Monday, October 23, 2017

हिन्दी वर्णमाला

वर्ण-माला
संस्कृत में हर अक्षर, स्वर और व्यंजन के संयोग से बनता है, जैसे कि  याने क् (हलन्त) अधिक अ । स्वर सूर/लय सूचक है, और व्यंजन शृंगार सूचक ।  
संस्कृत वर्णॅ-माला में 13 स्वर, 33 व्यंजन और 2 स्वराश्रित ऐसे कुल मिलाकर के 49 वर्ण हैं । स्वर को अच् और ब्यंजन को हल् कहते हैं । अच्  14हल्  33स्वराश्रित  2
14 स्वरों में से 5 शुद्ध स्वर हैं; अ, इ, उ, ऋ, लृऔर 9 अन्य स्वर: आ, ई, ऊ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ  
मुख के अंदर स्थान-स्थान पर हवा को दबाने से भिन्न-भिन्न वर्णों का उच्चारण होता है । मुख के अंदर पाँच विभाग हैं, जिनको स्थान कहते हैं । इन पाँच विभागों में से प्रत्येक विभाग में एक-एक स्वर उत्पन्न होता है, ये ही पाँच शुद्ध स्वर कहलाते हैं । स्वर उसको कहते हैं, जो एक ही आवाज में बहुत देर तक बोला जा सके ।
33 व्यंजनों में 25 वर्ण, वर्गीय वर्ण हैं याने कि वे पाँचपाँच वर्णों के वर्ग में विभाजित किये हुए हैं । बाकी के 8 व्यंजन विशिष्ट व्यंजन हैं, क्यों कि वे वर्ग़ीय व्यंजन की तरह किसी एक वर्ग में नहीं बैठ सकतें । वर्गीय व्यंजनों का विभाजन उनके उच्चारण की समानता के अनुसार किया गया है ।
*  कंठ से आनेवाले वर्ण कंठव्य कहलाते हैं उ.दा. क, ख, ग, घ
*  तालु की मदत से होनेवाले उच्चार 
तालव्य कहलाते हैं उ.दा. च, छ, ज, झ
*  ‘मूर्धा से (कंठ के थोडे उपर का स्थान) होनेवाले उच्चार मूर्धन्य हैं उ.दा. ट, ठ, ड, ढ, ण*  दांत की मदत से बोले जानेवाले वर्ण दंतव्य हैं उ.दा. त, थ, द, ध, न; औ*  होठों से बोले जानेवाले वर्ण ओष्ठव्य कहे जाते हैं उ.दा. प, फ, ब, भ, म 
कंठव्य /  वर्ग    क्   ख्   ग्   घ्   ङ्तालव्य /  वर्ग   च्  छ्   ज्  झ्  ञ्
मूर्धन्य / 
 वर्ग    ट्  ठ्  ड्  ढ्  ण्

दंतव्य / 
 वर्ग    त्  थ्  द्  ध्  न् 
ओष्ठव्य /  वर्ग    प्  फ्  ब्  भ्  म्
विशिष्ट व्यंजन -      
य्  व्  र्    ल्  श्  ष्   स्   ह्  

