त्तव्यकर्म का पालन करें, तभी राष्ट्र का कल्याण वा उन्नति हो सकती है ।

शूद्र का धर्म

सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति यथार्हतः ।
शूद्रधर्मः परो नित्यं शुश्रूषा च द्विजातिषु ॥५७॥
स शूद्रः संशिततपाः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
शुश्रूषुरतिथिं प्राप्‍तः तपः संचिनुते महत् ॥५८॥

शूद्र का धर्म है कि यथाशक्ति यथायोग्य त्रिवर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) का आतिथ्य सत्कार और सेवा करनी चाहिए । जो शूद्र सत्यवादी, जितेन्द्रिय और घर पर आये हुये अतिथि की सेवा करने वाला है वह महान् तप का संचय कर लेता है ।


पृष्ठ १४७

तथैव शूद्रा विहिताः सर्वधर्मप्रसाधकाः ।
शूद्राश्च यदि ते न स्युः कर्मकर्ता न विद्यते ॥
इसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण धर्मों के साधक बताये गए हैं । यदि शूद्र न हों तो सेवा का कार्य करने वाला कोई नहीं है । पहले के जो तीन वर्ण हैं वे शूद्रमूलक हैं अर्थात् इनका मूल शूद्र ही है ।

महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश [2] के चतुर्थ समुल्लास में लिखते हैं -
शूद्र को सेवा का अधिकार इसलिए है कि वह विद्यारहित मूर्ख होने से विज्ञान संबन्धी कुछ भी नहीं कर सकता, किन्तु शरीर के सब काम कर सकता है ।

इस प्रकार वर्णाश्रम धर्म पर बहुत विस्तार से शिवजी महाराज का उपदेश महाभारत में दिया हुवा है । हम पहले लिख चुके हैं कि वे सभी विद्याओं के धुरन्धर विद्वान्, देवों के महासेनापति, सब प्रकार के धनैश्वर्य के स्वामी, सबका दुःख हरने वाले, कल्याणकारी, लोकपाल और गणराज्य के आदि-संस्थापक थे । इसीलिये महादेव, महेश्वर, महासेनापति, गणपति, गणकर्त्ता, शिव और हर नाम से अधिक प्रसिद्ध हुये । हरयाणे के लोग इन्हीं नामों से अद्यावधि उनका स्मरण करते हैं । हर नाम उनको सब से प्यारा लगा, इसीलिये हर हर महादेव का युद्धघोष हरयाणे में ही नहीं, सारे भारत में प्रचलित हो गया, जो आज तक भी है ।

हरयाणा नाम इस प्रांत का वैदिक नाम था, किन्तु अपने इस पूर्वज शिवजी महाराज के हर नाम ने सोने पर सुहागे का काम दिया । हरयाणे के पूर्वज यौधेयों ने भी अपनी मुद्रांक पर महेश्वर नाम अंकित किया और शिवजी के प्रिय शस्‍त्र


पृष्ठ १४८

त्रिशूल तथा परशु का भी चित्र अंकित कर डाला । यह मुद्रा हमें यौधेयों के प्राचीन दुर्ग सुनेत से प्राप्‍त हुई है । इस पर ब्राह्मी लिपि में महेश्वर लिखा हुआ है । यह मोहर ईसा से पूर्व की है । इससे शिवजी के प्रति हमारे पूर्वजों की श्रद्धा प्रकट होती है ।
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(ऊपर) यौधेयों की मुद्रांक का यथार्थ चित्र है जिस पर परशु और त्रिशूल अंकित हैं और शिव का महेश्वर नाम ब्राह्मी लिपि में लिखा है ।

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यौधेय गण की मुद्रांक राजधानी रोहतक से प्राप्‍त

इस दूसरी मुद्रांक (मोहर) पर शिव जी महाराज का प्रिय → (अगला पृष्ठ देखें)

पृष्ठ १४९

हरयाणा जाति का सुन्दर कुकुद्‍मान् नन्दी (सांड) है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि महासेनापति शिवजी महाराज का एक प्राचीन दुर्ग रोहतक भी था, जिसका एक नाम वीरद्वार था तथा शिवजी के पुत्र देवसेनापति कार्तिकेय का प्रिय नगर और भवन कार्तिकेयस्य दयितं (भवनम्) रोहितकम् रोहतक था । इस पर नन्दी के चित्र पर ब्राह्मी लिपि में लेख है - महासेनापतयस्य वीरद्वारे । यह ईसा से पूर्वकाल का ही प्रतीत होता है ।
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पृष्ठ १५०

शिवजी महाराज तथा उनके परिवार को हरयाणे के रोहतक आदि नगर ऐसे ही प्रिय थे जैसे कैलाश पर्वत और काशी प्रिय थी । हरयाणे के आर्योपदेशक दादा पण्डित बस्तीराम जी ने भी कहा है -

काशी तीन लोक से न्यारी थी ।
काशी शिवजी को प्यारी थी ।

हरयाणे के पौराणिक भाई शिव की स्तुति अब भी भजनों द्वारा इस प्रकार किया करते हैं –

कर के मध्य कमण्डल, चक्र त्रिशूल विधर्ता,
जुगकर्त्ता जुगहर्त्ता दुःखहर्त्ता सुखकर्त्ता ।
ओम् जय शिव ओंकारा ॥
सत् चित् आनन्दसरूपा, त्रिभुवन के राजा ।
चारों वेद विचारत, शंकर वेद विचारत ।
ओढ़त म्रुगछाला, गुरु अनहद का बाजा ॥ओम०॥

हरयाणे के जंगम जोगी प्रत्येक ग्राम में घूम-घूमकर शिव-पार्वती का विवाह प्रतिवर्ष झूम-झूमकर जनता को गाकर सुनाते हैं, जिससे शिव पार्वती के प्रति उनकी अटूट भक्ति सिद्ध होती है ।

देशोऽस्ति हरयाणाख्यः पृथिव्यां स्वर्गसन्निभः ।

मुस्लिम काल में भी हरयाणा प्रदेश स्वर्ग के समान था, पुनः देवयुग में तो इसकी सम्पन्नता का अनुमान आप स्वयं कर सकते हैं ।
इस प्रकार स्वर्ग समान हरयाणा शिवजी महाराज को अत्यन्त प्रिय था तथा हरयाणेवालों को भी शिवजी महाराज और उनका परिवार सदा ही अत्यन्त प्रिय रहा है ।

आगामी अध्याय में आप देवों की सन्तान आर्यों के प्राचीन क्षत्रियवंशों के विषय में पढ़ेंगे ।

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पंचम अध्याय - आर्यों के प्राचीन क्षत्रिय वंश