स्वर और व्यंजन के अलावा  (अनुस्वार), और  (विसर्ग) ये दो स्वराश्रित कहे जाते हैं, और इनके उच्चार कुछ खास नियमों से चलते हैं जो आगे दिये गये हैं ।
इन 49 वर्णों को छोडकर, और भी कुछ वर्ण सामान्य तौर पे प्रयुक्त होते हैं जैसे कि त्र, क्ष, ज्ञ, श्र इत्यादि । पर ये सब किसी न किसी व्यंजनों के संयोग से बने गये होने से उनका अलग अस्तित्व नहि है; और इन्हें संयुक्त वर्ण भी कहा जा सकता है ।
, और  ये विशिष्ट वर्ण हैं क्यों कि स्वर-जन्य (स्वरों से बने हुए) हैं, ये अन्तःस्थ व्यञ्जन भी कहे जाते हैं । देखिए:इ / ई + अ = य (तालव्य)उ / ऊ + अ = व (दंतव्य तथा ओष्ठव्य)ऋ / ऋ + अ = र (मूर्धन्य)लृ / लृ + अ = ल (दंतव्य)
इनके अलावा , और  के उच्चारों में बहुधा अशुद्धि पायी जाती है । इनके उच्चार स्थान अगर ध्यान में रहे, तो उनका उच्चारण काफी हद तक सुधारा जा सकता है ।श = तालव्यष = मूर्धन्यस = दंतव्यह = कण्ठ्यये चारों ऊष्म व्यंजन होने से विशिष्ट माने गये हैं ।
मात्रा
ह्रस्व/दीर्घ/प्लुत उच्चार
संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय है अर्थात् छंदबद्ध और गेय हैं । इस लिए यह समज लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर ज़ादा भार देना और किन पर कम । उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को “मात्रा” द्वारा दर्शाया जाता है ।
*   जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रा 1 होती है । अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं ।
*   जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रा 2 होती है । आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं ।
*   प्लुत वर्णों का उच्चार अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रा 3 होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की 3 मात्रा होगी । वैसे हि “वाक्पटु” इस शब्द में ‘वाक्’ की 3 मात्रा होती है । वेदों में जहाँ 3 (तीन) संख्या दी हुई रहती है, उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है ।
*   संयुक्त वर्णों का उच्चार उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए । पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी 2 मात्रा हो जाती है; और पूर्व अगर दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी 3 मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है ।
*   अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी 2 मात्रा होती है । परंतु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई फर्क नहीं पडता (वह 2 ही रहती है) ।
*   हलन्त वर्णों (स्वरहीन व्यंजन) की पृथक् कोई मात्रा नहीं होती ।
*   ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘।‘ है, और दीर्घ मात्रा का ‘ऽ‘ ।
*   पद्य रचनाओं में, छंदों के पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है ।

समजने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है । 

नीचे दिये गये उदाहरण देखिए :

राम = रा (2) + म (1) = 3 याने “राम” शब्द की मात्रा 3 हुई ।
वनम् = व (1) + न (1) + म् (0) = 2
मीमांसा = मी (2) + मां (2) + सा (2) = 6
पूर्ववत् = पूर् (2) + व (1) + व (1) + त् (0) = 4
ग्रीष्मः = ग्रीष् (3) + म: (2) = 5
शिशिरः = शि (1) + शि (1) + रः (2) = 4
कार्तिकः = कार् (2) + ति (1) + कः (2) = 5
कृष्णः = कृष् (2) + णः (2) = 4
हृदयं = हृ (1) + द (1) + यं (2) = 4
माला = मा (2) + ला (2) = 4
त्रयोदशः = त्र (1) + यो (2) + द (1) + शः (2) = 6

संस्कृत छंदों को समजने के लिए मात्राओं का ज्ञान होना अति आवश्यक है । मात्रा के नियम उच्चारशास्त्र के सर्व सामान्य नियम हैं, और इनके बिना संस्कृत भाषा में शुद्धि अशक्य है । छंदों की सामान्य माहिती इस वेब साइट में अन्य स्थान पर दी गयी है । मात्राओं का अधिकतम उपयोग उस विभाग में आप देख पायेंगे ।    


अन्य भारतीय भाषाओं का उद्गम संस्कृत होने से, उन में भी मात्रा व छंदों के ये ही नियम पाये जाते हैं ।
अनुस्वार
अनुनासिक और अनुस्वार उच्चार
हर वर्ग के अंतिम वर्ण का उच्चार नासिका (नाक) से होने के कारण, ये वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं ।

अनुस्वार का उच्चार उसके बाद आनेवाले वर्ण पर आधारित होता है । वर्गीय व्यंजनों के बारे में नियम एकदम स्पष्ट है । अनुस्वार के बाद आनेवाला वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चार उस वर्ग का अनुनासिक होता है । इन्हें नीचे दिये हुए उदाहरणों से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है;


अनुस्वार के बाद यदि ‘क’ वर्ग का व्यंजन आता हो, तो अनुस्वार का उच्चार ‘ङ्’ होता है ।

अनुस्वार + क्, ख्, ग्, घ् = ङ्
गंगा = ग + ङ् + गा
अनुस्वार के बाद यदि ‘च’ वर्ग का व्यंजन आता हो, तो अनुस्वार का उच्चार ‘ञ्’ होता है ।
अनुस्वार + च्, छ्, ज्, झ् = ञ्
पंच = प + ञ् + च

अनुस्वार के बाद यदि ‘ट’ वर्ग का व्यंजन आता हो, तो अनुस्वार का उच्चार ‘ण्’ होता है ।

अनुस्वार + ट्, ठ्, ड्, ढ् = ण्
पंडित = प + ण् + डित

अनुस्वार के बाद यदि ‘त’ वर्ग का व्यंजन आता हो, तो अनुस्वार का उच्चार ‘न्’ होता है ।

अनुस्वार + त्, थ्, द्, ध् = न्
बंधु = ब + न् + धु

अनुस्वार के बाद यदि ‘प’ वर्ग का व्यंजन आता हो, तो अनुस्वार का उच्चार ‘म्’ होता है ।

अनुस्वार + प्, फ्, ब्, भ् = म्
कुंभ = कु + म् + भ

अनुस्वार के बाद अगर अवर्गीय या विशिष्ट व्यंजन आता हो, तो उनके उच्चार किस तरह से होते हैं, यह नीचे दिये उदाहरणों से स्पष्ट होगा; इन्हें गौर से देखिए: 


संयम = स+य् (अनुनासिक) +यम

किंवदन्ती = कि+व् (अनुनासिक) +वदन्ती
संरक्षण = स+व् (अनुनासिक) +रक्षण
मतंलिका = मत+ल् (अनुनासिक) +लिका
अँश = अ+व् (अनुनासिक) +श
दंष्ट्रम् = द+व् (अनुनासिक) +ष्ट्रम्
हंस = ह+व् (अनुनासिक) +स
सिंह = सि+व् (अनुनासिक) +ह

अनुस्वार के बाद संयुक्त वर्ण आता हो, तो संयुक्त वर्ण जिन वर्णों से बना हो उस वर्ण के वर्ग या नियमानुसार उसका उच्चार होगा; जैसे कि


संज्ञा = स+ञ्+ज्ञा

“ज्ञ” वर्ण “ज्” और “न्” वर्णों से बना हुआ है; इन में से प्रथम उच्चार “ज्” का होने से, अनुस्वार का उच्चार उस वर्ग के अनुनासिक का होता है ।

संक्षेप = स+ङ्+क्षेप (क्ष=ख्+स्...से बना हुआ है; अर्थात् अनुस्वार का उच्चार “क” वर्गे के मुताबिक)

तंत्र = त+न्+त्र (त्र=त्+र्...से बना हुआ है; अर्थात् अनुस्वार का उच्चार “त” वर्ग के मुताबिक)
संश्रुत = स+वँ+श्रुत (श्र=श्+र्...से बना हुआ है; अर्थात् अवर्गीय “श” के मुताबिक)

अनुस्वार के बाद यदि स्वर आता हो, तो उसका उच्चार “म्” होता है, और अनुस्वार की जगह “म्” ही लिखा जाता है । 


पादांत (छंद का चौथा भाग, जिसे “चरण” भी कहा जाता है) में अनुस्वार आता हो, तो उसका “म्” उच्चार हो सकता है ।  


यति (छंद का वह भाग जहाँ रुका जाता है, जिसे “विराम” भी कहते हैं) पर अगर अनुस्वार आता हो, तब भी उसका “म्” उच्चार हो सकता है ।
विसर्गमुद्रणई-मेल
विसर्ग उच्चार 

जैसे आगे बताया गया है, विसर्ग यह अपने आप में कोई अलग वर्ण नहीं है; वह केवल स्वराश्रित है । विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने से उसे पूर्णतया शुद्ध लिखा नहीं जा सकता, क्यों कि विसर्ग अपने आप में हि किसी उच्चार का प्रतिक मात्र है ! किसी भाषातज्ज्ञ के द्वारा उसे प्रत्यक्ष सीख लेना ही जादा उपयुक्त होगा । 

सामान्यतः
 
विसर्ग के पहले हृस्व स्वर/व्यंजन हो तो उसका उच्चार त्वरित ‘ह’ जैसा करना चाहिए; और यदि विसर्ग के पहले दीर्घ स्वर/व्यंजन हो तो विसर्ग का उच्चार त्वरित ‘हा’ जैसा करना चाहिए ।