पाठक पहले अध्यायों में पढ़कर भली-भांति जान गये होंगे कि हमारा इतिहास आदिसृष्टि से ही प्रारम्भ होता है । पाश्चात्य विचारकों वा लेखकों की मिथ्या कल्पनानुसार कोई काल ऐसा नहीं हुआ जिसमें इतिहास का अभाव था । आदि सृष्टि से ही ऐतिहासिक परम्परा प्रचलित है । प्रागैतिहासिक काल की कल्पना करके पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी मूर्खता वा द्वेष ही प्रकट किया है । हमारे पूर्वज भूमि पर मानवादि प्राणियों की उत्पत्ति का इतिहास भी जानते थे । अतः हमारे प्राचीन ग्रन्थों में सर्वत्र ऐतिहासिक चर्चा आदि काल से ही देखने को मिलती है । अतः प्राग् ऐतिहासिक काल शब्द ही महामिथ्या कल्पना है ।

भारतीय इतिहास का अतिप्राचीनकाल आदिकाल कहा है, जिसका वर्णन प्रथम अध्याय में हुआ है । ब्रह्मा से उत्पत्ति प्रारम्भ होती है, उसके पुत्र स्वायम्भुव मनु थे । भृगुप्रोक्त मनुस्मृति में विराट् का पुत्र मनु लिखा है, जैसे मैं पहले लिख चुका हूँ -

ब्रह्मा
विराट्
मनु स्वायम्भुव

किन्तु स्वायम्भुव विशेषण यह सिद्ध करता है कि वे विराट् के पुत्र (स्वायम्भुव) मनु थे । प्राचीनकाल में शिष्य को भी पुत्र माना जाता था, अतः ब्रह्मा का शिष्य होने से वह दोनों का पुत्र

पृष्ठ १५२

तथा स्वायम्भुव हो सकता है । आदि सृष्टि में उत्पन्न होने से स्वायम्भुव दोनों का शिष्य होने से दोनों का पुत्र माना गया । महर्षि यास्क ने लिखा है -

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥३-४॥

आदि सृष्टि में अवान्तर प्रलय के पश्चात् स्वयंभू ब्रह्म के पुत्र मनु ने धर्म का उपदेश दिया । मनु ने ब्रह्मा से शिक्षा पाकर भृगु, मरीचि आदि ऋषियों को वेद की शिक्षा दी । इस परम्परा वर्णन का पर्याप्‍त भाग मनुस्मृति में यथार्थरूप में मिलता है ।

सर्वप्रथम राजा

संसार के सर्वप्रथम राजा स्वायम्भुव मनु थे । राजा शब्द आज जिस अर्थ में रूढ़ हो गया है, उस अर्थ में मनु जी राजा नहीं थे किन्तु लोक के विधि-विधान अर्थात् न्याय-नियम के निर्माता होने से वे राजा कहलाये ।
कुछ विद्वान् स्वायम्भुव मनु के पुत्र मरीचि को प्रथम क्षत्रिय राजा मानते हैं ।
स्वायम्भुव मनु (वैराज) के दो पुत्र प्रियव्रत प्रजापति और उत्तानपाद हुये । प्रियव्रत की सन्तान ने सात द्वीपों पर राज्य किया । वायुपुराण में इसका वर्णन इस प्रकार है –

मनोः स्वायम्भुवस्यासन् दशपौत्रास्तु तत्समाः ।
यरियं पृथिवी सर्वा सप्‍तद्वीपसमन्विता ॥
(वायुपुराण अ० ३३ श्लोक ४)
स्वायम्भुव मनु के दश पौत्र (पोते) थे, जिन्होंने इस सात द्वीपों से युक्त पृथिवी पर राज्य किया ।

पृष्ठ १५३

प्रियव्रतात् प्रजावन्तो वीरात् कन्या व्यजायत ।
कन्या सा तु महाभागा कर्दमस्य प्रजापतेः ॥
कन्ये द्वे दशपुत्राश्च सम्राट् कुक्षिश्च ते उभे ।
तयोर्वै भ्रातरः शूराः प्रजापतिसमा दश ॥
(वायुपुराण ३३ अ० ७-९)

वीर प्रियव्रत ने प्रजापति कर्दम की पुत्री प्रजावती से विवाह किया । यह कर्दम सर्वप्रथम प्रजापति था । प्रियव्रत और प्रजावती से दो कन्यायें तथा दश पुत्र उत्पन्न हुए । वे दसों भाई प्रजापति के समान ही शूरवीर थे । राजा प्रियव्रत ने समस्त वसुन्धरा को सात द्वीपों में विभक्त करके अपने सात पुत्रों को उनका अधिपति बना दिया ।
मार्कण्डेय पुराण इन्हें मनु के पुत्र मानता है । इस पुराण के कथनानुसार प्रियव्रत के पुत्र अर्थात् स्वायम्भुव के पौत्रों ने पृथिवी पर राज्य किया ।

तस्माच्च पुरुषात् पुत्रौ शतरूपा व्यजायत ।
प्रियव्रतोत्तानपादौ प्रख्यातावात्मकर्मभिः ॥
मार्क० ५० अ० १५ श्लोक)

उस स्वायम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुये, जो निज शुभ कर्मों से संसार में प्रसिद्ध हुये । इन्हीं के अनेक पुत्र हुये, जिन्होंने पृथिवी पर राज्य किया ।
अग्निपुराण में भी इन्हें स्वायम्भुव मनु का पुत्र बतलाया है ।

प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायम्भुवात्सुतौ ।
अजीजनत् स तां कन्यां शतरूपां तपोऽन्विताम् ॥
(अग्निपुराण १८ अ० १ श्‍लोक)

पृष्ठ १५४

मत्स्यपुराण का भी यही मत है । इस पुराण में स्वायम्भुव की पत्‍नी का नाम भी उल्लिखित है ।

स्वायम्भुवो मनुर्धीमान् तपस्तप्‍त्वा सुदुश्चरम् ।
पत्‍नीमेवाप रूपाढ्यां अनन्तीं नाम नामतः ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुस्तस्यामजीजनत् ॥
(मत्स्य पुराण ४ अ० ३३-३४ श्‍लोक)

बुद्धिमान् स्वायम्भुव मनु ने घोर तपस्या के अनन्तर अनन्ती नाम्नी पत्‍नी को प्राप्‍त किया जिससे उन्होंने उत्तानपाद और प्रियव्रत नामक दो पुत्रों को उत्पन्न किया ।

आग्नीध्रश्च वपुष्मांश्‍च मेधामेधातिथिर्विभुः।
ज्योतिषमान् द्युतिमान् हव्यः सवनः सर्व एव च ॥
प्रियव्रतोऽभिषिच्यैतान् सप्‍त सप्‍तसु पार्थिवान् ।
द्वीपेषु तेषु धर्मेण द्वापांस्तांश्च निबोधत ॥
(वायुपुराण ३३ अ० ९-१० श्लोक)