विसर्ग के पूर्व ‘अ’कार हो तो विसर्ग का उच्चार ‘ह’ जैसा; ‘आ’ हो तो ‘हा’ जैसा; ‘ओ’ हो तो ‘हो’ जैसा, ‘इ’ हो तो ‘हि’ जैसा... इत्यादि होता है । पर विसर्ग के पूर्व अगर ‘ऐ’कार हो तो विसर्ग का उच्चार ‘हि’ जैसा होता है ।


केशवः = केशव (ह)

बालाः = बाला (हा)
भोः = भो (हो)
मतिः = मति (हि)
चक्षुः = चक्षु (हु)
देवैः = देवै (हि)
भूमेः = भूमे (हे)

पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उसका उच्चार आघात देकर ‘ह’ जैसा करना चाहिए ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

विसर्ग के बाद अघोष (कठोर) व्यंजन आता हो, तो विसर्ग का उच्चार आघात देकर ‘ह’ जैसा करना चाहिए ।

प्रणतः क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ।

विसर्ग के बाद यदि ‘श’, ‘ष’, या ‘स’ आए, तो विसर्ग का उच्चार अनुक्रम से ‘श’, ‘ष’, या ‘स’ करना चाहिए ।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
यज्ञशिष्टाशिन(स्)सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।

धनञ्जयः सर्वः = धनञ्जयस्सर्वः

श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः
गंधर्वाः षट् = गंधर्वाष्षट्

‘सः’ के सामने (बाद) ‘अ’ आने पर दोनों का ‘सोऽ’ बन जाता है; और ‘सः’ का विसर्ग, ‘अ’ के सिवा अन्य वर्ण सम्मुख आने पर, लुप्त हो जाता है ।

सः अस्ति = सोऽस्ति
सः अवदत् = सोऽवदत्

विसर्ग के पहले ‘अ’कार हो और उसके पश्चात् मृदु व्यञ्जन आता हो, तो वे अकार और विसर्ग मिलकर ‘ओ’ बन जाता है ।

पुत्रः गतः = पुत्रो गतः
रामः ददाति = रामो ददाति

विसर्ग के पहले ‘आ’कार हो और उसके पश्चात् स्वर अथवा मृदु व्यञ्जन आता हो, तो विसर्ग का लोप हो जाता है ।

असुराः नष्टाः = असुरा नष्टाः
मनुष्याः अवदन् = मनुष्या अवदन्

विसर्ग के पहले ‘अ’ या ‘आ’कार को छोडकर अन्य स्वर आता हो, और उसके बाद स्वर अथवा मृदु व्यञ्जन आता हो, तो विसर्ग का ‘र्’ बन जाता है ।

भानुः उदेति = भानुरुदेति
दैवैः दत्तम् = दैवैर्दत्तम्

विसर्ग के पहले ‘अ’ या ‘आ’कार को छोडकर अन्य स्वर आता हो, और उसके बाद ‘र’कार आता हो, तो, विसर्ग के पहले आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है ।

ऋषिभिः रचितम् = ऋषिभी रचितम्
भानुः राधते = भानू राधते
शस्त्रैः रक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्
संधि
सामान्य संधि नियम
जैसे कि पहले बताया गया है, संस्कृत में व्यंजन और स्वर के योग से ही अक्षर बनते हैं । संधि के विशेष नियम हम आगे देखेंगे, पर उसका सामान्य नियम यह है कि संस्कृत में व्यंजन और स्वर आमने सामने आते ही वे जुड जाते हैं;
पुष्पम् आनयति = पुष्पमानयति
शीघ्रम् आगच्छति = शीघ्रमागच्छति
त्वम् अपि = त्वमपि

संस्कृत में संधि के इतने व्यापक नियम हैं कि सारा का सारा वाक्य संधि करके एक शब्द स्वरुप में लिखा जा सकता है; देखिए -


ततस्तमुपकारकमाचार्यमालोक्येश्वरभावनायाह ।

अर्थात् – ततः तम् उपकारकम् आचार्यम् आलोक्य ईश्वर-भावनया आह ।

इसके सारे नियम बताना यहाँ अनपेक्षित होगा, परंतु, सामान्यतः संधि तीन तरह की होती है; स्वर संधि, विसर्ग संधि, और व्यंजन संधि । विसर्ग संधि के सामान्य नियम हम “विसर्ग” प्रकरण में देख चूके हैं । स्वर और व्यंजन संधि की सामान्य जानकारी व उदाहरण नीचे दीये जा रहे हैं ।  


सजातीय स्वर आमने सामने आने पर, वह दीर्घ स्वर बन जाता है; जैसे,


अ / आ + अ / आ = आ 


अत्र + अस्ति = अत्रास्ति

भव्या + आकृतिः = भव्याकृतिः
कदा + अपि = कदापि

इ / ई + इ / ई = ई 


देवी + ईक्षते = देवीक्षते

पिबामि + इति = पिबामीति
गौरी + इदम् = गौरीदम्

उ / ऊ + उ / ऊ = ऊ 


साधु + उक्तम = साधूक्तम्

बाहु + ऊर्ध्व = बाहूर्ध्व

ऋ / ऋ + ऋ / ऋ = ऋ 


पितृ + ऋणम् = पितृणम्

मातृ + ऋणी = मातृणी

जब विजातीय स्वर एक मेक के सामने आते हैं, तब निम्न प्रकार संधि होती है ।

अ / आ + इ / ई = ए
अ / आ + उ / ऊ = ओ
अ / आ + ए / ऐ = ऐ
अ / आ + औ / अ = औ
अ / आ + ऋ / ऋ = अर्

उदाहरणउद्यमेन + इच्छति = उद्यमेनेच्छति

तव + उत्कर्षः = तवोत्कर्षः
मम + एव = ममैव
कर्णस्य + औदार्यम् = कर्णस्यौदार्यम्
राजा + ऋषिः = राजर्षिः

परंतु, ये हि स्वर यदि आगे-पीछे हो जाय, तो इनकी संधि अलग प्रकार से होती है;

इ / ई + अ / आ = य / या
उ / ऊ + अ / आ = व / वा
ऋ / ऋ + अ / आ = र / रा

उदाहरणअवनी + असम = अवन्यसम

आदि + आपदा = आद्यापदा
भवतु + असुरः = भवत्वसुरः
उपविशतु + आर्यः = उपविशत्वार्यः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा 

उपर दिये हुए “य” और “व” की जगह, “अय्”, “आय्”, “अव्” या “आव्” एसी संधि भी होती है, जैसे;

ए + अन्य स्वर = अय्
ऐ + अन्य स्वर = आय्
ओ + अन्य स्वर = अव्
औ + अन्य स्वर = आव्

उदाहरणमन्यते + आत्मानम् = मन्यतयात्मानम्

तस्मै + अदर्शयत् = तस्मायदर्शयत्
प्रभो + एहि = प्रभवेहि
रात्रौ + एव = रात्रावेव

परंतु, “ए” या “ओ” के सामने “अ” आये, तो “अ” लुप्त होता है, और उसकी जगह पर “ऽ“ (अवग्रह चिह्न) प्रयुक्त होता है ।

वने + अस्मिन् = वनेऽस्मिन्
गुरो + अहम् = गुरोऽहम्

व्यंजन संधि
 
व्यंजन संधि के काफी नियम हैं, पर नियमों के जरीये इन्हें सीखना याने इन्हें अत्यधिक कठिन बनाने जैसा होगा ! इस लिए केवल कुछ उदाहरणों के ज़रीये इन्हें समजने का प्रयत्न करते हैं;