महाराज प्रियव्रत की दो कन्या और दश पुत्र थे । उनके नाम ये हैं - १- आग्नीध्र २- वपुष्मान् ३- मेधा ४- मेधातिथि ५- विभु ६- ज्योतिष्मान् ७- धुतिमान् ८- हव्य ९- सवन १०- सर्व । इन दश पुत्रों को राजा प्रियव्रत ने एक एक द्वीप का अधिपति बना दिया । वे द्वीप भी वायुपुराण में वर्णित हैं ।

जम्बूद्वीपेश्‍वरं चक्रे आग्नीध्रन्तु महाबलम् ।
प्लक्षद्वीपेश्वरश्चापि तेन मेधातिथिः कृतः ॥
शाल्मलौ तु वपुष्मन्तं राजानमभिषिक्तवान् ।
ज्योतिष्मन्तं कुशद्वीपे राजानं कृतवान् प्रभुः ॥११-१२॥


पृष्ठ १५५

महाराजा प्रियव्रत ने अपने ज्येष्ठपुत्र आग्नीध्र को जम्बू द्वीप का राजा बनाया, जो कि महाबली था । मेधातिथि को लक्षद्वीप का, वपुष्मान् को शाल्मलि द्वीप का और ज्योतिष्मान् को कुशद्वीप का राजा बनाया ।

द्युतिमन्तं च राजानं क्रौञ्चद्वीपे समादिशत् ।
शाकद्वीपेश्वरं चापि हव्यं चक्रे प्रियव्रतः ॥
पुष्कराधिपतिं चापि सवनं कृतवान् प्रभुः ॥१३-१४॥

राजा प्रियव्रत ने क्रौञ्चद्वीप में द्युतिमान् को, शाक द्वीप में हव्य को तथा पुष्कर द्वीप में सवन को राज्य करने का आदेश दिया ।
इस प्रकार सप्‍तद्वीपा वसुमती पर राजा प्रियव्रत के सात पुत्रों ने राज्य किया । ब्रह्माण्डपुराण में भी इसका वर्णन है, परन्तु वहां कुछ नामभेद व राज्यभेद अवश्य हैं ।

आग्नीध्रो मेधातिथिश्‍च वपुष्मांश्‍च तथापरः ।
ज्योतिषमान् द्युतिमान् भव्यः सवनः सप्‍त एव ते ॥
मेधाग्निबाहुमित्रश्च तपोयोगपरायणाः ।
जातिस्मरा महाभागा न राज्याय मनो दधुः ॥
प्रियव्रतोऽभ्यषिञ्चत् तान् सप्‍त सप्‍तसु पार्थिवान् ॥
(ब्रह्माण्ड पुराण पूर्वभाग १४-६)

१- आग्नीध्र २-मेधातिथि ३-वपुष्मान् ४- ज्योतिष्मान् ५- द्युतिमान् ६- भव्य ७- सवन ८-मेधा ९- अग्निबाहु १०- मित्र । सात पुत्रों ने तो सप्‍तद्वीपों का राज्य भार संभाला । छोटे तीन भाइयों की राज्य करने में प्रवृत्ति न थी, अतः वे तपस्यार्थ योगी हो गये ।

पृष्ठ १५६

वायुपुराण के अनुसार हव्य को राजा बनाया गया और तीन पुत्र मेधा, विभु और सर्व योगी बन गये । ब्रह्माण्ड के अनुसार भव्य को राज्य मिला और मेधा, अग्निबाहु और मित्र योगी बन गये । प्रियव्रत के पुत्रों ने जिन द्वीपों पर राज्य किया, उनका श्लोकों से वर्णन कर चुके हैं । वे इस प्रकार हैं -

Thumb

विद्वानों का यह मत है कि स्वायम्भुव मनु आदि नाम प्रत्येक मन्वन्तर के आदि में समान रहते हैं । चाक्षुष और वैवस्वत मन्वन्तर में भी यही नाम थे ।

इस प्रकार प्रियव्रत ने अपने ज्येष्ठपुत्र आग्नीध्र को वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में जम्बू द्वीप का राजा बनाया जैसे पहले लिखा जा चुका है । आग्नीध्र का ज्येष्ठ पुत्र नाभि था । उसके भी आठ भ्राता थे । उन नौ पुत्रों के लिये आग्नीध्र ने जम्बू द्वीप को नौ भागों में विभाजित किया । उन में से हिमारण्य दक्षिण वर्ष का राज्य नाभि को मिला । नाभि का पुत्र ऋषभ था, यह सब क्षत्रियों का पूर्वज माना जाता है । वायुपुराण के तेतीसवें

पृष्ठ १५७

अध्याय में इसका विस्तार से वर्णन है । मैं संक्षेप से उसका दिग्दर्शन मात्र कराना चाहता हूँ ।

नाभेस्तु दक्षिणं वर्षं हिमाहवं तु पिता ददौ ।
नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मेरुदेव्यां महाद्युतिः ॥
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥५०॥
मेरु देवी से तेजस्वी नाभि ने ऋषभ नाम का पुत्र उत्पन्न किया जो सब राजाओं में श्रेष्ठ हुआ और सब क्षत्रियों का पूर्वज कहलाया ।

ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रः शताग्रजः ।
सोऽभिषिच्याथ भरतं पुत्रं प्राव्रज्यमास्थितः ॥५१॥
ऋषभ के बहुत पुत्रों में सबसे बड़ा और वीर भरत नामक पुत्र पैदा हुआ जो सब से श्रेष्ठ था । उस ऋषभ ने भरत का राज्याभिषेक करके स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया ।

हिमाहवं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत् ।
तस्मात्तद् भारतं वर्षं तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ॥
(वायुपुराण ३३ अ० ५२ श्‍लोक)

पिता ने भरत को हिमालय के दक्षिण का वर्ष (देश) दिया जो कि उसी के नाम पर भारतवर्ष नाम से विख्यात हुआ ।
इससे यही सिद्ध होता है कि भारतवर्ष इस देश का अत्यन्त प्राचीन नाम है । महाभारत भीष्मपर्व में कौरव मन्त्री श्री संजय एवं धृतराष्ट्र का संवाद आता है । धृतराष्ट्र कहते हैं -

यदिदं भारतं वर्षं यत्रेदं मूर्छितं बलम् ।
यत्रातिमात्रलुब्धोऽयं पुत्रो दुर्योधनो मम ॥
(भीष्म पर्व ९-१)

पृष्ठ १५८

संजय ! यह जो भारतवर्ष है, जिसमें यह राजाओं की विशाल सेनायें युद्ध के लिये एकत्र हुई हैं, जहां का साम्राज्य प्राप्‍त करने के लिये मेरा पुत्र दुर्योधन ललचाया हुआ है, उस भारतवर्ष का तुम वर्णन करो ।
संजय कहता है –

अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत ! भारतम् ।
प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च ॥
पृथो‍ऽस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः ।
ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च ॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च ।
ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा ॥
कुशिकस्य च दुर्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः ।
सोमकस्य च दुर्धर्ष दिलीपस्य तथैव च ॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम् ।
सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम् ॥५-९॥