ग्रामम् + अटति = ग्राममटति

देवम् + वन्दते = देवं वन्दते

ग्रामात् + आगच्छति = ग्रामादागच्छति

सम्यक् + आह = सम्यगाह
परिव्राट् + अस्ति = परिव्राडस्ति

सन् + अच्युतः = सन्नच्युतः

अस्मिन् + अरण्ये = अस्मिन्नरण्ये

छात्रान् + तान् = छात्रांस्तान्


अपश्यत् + लोकः = अपश्यल्लोकः

तान् + लोकान् = ताँल्लोकान्

एतत् + श्रुत्वा = एतत्छ्रुत्वा

वृक्ष + छाया = वृक्षच्छाया
आ + छादनम् = आच्छादनम्

अवदत् + च = अवदच्च

षट् + मासाः = षण्मासाः

सम्यक् + हतः = सम्यग्घतः / सम्यग् हतः

एतद् + हितम् = एतद्धितम् / एतद्हितम्

वर्णों के उच्चारण स्थान का परिचय

वर्णों के उच्चारण स्थान का परिचय

क्र.उच्चारण स्थानसंस्कृत सूत्रउच्चारित वर्ण
1कण्ठअकुह विसर्जनीयानं कण्ठ: |अ,क,ख,ग,घ,ड.,: (विसर्ग)
2तालुइचुयशानां तालु: |इ,च,छ,ज,झ, ञ , य,श
3मूर्धाऋटुरषाणां मूर्धा |ऋ, ट,ठ,ड,ढ,ण,र,ष
4दंतलृतुलसानां दंता: |लृ,त,थ,द,ध,न,ल,स
5ओष्ठउपूपध्मानीयानां ओष्ठौ |उ,प,फ,ब,भ,म
6नासिका´मड.णनानां नासिका च |ड., ञ ,ण,न,म
7कण्ठ तालुएदैतो कण्ठतालु: |ए,ऐ
8कण्ठ ओष्ठओदौतो कण्ठोष्ठम् |ओ,औ
9ओष्ठ दंतवकारस्य दंतोष्ठम् |
10नासिकानसिका अनुस्वारस्य |[ ं](अनुस्वार)

हिंदी के बुनियादी बिंदुओं की जानकारी और सम्बंधित सामान्य भ्रान्तियाँ’



स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बुन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है। उत्पन्न व्यंजन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)। मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओठ, तथा श्वासद्वार (ग्लोटिस) हैं।
व्यंजन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में हवा अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग (तालु, मूर्धा, दांत, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरूद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व से निकले। इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है

हिन्दी व्यंजनों का वर्गीकरण

व्यंजनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है। व्यंजनों के उत्पन्न होने के स्थान से संबंधित व्यंजन को आसानी से पहचाना जा सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग)उच्चरित ध्वनि
द्वयोष्ठ्यप, फ, ब, भ, म
दन्त्योष्ठ्य
दन्त्यत, थ, द, ध
वर्त्स्यन, स, ज, र, ल, ळ
मूर्धन्यट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष
कठोर तालव्यश, च, छ, ज, झ
कोमल तालव्यक, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़
पश्च-कोमल-तालव्यक़
स्वरयंत्रामुखी

उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर वर्गीकरण

1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)
2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)
3. दन्त्य (dental)
4. वर्त्स्य (alveolar)
5. post-alveolar
6. prä-palatal
7. तालव्य (palatal)
8. मृदुतालव्य (velar)
9. अलिजिह्वीय (uvular)
10. ग्रसनी से (pharyngal)
11. श्वासद्वारीय (glottal)
12. उपजिह्वीय (epiglottal)
13. जिह्वामूलीय (Radical)
14. पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)
15. अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)
16. जिह्वापाग्रीय (laminal)
17. जिह्वाग्रीय (apical)
18. sub-laminal

उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध्, प, फ, ब, भ और क़- सभी ध्वनियां स्पर्श हैं। च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यंजनों के वर्ग में रखा जाता है। इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
मौखिक व नासिक्य : व्यंजनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं। हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यंजन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पंचमाक्षर' भी कहा जाता है। इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है। इन व्यंजनों को छोड़कर बाकी सभी व्यंजन मौखिक हैं।
पार्श्विक : इन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (बगल) से निकलती है। 'ल' ऐसी ही ध्वनि है।
अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अनवरोधित रहती है। हिन्दी में य, व अर्धस्वर हैं।
लुंठित : इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा वत्र्स भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यंजन इसी तरह की ध्वनि है।
उत्क्षिप्त : जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा नोक कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उतिक्षप्त कहते हैं। ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यंजन हैं।