अर्थात् भारतवर्ष देवराज इन्द्र, वैवस्वत मनु, पृथु, वैन्य, महात्मा इक्ष्वाकु, ययातिअम्बरीषमान्धातानहुषमुचुकुन्दशिवि, औशीनर (उशीनर के सन्तान शिविकैकययौधेय आदि), ऋषभऐलनृपति नृगकुशिक, महात्मा गाधि, सोमकदिलीप तथा अन्य जो महाबली क्षत्रिय नरेश हुये हैं, उन सभी को भारतवर्ष बहुत प्रिय रहा है ।

इस से यह सिद्ध है कि देश-प्रेम की देन आधुनिक युग की

पृष्ठ १५९

नहीं किन्तु आदि सृष्टि से ही देवराज इन्द्र आदि सभी हमारे पूर्वज देशभक्ति से ओत-प्रोत थे । इस से यह भी सिद्ध होता है कि आदि काल से ही भारतभूमि के निवासी हमारे पूर्वज आर्य लोग ही हैं, सृष्टि के आरम्भ से ये उपर्युक्त राजा आर्यभूमि भारत में राज्य करते आ रहे हैं । उनकी वंशावली निम्न प्रकार से है -

ब्रह्मा
स्वायम्भुव मनु
प्रियव्रत
आग्नीध्र
नाभि
ऋषभ
भरत
(पुत्र को राज्य सौंपकर वन में जाकर जिन्होंने तपस्या की)
सुमति
(पुत्र को राज्य सौंपकर वन में जाकर जिन्होंने तपस्या की)
इन्द्रद्युम्न - प्रजापति, परमेष्ठी
प्रतीहार
(प्रतिहर्त्ता नाम से प्रसिद्ध था)
उन्नेता
भुव
•उद्‍गीथ, •प्रतावि

पृष्ठ १६०

प्रतावि
विभु
पृथु
नक्त
गय
नर
विराट्
धीमान्
महान्
भौवन
त्वष्टा
अरिज
रजः
शतजित्

इसी प्रकार की वंशावली मार्कण्डेय पुराण में भी दी गई है जिसके अन्त में उपसंहार करते हुये कहा है -

पृष्ठ १६१

एतेषां पुत्रपौत्रैस्तु सप्‍तद्वीपा वसुन्धरा ।
प्रियव्रतस्य पुत्रैस्तु भुक्ता स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥
इस स्वायंभुव मन्वन्तर में राजा प्रियव्रत के पुत्र-पौत्रों ने सप्‍तद्वीपा वसुन्धरा का भोग किया ।

तेषां वंशप्रसूतैर्भुक्तेयं भारती धरा ।
कृतत्रेतादियुक्तानि युगारण्यान्येकसप्‍ततिः ॥
(वायुपुराण ३४-६२)
और इन्हीं की वंशपरम्परा में उत्पन्न उपर्युक्त व्यक्तियों ने भारती धरा पर राज्य किया । कृत (सतयुग), त्रेतादि जो कहे हैं, उन ७१ युगों तक राज्य किया ।

येऽतीतास्तैर्युगै सार्द्धं राजानस्ते तदन्वयाः ।
स्वायम्भुवे‍ऽन्तरे पूर्वे शतशोऽथ सहस्रशः ॥ वा० ६३-९३॥
स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरों में सहस्रों राजा हुए हैं । ऊपर उनका संक्षेप से विवरण देकर यह संकेत कर दिया है । इसी प्रकार चाक्षुष तथा वैवस्वत मन्वन्तरों में भी समझें । नामों में समानता होने पर भी युगों के भेद का ध्यान अवश्य रक्खें ।

चाक्षुष मन्वन्तर में वेनपुत्र पृथु

वायु पुराण के तरेसठवें अध्याय में वेनपुत्र पृथु का वर्णन है । यह चाक्षुष मन्वन्तर का वृत्त है ।

चाक्षुषस्यान्तरेऽतीते प्राप्‍ते वैवस्वते पुनः ।
वैन्येनेयं मही दुग्धा यथा ते कीर्तितं मया ॥१९॥

पृष्ठ १६२

चाक्षुष मन्वन्तर के बीत जाने पर और वैवस्वत मन्वन्तर के प्रारम्भ में वेन ने इस पृथ्वी को भोगा । इसका वर्णन विस्तार से नीचे दिया जाता है ।

देवों की विष्णु से राजा की मांग

अथ देवाः समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम् ।
एको योऽर्हति मर्त्येभ्यः श्रैष्ठ्यं वै तं समादिश ॥
(महाभारत शान्तिपर्व ५९-८७)

तदनन्तर देवों ने प्रजापति भगवान् विष्णु से प्रार्थना की - भगवन् ! मनुष्यों में जो पुरुष सर्वश्रेष्ठ (राजा का) पद प्राप्‍त करने योग्य हो, उसका नाम बतायें । तब विष्णु महाराज ने अपने एक मानसपुत्र (शिष्य) विरजा को सुशिक्षित करके सौंप दिया, किन्तु वह विख्यात पुरुष इस कार्य को करने के लिए उद्यत नहीं हुवा ।

विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत ।
न्यासायेवाभवद्‍बुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव ॥८९॥
पाण्डुपुत्र ! महाभाग विरजा ने पृथ्वी पर राजा होने की इच्छा नहीं की क्योंकि वैराग्य के कारण उसने संन्यास ले लिया ।

कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत्सोऽपि पञ्चातिगोऽभवत् ।
कर्दमस्तस्य तु सुतः सोऽप्यतप्यन्महत्तपः ॥९०॥

विरजा का पुत्र कीर्तिमान् था, वह भी पांचों विषयों से ऊपर उठकर मोक्षमार्ग का अवलम्बन करने लगा अर्थात्

पृष्ठ १६३

संन्यासी बन गया । कीर्तिमान् का पुत्र कर्दम भी बड़ा भारी तपस्वी हो गया, अर्थात् विरजाकीर्तिमान् और कर्दम प्रजापति तीनों ही राजपाट को लात मारकर संन्यासी बन गये । आज हम उन्हीं की सन्तान राज्य की कुर्सियों तथा छोटी-छोटी नौकरियों के लिए मारे-मारे फिरते हैं ।

प्रजापतेः कर्दमस्य त्वनंगो नाम वै सुतः ।
प्रजारक्षयिता साधुर्दण्डनीतिविशारदः ॥९१॥
अनंगपुत्रोऽतिबलो नीतिमानभिगम्य वै ।
प्रतिपेदे महाराज्यमथेन्द्रियवशोऽभवत् ॥९२॥

प्रजापति कर्दम के पुत्र का नाम अनंग था, जो कालक्रम से प्रजा का संरक्षण करने में समर्थ, साधु, तथा दण्डनीति विद्या में बड़ा निपुण हुवा ॥६१॥
तीन पीढ़ी तो तपस्वी हो गईं । चौथी पीढ़ी में अनंग राजा हुवा । अनंग के पुत्र का नाम अतिबल था । बह भी नीतिशास्‍त्र का विद्वान् था । उसने विशाल राज्य प्राप्‍त किया । राज्य पाकर वह इन्द्रियों का दास हो गया ॥६२॥

अतिबल का विवाह मृत्यु की कन्या सुनीथा से हुवा था । नीतिमान् होने पर भी वह विषयी हो गया । इसके पुत्र का नाम वेन था जो सुनीथा से उत्पन्न हुवा था, जैसे कहा है - सुनीथा ........ वेनमजीजनत् ॥९३॥
यह सुनीथा तीनों लोकों में प्रख्यात थी ।
तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम् ॥
वेन रागद्वेष के वशीभूत हो प्रजाओं पर अत्याचार करने

पृष्ठ १६४

लगा । ऋषियों ने इस वेन को मरवा डाला । विनयहीन होने से वेन का समूल नाश हुवा । इस तथ्य को मनुस्मृति अध्याय ७ में प्रकट किया गया है -

वेनो विनष्टोऽविनयान्नहुषश्चैव पार्थिव ।
सुदासो यवनश्‍चैव सुमुखो निमिरेव च ॥४१॥
पृथुस्तु विनयाद्राज्यं प्राप्‍तवान् मनुरेव च ।
कुबेरश्‍च धनैश्वर्यं ब्राह्मण्यं चैव गाधिजः ॥४२॥
वेननहुषसुदासयवनसुमुख और निमि भी अविनय से नष्ट हो गये । पृथु और मनु विनय से राज्य पा गये और कुबेर ने विनय से धनादिपत्य पाया तथा गाधि के पुत्र विश्वामित्र विनय से ही ब्राह्मण हो गये ।
इसलिये राजनीति के महापंडित मुनिवर चाणक्य ने इस सत्य को निम्न प्रकार से परिपुष्ट किया है । वे कौटिलीय अर्थशास्‍त्रान्तर्गत सूत्रों में लिखते हैं - राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः, इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः ॥

राज्य का मूल इन्द्रियजय है । ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति (अथर्व० ११-५-१७) । वेद ने इसी सत्य को - राजा ब्रह्मचर्य और तप (इन्द्रियजय) से राष्ट्र की रक्षा करता है - प्रकट किया है । और इन्द्रियजय की प्राप्‍ति वा ब्रह्मचर्य की साधना का मुख्य साधन विनय है जिसके त्याग से वेन आदि राजा विनष्ट हो गये और इसको धारण करने से पृथु आदि राजा उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ हो गये ।

पृष्ठ १६५

राजा पृथु का अभिषेक

वेन का पुत्र पृथु हुवा, जिसका अभिषेक समस्त ऋषि, महर्षि और देवताओं ने मिलकर किया और राजा को कर्त्तव्यपालन का उपदेश दिया -

प्रियाप्रिये परितज्य समः सर्वेषु जन्तुषु ।
कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः ॥
(शान्तिपर्व ५९-२०५)
प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मान को दूर हटाकर समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रक्खो ।

यश्‍च धर्मात् प्रविचलेल्लोके कश्‍चन मानवः ।
निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्‍वद्‍धर्ममवेक्षता ॥१०५॥

लोक में जो कोई मनुष्य धर्म से विचलित हो, उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त कर दण्ड दो ।

प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा ।
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चास्कृत् ॥१०६॥
साथ ही यह प्रतिज्ञा करो को मैं मन, वचन और कर्म से भूतलवर्ती वेद का निरन्तर पालन करूंगा ।

ऋषियों के ऐसा कहने के उपरान्त महाराज पृथु ने प्रतिज्ञा की -

यश्‍चात्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः ।
तमशंकः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन ॥१०७॥

पृष्ठ १६६

वेद में दण्डनीति से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्म बताया गया है, उसका मैं निःशंक होकर पालन करूंगा । स्वच्छन्द होकर कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं करूंगा ।

पुरोधाश्‍चाभवत्तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः ।
मन्त्रिणो बालखिल्याश्‍च सारस्वत्यो गणस्तथा ॥
महर्षिर्भगवान् गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत् ॥११०-१११॥

फिर शुक्राचार्य उनके पुरोहित हुए, जो वैदिक ज्ञान के भण्डार थे । बालखिल्यगण तथा सरस्वती तटवर्ती महर्षियों के समुदाय ने उनके मंत्री के कार्य को सम्भाला । महर्षि भगवान् गर्ग उनकी राजसभा के ज्योतिषी थे ।

आत्मनाष्टम् इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु ।
उत्पन्नौ वन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ ॥११२॥
मनुष्यों में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि स्वयं राजा पृथु, भगवान् विष्णु से आठवीं पीढ़ी में थे । वह वंशावली इस प्रकार है -

१. विष्णु
२. विरजा
३. कीर्तिमान्
४. कर्दम
५. अनंग
६. अतिबल
७. वे
८. पृथु

उनके जन्म से पहले ही सूत और मागध नामक दो स्तुति-पाठक उत्पन्न हुए थे । वेन के पुत्र प्रतापी राजा पृथु ने उन दोनों

पृष्ठ १६७

को प्रसन्न होकर पुरस्कार दिया । सूत को अनूप देश (सागरतटवर्ती प्रान्त) और मागध को मगध देश प्रदान किया ।
पृथु के समय तक यह पृथ्वी बहुत उंची नीची थी, उन्होंने इसको समतल बनाकर कृषि के योग्य बनाया । इनके राजतिलक पर देवराज इन्द्र भी पधारे थे । उन्होंने इनको अक्षयधन समर्पित किया था और कुबेर ने भी इनको इतना धन दिया जिससे इनके समस्त कार्य भलीभांति सिद्ध हों । इनकी विशाल सेना में घोड़े, रथ, हाथी आदि पर्याप्‍त संख्या में थे । सभी प्रजा स्वस्थ और सुखी थी । किसी वस्तु का दुर्भिक्ष न पड़ता था । सब प्रकार की आधि व्याधियों के कष्टों से मुक्त थे । राजा की ओर से सुरक्षा का इतना अच्छा प्रबन्ध था कि किसी प्रकार का सर्पादि हिंसक जीवों तथा चोरों का भय प्रजा को न था ।

राजा का यथार्थ स्वरूप

तेन धर्मोत्तरश्‍चायं कृतो लोको महात्मना ।
रंजिताश्‍च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्दयते ॥
(महाभारत अनुशासन पर्व ५९-१२५)
उस महात्मा ने सम्पूर्ण जगत् में धर्म की प्रधानता स्थापित कर दी थी । उन्होंने समस्त प्रजाओं को प्रसन्न (रंजित) किया था, इसलिए वे राजा कहलाये, उनका राजा नाम सार्थक था ।

सच्चे क्षत्रिय

ब्राह्मणानां क्षतत्राणात् ततः क्षत्रिय उच्यते ।
प्रथिता धर्मतश्‍चेयं पृथिवी बहुभिः स्मृता ॥१२६॥

पृष्ठ १६८

ब्राह्मणादि को क्षति से बचाने के कारण वे क्षत्रिय कहे जाने लगे । उन्होंने धर्म के द्वारा इस भूमि को प्रथित (विस्तृत) किया और इसकी ख्याति बढ़ाई, इसलिए बहुसंख्य्क मनुष्यों द्वारा पृथ्वी कहलाई ।

राजा का जन्म

सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम् ।
पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारदः ॥१३३॥
तात ! पुण्य का क्षय होने पर मनुष्य स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आता और दण्डनीति विशारद राजा के रूप में जन्म लेता है ।

देवताओं के द्वारा राजा के पद पर पृथु की स्थापना की गई, तथा दैवी गुणों से वह सम्पन्न था, उसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता था । यह सारा जगत् उस एक व्यक्ति राजा के वश में रहता था, इसका कारण राजा द्वारा निर्धारित दण्डनीति ही है, जिसका उपदेश विशालाक्ष शिवजी महाराज ने आदि सृष्टि में किया था ।

ततस्तां भगवान् नीतिं पूर्वं जग्राह शंकरः ।
बहुरूपो विशालाक्षः शिवः स्थाणुरुमापतिः ॥८०॥
तदनन्तर सबसे पूर्व भगवान् शंकर ने इस नीतिशास्‍त्र के अनुसार दण्ड के द्वारा जगत् का सन्मार्ग पर स्थापन किया जाता है, अथवा राजा इसके अनुसार प्रजावर्ग में दण्ड की स्थापना करता है । इसलिए यह विद्या दण्डनीति के नाम से विख्यात है । इसका ही तीनों लोकों में विस्तार हुआ तथा होगा ।

पृष्ठ १६९

दण्डेन संहिता ह्येषा लोकरक्षणकारिका ।
निग्रहानुग्रहरता लोकाननुचरिष्यति ॥७७॥
दण्डविधान के साथ रहने वाली यह नीति सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करने वाली है, यह दुष्टों को निग्रह कर अर्थात् दण्ड देकर वश में करती है और श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति अनुग्रह करने (आदर पुरस्कार देने) में तत्पर रहकर जगत् में प्रचलित है । इस वेदोक्त दण्डनीति का ग्रहण तथा उपदेश आदि में शिवजी महाराज ने किया । उसके अनुसार आचरण करने से पृथु महाराज प्रथम राजा तथा क्षात्र धर्म का संस्थापक वा क्षत्रियों का पूर्वज कहलाया । महाभारत के अनुसार महाराजा पृथु ही सर्वप्रथम धनुष का आविष्कारक था ।

प्रसिद्ध आर्य राजा पृथु के वंश में ही विवस्वान् मनु हुये हैं, उनकी वंशावली इस प्रकार है –
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दक्ष के बहुत पुत्र उत्पन्न हुये, किन्तु महर्षि नारद की मोक्षधर्म शिक्षा से वे सब विरक्त होकर चले गये । पुनः दक्ष ने कन्याओं को पुत्र मानकर अपना वंश चलाया और इस प्रकार

पृष्ठ १७०

दक्षादिमाः प्रजाः (५-७५) आदिपर्व महाभारत में जो लिखा है, वह प्रसिद्ध ही है कि दक्ष से सारी प्रजा उत्पन्न हुई । दक्ष की अदिति कन्या का विवाह मरीच कश्यप से हुवा । उसी से विवस्वान् मन्त्रद्रष्टा का जन्म हुवा । इसी से सभी इन्द्र आदि बारह आदित्य देवों की उत्पत्ति हुई, यह हम पहले लिख चुके । इसी विवस्वान् सूर्य से मनु और यम दो पुत्र उत्पन्न हुये ।

मार्तण्डेयस्य मनुर्धीमानजायत सुतः प्रभुः ।
यमश्‍चापि सुतो जज्ञे ख्यातस्तस्यानुजः प्रभुः ॥
(आदिपर्व ७५।१२)
विवस्मान के पुत्र मनु बड़े बुद्धिमान् और प्रभावशाली थे । यम मनु के छोटे भ्राता थे किन्तु प्रजा को नियम में चलाने में बड़े कुशल थे ।

धर्मात्मा स मनुर्धीमान् यत्र वंशे प्रतिष्ठितः ।
मनोर्वंशो मानवानां ततोऽयं प्रथितोऽभवत् ॥७५।१३॥

बुद्धिमान् मनु बड़े धर्मात्मा थे, जिनके कारण सूर्यवंश की बड़ी प्रतिष्ठा हुई । मानवों से सम्बन्ध रखने वाला यह मनु वंश उन्हीं से विख्यात हुवा ॥१३॥

ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवाः ।
ततोऽभवन्महाराज ब्रह्म क्षत्रेण संगतम् ॥१४॥
उन्हीं मनु से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब मानव उत्पन्न हुये हैं । महाराज ! इसी से ब्राह्मणकुल और क्षत्रियकुल परस्पर सम्बन्धित हैं ।

ब्राह्मणा मानवास्तेषां सांगं वेदमधारयन् ।
वेनं धृष्णुं नरिष्यन्तं नाभागेक्ष्वाकुमेव च ॥१५॥
कारूषमथ शर्यातिं तथाचै वाष्टमीमिलाम् ।
पृषध्रं नवमं प्राहुः क्षत्रधर्मपरायणम् ॥१६॥

पृष्ठ १७१

नाभागारिष्टदशमान् मनोः पुत्रान् प्रचक्षते ।
पञ्चाशत्तु मनोः पुत्रास्तथैवान्ये‍ऽभवन् क्षितौ ॥१७॥
मनु के पुत्र वा शिष्य जो ब्राह्मण बने उन्होंने छहों अंगों सहित वेदों को धारण किया । वेन, धृष्णु, नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु, कारूप, शर्याति, आठवीं इला कन्या, नवमें क्षत्रियधर्मपरायण पृषध्र, तथा दसवें नाभागारिष्ट - इन दशों को मनु की सन्तान कहा जाता है । मनु के इस पृथ्वी पर पचास पुत्र वा शिष्य और हुये, वे परस्पर लड़कर नष्‍ट हो गये, यह गाथा पौराणिक ही प्रतीत होती है ।
Thumb
वायुपुराण ८८-२१५ के अनुसार मनु का नाम श्राद्धदेव था । इनके नौ पुत्रों के अतिरिक्त दसवीं कन्या इला भी वंशकरी थी । इसका वंशक्रम निम्न प्रकार से चला –

इला के ऐलवंश का विस्तार

अत्रि
प्रजापति (चन्द्र - सोम)
बुध
(इसका विवाह मनु की कन्या इला से हुआ)
पुरुरवा ऐल
(इससे ऐल वंश की प्रसिद्धि हुई)

पृष्ठ १७२

ताण्ड्य ब्राह्मण (३४-१२-६) में सौमायनो बुधः सोम प्रजापति का पुत्र बुध था, ऐसा लिखा है ।

सोमः प्रजापतिः पूर्वं कुरूणां वंशवर्द्धनः ।
सोमाद् बभूव षष्ठोऽयं ययातिर्नहुषात्मजः ॥
(महाभारत उद्योगपर्व १४९-३)
सबसे पहले प्रजापति सोम कौरव वंश की वृद्धि के आदि कारण हैं । सोम की छठी पीढ़ी में नहुषपुत्र ययाति का जन्म हुआ ।
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ययाति के पांच पुत्र हुए, जिनके विषय में महाभारत में लिखा है -

तस्य पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च राजर्षिसत्तमाः ।
तेषां यदुर्महातेजा ज्येष्ठः समभवत्प्रभुः ॥४॥
पूरुर्यवीयांश्‍च ततो योऽस्माकं वंशवर्धनः ।
शर्मिष्ठया सम्प्रसूतो दुहित्रा वृषपर्वणः ॥५॥
(उद्योगपर्व अ० १४९)
ययाति के पांच पुत्र हुए, जो सबके सब श्रेष्ठ राजर्षि थे । उनमें महातेजस्वी तथा शक्तिशाली पुत्र यदु थे और सबसे छोटे

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पुत्र का नाम पुरु था, जिन्होंने हमारे इस वंश की वृद्धि की है । वे वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुये थे ।

यदु देवयानी के पुत्र थे और महातेजस्वी शुक्राचार्य के दौहित्र थे । वे यदुवंश के प्रवर्तक थे, वे मन्दबुद्धि और बड़े अभिमानी थे, उन्होंने समस्त क्षत्रियों का अपमान किया था । वे अपने पिता वा भाइयों का भी अपमान करते थे, इसलिए इनके पिता ययाति ने कुपित होकर इन्हें राज्य से भी वञ्चित कर दिया था । यदु के जिन भाइयों ने उनका साथ दिया था, ययाति ने उन अन्य पुत्रों को भी राज्याधिकार से वञ्चित कर दिया ।

यवीयांसं ततः पूरुं पुत्रं स्ववशर्त्तिनम् ।
राज्ये निवेशयामास विधेयं नृपसत्तमः ॥
एवं ज्येष्ठोऽप्यथोत्सिक्तो न राज्यमभिज्ञायते ।
यवीयांसोऽपि जायन्ते राज्यं वृद्धोपसेवया ॥१२-१३॥
तदनन्तर अपने अधीन रहने वाले आज्ञापालक छोटे पुत्र पुरु को नृप श्रेष्ठ ययाति ने राजगद्दी पर बिठाया । इससे यह सिद्ध है कि ज्येष्ठ पुत्र भी यदि अहंकारी हो तो उसे राज्य की प्राप्ति नहीं होती और छोटे पुत्र भी वृद्ध पुरुषों की सेवा करने से राज्य पाने के अधिकारी हो जाते हैं ।

इस प्रकार पुरु से कौरव पाण्डवों का वंश चला है । यदु से योगिराज श्रीकृष्ण जी आदि का वंश चला है । ययाति के एक पुत्र अनु से अनेक प्रसिद्ध गणराज्यों का वंश चला है ।

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इस प्रकार मनु की कन्या इला, जिसका विवाह प्रजापति सोम के साथ हुआ था, उससे सोलहवीं पीढ़ी में राजा नृग का पुत्र और उशीनर का पौत्र यौधेय गणराज्य का संस्थापक यौधेय नाम का राजा हुवा । यह वंश प्रजापति सोम (चन्द्र) के कारण चन्द्रवंश कहलाया । सूर्यवंश मनु के पुत्रों से चला और चन्द्रवंश उसकी कन्या इला से चालू हुवा । इस प्रकार क्षत्रियों के दोनों प्रसिद्ध सूर्य और चन्द्रवंश मनु से ही सम्बन्ध रखते हैं । इस भांति

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यौधेयों के पूर्वजों में मनु पुरूरवाययातिउशीनर और नृगादि बडे़-बड़े राजा हुए हैं । इसी वंश में यौधेयों के चचा शिवि औशीनर के सुवीरकेकय और मद्रक - इन तीन पुत्रों से तीन गणराज्यों की स्थापना हुई । इसी प्रकार इनके चचेरे भाई सुव्रत के पुत्र अम्बष्ठ ने एक गणराज्य की स्थापना की । यदुवंश भी यौधेयों के वंश की एक शाखा है । इस प्रकार पुरुषोत्तम राम, योगिराज श्रीकृष्ण और कौरव तथा पाण्डव भी यौधेयों की शाखा प्रशाखाओं में आये हुए हैं ।

वैसे तो क्षत्रियों के सभी प्रसिद्ध वंश ऋषियों की ही सन्तान हैं, किन्तु वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न होने से यौधेयों का बहुत ऊंचा स्थान है । सप्‍तद्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् महामना यौधेयों का प्रपितामह (परदादा) था । इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यौधेय वंश सहस्रों वर्षों तक भारतीय इतिहास में सूर्यवत् प्रकाशमान रहा है ।

शतियां बीत गईं, अनेक राज्य इस आर्यभूमि की रंगस्थली पर अपना अभिनय करके चले गये, किन्तु यौधेयों की संतान हरयाणावासियों में आज भी कुछ विशेषतायें शेष हैं । सरलता, सात्त्विकता इनमें कूट-कूट कर भरी है । अन्य प्रान्तों की अपेक्षा इनका आचार, विचार, आहार, व्यवहार सात्त्विक है । अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता आज भी इनके भीतर विद्यमान है । इन्हें प्रेम से वश में लाना जितना सरल है, आंखें दिखा कर दबाना उतना ही कठिन है । अपने पूर्वज आयुधजीवी यौधेयों के समान युद्ध करना (लड़ना) इनका मुख्य कार्य है । पाकिस्तान और चीन के युद्ध में इनकी वीरता की गाथा जगत् प्रसिद्ध है । इन्हीं यौधेयों की सन्तान आर्य पहलवान श्री मा० चन्दगीराम जी भारत के सभी पहलवानों को हराकर एक बार भारत केसरी और दो बात हिन्द केसरी उपाधि प्राप्‍त कर चुके हैं । हरयाणे के सभी पहलवानों को जीतकर आर्य पहलवान श्री रामधन हरयाणा केसरी उपाधि प्राप्‍त कर चुके हैं ।

यौधेयों तथा इनके पूर्वजों के विषय में पाठक अगले अध्यायों में विस्तार से पढ़ेंगे ।

••• इति •••

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विशेष धन्यवाद

कुछ इतिहासप्रेमी मेरे इष्ट मित्रों ने हरयाणा साहित्य संस्थान के तथा इतिहास के सदस्य बनाकर योगदान दिया है । ये सभी महानुभाव विशेष धन्यवाद के पात्र हैं ।

श्री चौ० श्रीचन्द जी बैंक मैनेजर रोहतक ने स्वयं तथा अपने इष्ट मित्रों से दस हजार रुपया दिलाने का वचन दिया है जिस में से ५००० रु. दे चुके हैं, शेष शीघ्र ही पूरा कर देंगे ।

इतिहास के स्थायी सदस्य

१. श्री म० दरयावसिंह जी, रोहणा, रोहतक - १०१)
२. श्री अमीलाल जी वानप्रस्थ, दहकोरा, रोहतक - १०१)
३. श्री करतारसिंह जी, दहकोरा, रोहतक - १०२)
४. श्री म० अर्जुनदेव जी, दहकोरा, रोहतक - १०१)
५. श्री वैद्य बलवन्तसिंह जी, बलियाणा, रोहतक - १००)
६. श्री हव० रणसिंह जी, पाकस्मा, रोहतक - ४००)
७. श्री जयदेव जी, सु० श्री नेकीराम जी, आसन, रोहतक - १०१)
८. श्री बनीसिंह जी, सु० जागरसिंह जी, आसन, रोहतक - १०१)
९. श्री तारीफसिंह जी, श्री रिसालसिंह जी, आसन, रोहतक - १०१)
१०. श्री नं० धीरुसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
११. श्री म० ज्ञानचन्द जी, भापड़ौदा, रोहतक - १२६)
१२. श्री नेतराम जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१३. श्री रामकृष्ण जी, रणधीर जी सु० श्री चन्दगीराम जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१४. श्री हुकमसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१५. श्री केहरीसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१६. श्री कप्‍तान शीषराम जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)

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१७. श्री म० प्यारेलाल जी आर्योपदेशक, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१८. श्री राममेहर जी सु० श्री बदलेराम, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१९. श्री धजाराम जी गुप्‍त, भापड़ौदा, रोहतक - १००)
२०. श्री दीपराम जी, शीषराम जी सु० श्री रणजीतसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १००)
२१. श्री हरद्वारीलाल जी, रतिराम जी, सु० श्री शिवसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १००)
२२. श्री भीष्मप्रताप जी शास्‍त्री, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
२३. श्री हरपतसिंह जी, रुदड़ौल, महेन्द्रगढ़ - १०१)
२४. श्री म० मामराज जी, गौरीपुर, महेन्द्रगढ़ - १०१)
२५. बहिन लक्ष्मी देवी जी, रेलवे रोड, रोहतक - १०१)
२६. श्री वैद्य कर्मवीर जी, नरेला, दिल्ली - १०१)
२७. श्री प्रो० रणसिंह जी रुहिल, जाट कालेज, रोहतक - १०१)
२८. श्री चौ० दीवानसिंह जी, पौली, जींद - १०१)
२९. श्री चौ० टेकराम जी, आसन, रोहतक - १०१)
३०. श्री रामपत जी आर्योपदेशक, दयानन्द मठ, रोहतक - १०१)
३१. जमा० धजासिंह जी, भ्राता वेदपाल जी, सुण्डाना, रोहतक - १०१)
३२. चौ० जुगलाल जी, बिधड़ान, रोहतक - १०१)
३३. हवलदार मामचन्द जी राठी, माजरी गुभाणा, रोहतक - १०१)
३४. प्रो० आलमसिंह जी, बसेड़ा, मुजफ्फर नगर (उ० प्र०) - १०१)
३५. श्री चौ० मित्रसेन जी, रोहतास इंजीनियरिंग वर्क्स, मेन रोड बडविल, क्योंझर उड़ीसा - १०१)
३६. श्री सेठ जुगलकिशोर जी बिरला, सब्जी मण्डी, दिल्ली - १००)
३७. श्री सेठ घनश्यामदास जी, ६२ ओल्ड थणुपेंठ, बंगलौर - १००)
३८. श्री स्वामी धूमकेतु जी, भाटोल, हिसार - १०१)
३९. श्री रामनारायण जी सु० चौ० नत्थूसिंह जी, कलाली, झोझू कलां महेन्द्रगढ़ - १०१)
४०. श्री सेठ बभूतमल जी दूगड़, दसाणी मार्ग, सरदार शहर, चुरू (राज०) - १०१)
४१. श्री स्वामी व्रतानन्द जी, गुरुकुल चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) - १०१)

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४२. श्री डा० सत्यवीर जी, कणेहटी, महेन्द्रगढ़ - ४००)
४३. श्री सुरेन्द्रसिंह जी सु० चौ० प्रियव्रत जी - १०१)
४४. श्री जयपालसिंह सु० चौ० मेहरसिंह, आसन - १०१)
४५. श्री रामस्वरूप सु० चौ० हरकेराम, गोरड़ - १०१)
४६. श्री कर्णसिंह सु० निहालसिंह ग्राम गोरड़ - १०१)
४७. श्री चौ० श्रीचन्द सु० चौ० मौलड़सिंह, रोहट - २०२)
४८. श्री विजयसिंह नान्दल सु० चौ० सूरतसिंह, बोहर - १०१)
४९. श्री चौ० रामकुमार सु० हुकमचन्द ग्राम रतनगढ़ - १०१)
५०. श्री चौ० भीमसिंह ग्रम रिटोली - २०२)
५१. श्री लाला शामलाल जी सोनीपत - १०१)
५२. हिन्दुस्तान फाउण्ड्री - १०१)
५३. श्री चौ० लखीराम सु० हीरालाल - १०१)
५४. श्री चौ० अतरसिंह चेयरमैन - १०१)
५५. श्री चौ० प्रभुदयाल ठेकेदार ग्राम कुमासपुर - १०१)

अन्य दानियों की सूची

१. आर्यसमाज महेन्द्रगढ़ (हरयाणा) - १०१)
२. केन्द्रीय आर्य समिति, मेरठ (उ० प्र०) - १०१)
३. आर्यसमाज गण्डाला, अलवर (राज०) - १५१)
४. आर्यसमाज सिरसा, हिसार (हरयाणा) - १०१)
५. आर्यसमाज बुढ़ानाद्वार, मेरठ नगर (उ० प्र०) - १०१)
६. आर्यसमाज करोलबाग, दिल्ली - १५०)
७. आर्यसमाज बसेड़ा, मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) - १५१)
८. आर्यसमाज तेजलहेड़ा, मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) - १०१)

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हिन्दी वर्णमाला

वर्ण-माला संस्कृत में हर अक्षर, स्वर और व्यंजन के संयोग से बनता है, जैसे कि  “ क ”  याने क् (हलन्त) अधिक अ ।  “ स्वर ”  सूर/लय सूचक है...