घोष और अघोष

व्यंजनों के वर्गीकरण में स्वर-तंत्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस दृष्टि से व्यंजनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है- घोष और अघोष। जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियां अघोष कहलाती हैं। स्वरतंत्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात जिनके उच्चारण में कंपन नहीं होता उन्हें अघोष व्यंजन कहा जाता है।
घोषअघोष
ग , घ , ङक , ख
ज , झ , ञच , छ
ड , द , ण , ड़ , ढ़ट , ठ
द , ध , नत , थ
ब , भ , मप , फ
य , र , ल , व , हश , ष , स
प्राणता के आधर पर भी व्यंजनों का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का अर्थ है- श्वास वायु। जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहा जाता है। पंच वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियां महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यंजन महाप्राण हैं। वर्गों के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ण अल्पप्राण हैं। क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियां इसी वर्ग की हैं।

उच्चारण स्थान तालिका

उच्चारण स्थान तालिका

क्रमवर्णउच्चारणश्रेणी
१.अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह्विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भागकंठस्थ
२.इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् शतालु और जीभतालव्य
३.ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्मूर्धा और जीभमूर्धन्य
४.त् थ् द् ध् न् ल् स्दाँत और जीभदंत्य
५.उ ऊ प् फ् ब् भ् मदोनों होंठओष्ठ्य
६.ए ऐकंठ तालु और जीभकंठतालव्य
७.ओ औकंठ जीभ और होंठकंठोष्ठ्य
८.व्दाँत जीभ और होंठदंतोष्ठ्य



    देवनागरी लिपि

    हिन्दी वर्णमाला मे ५२ अक्षर होते है
    अ से ज्ञ तक
    देवनागरी लिपि में
    जब हम इन्हें लिपि बद्ध करते हैं तभी हिंदी लिखना सीखते हैं ।

    वर्ण- वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे-अ, ई, व, च, क,ख्, इत्यादि।
    ये सभी वर्ण है, क्योंकि इनके खंड नहीं किये जा सकते। उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। 'राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं,जिनके खंड नहीं किये जा सकते- र+आ+म+अ =राम, ग+अ+य+आ =गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं।

    वर्णमाला- वर्णों के समूह को वर्णमाला कहते हैं।
    इसे हम ऐसे भी कह सकते है, किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै।

    वर्ण के भेद

    हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।- (1)स्वर  (2) व्यंजन

    (1) स्वर  :- वे वर्ण जिनका उच्चारण बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता के हो सकता है ,स्वर कहलाता है।
    इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं।

    हिंदी वर्णमाला में 16 स्वर है

    जैसे -अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।

    स्वर के भेद

    स्वर के दो भेद होते है-
    (i) मूल स्वर(ii) संयुक्त स्वर

    (i) मूल स्वर:-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ

    (ii) संयुक्त स्वर:-ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)

    मूल स्वर के भेद

    मूल स्वर के तीन भेद होते है -
    (i) ह्स्व स्वर(ii) दीर्घ स्वर(iii)प्लुत स्वर

    (i)ह्स्व स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है। ह्स्व स्वर चार होते है -अ आ उ ऋ।

    (ii)दीर्घ स्वर :- स्वरों उच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।

    दीर्घ स्वर सात होते है -आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

    दीर्घ स्वर दो शब्दों योग से बनते है।

    जैसे -आ =(अ +अ ) ई =(इ +इ ) ऊ =(उ +उ ) ए =(अ +इ ) ऐ =(अ +ए ) ओ =(अ +उ ) औ =(अ +ओ )

    (iii)प्लुत स्वर :-जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। इसका कोई चिह्न नहीं होता। इसके लिए तीन (३) का अंक लगाया जाता है। जैसे- ओउम। हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं।

    वर्णों की मात्राएँ

    व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिन स्वरमूलक चिह्नों का व्यवहार होता है, उन्हें 'मात्राएँ' कहते हैं। 
    दूसरे शब्दो में- स्वरों के व्यंजन में मिलने के इन रूपों को भी 'मात्रा' कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।
    ये मात्राएँ दस है; जैसे- ा े, ै ो ू इत्यादि। ये मात्राएँ केवल व्यंजनों में लगती हैं; जैसे- का, कि, की, कु, कू, कृ, के, कै, को, कौ इत्यादि। स्वर वर्णों की ही हस्व-दीर्घ (छंद में लघु-गुरु) मात्राएँ होती हैं, जो व्यंजनों में लगने पर उनकी मात्राएँ हो जाती हैं। हाँ, व्यंजनों में लगने पर स्वर उपयुक्त दस रूपों के हो जाते हैं।

    अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग

    अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं।

    अनुनासिक (ँ)- ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।

    अनुस्वार ( ं)- यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।

    निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।

    विसर्ग( ः)- अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।

    टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।

    (2) व्यंजन :- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है। 
    दूसरे शब्दो में-व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है। जैसे- क, ख, ग, च, छ, त, थ, द, भ, म इत्यादि।

    'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- ख्+अ=ख, प्+अ =प। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वरवर्ण स्वतंत्र और व्यंजनवर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजनवर्णो की संख्या ३३ है।

    व्यंजनों के प्रकार -

    व्यंजनों चार प्रकार के होते है-
    (1)स्पर्श व्यंजन
    (2)अंतः स्थ व्यंजन 
    (3)उष्म व्यंजन 
    (4)संयुक्त व्यंजन

    (1)स्पर्श व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह की किसी भाग जैसे -कण्ठ,तालु ,मूर्धा ,दाँत ,अथवा होठ का स्पर्श करती है उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।
    दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है; 
    क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं।

    ये 25 व्यंजन होते है

    (1)कवर्ग- क ख ग घ ङ ये कण्ठ का स्पर्श करते है।

    (2)चवर्ग- च छ ज झ ञ ये तालु का स्पर्श करते है।

    (3)टवर्ग- ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ये मूर्धा का स्पर्श करते है

    (4)तवर्ग- त थ द ध न ये दाँतो का स्पर्श करते है

    (5) पवर्ग- प फ ब भ म ये होठों का स्पर्श करते है

    (2)अंतः स्थ व्यंजन :- अंतः का अर्थ होता है -भीतर। उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह के भीतर ही रहे उन्हें अंतः स्थ व्यंजन कहते है। 
     ये व्यंजन चार होते है - य , र, ल, व। इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन 'अर्द्धस्वर' कहलाते हैं।

    (3)उष्म व्यंजन :- उष्म का अर्थ होता है -गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे उन्हें उष्म व्यंजनकहते है। 
    उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं। ये भी चार व्यंजन होते है -श, ष, स, ह।

    (4)संयुक्त व्यंजन :- ये दो व्यंजनों से मिलकर बनते है। ये निम्नलिखित तीन होते है।-

    क्ष =क +ष +अ

    त्र=त +र +अ

    ज्ञ=श +र +अ

    अल्पप्राण और महाप्राण

    अल्पप्राण और महाप्राण- उच्चारण में वायुप्रक्षेप की दृष्टि से व्यंजनों के दो भेद हैं (1) अल्पप्राण (2) महाप्राण

    (1) अल्पप्राण :-जिनके उच्चारण में श्वास पुरव से अल्प मात्रा में निकले और जिनमें 'हकार'-जैसी ध्वनि नहीं होती, उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहते हैं।
    प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं। जैसे-क, ग, ङ; ज, ञ; ट, ड, ण; त, द, न; प, ब, म,। अन्तःस्थ (य, र, ल, व ) भी अल्पप्राण ही हैं।

    (2) महाप्राण:-महाप्राण व्यंजनों के उच्चारण में 'हकार'-जैसी ध्वनि विशेषरूप से रहती है और श्वास अधिक मात्रा में निकलती हैं। प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण हैं। 
    जैसे- ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह। संक्षेप में अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता हैं।

    घोष और अघोष व्यंजन

    (1) घोष व्यंजन:-नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्तियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष कहलाते हैं।

    (2)अघोष व्यंजन:-नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्तियाँ झंकृत नहीं होती हैं, वे अघोष कहलाते हैं।

    'घोष' में केवल नाद का उपयोग होता हैं, जबकि 'अघोष' में केवल श्र्वास का। उदाहरण के लिए- अघोष वर्ण- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स। 
    घोष वर्ण- प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ वर्ण, सारे स्वरवर्ण, य, र, ल, व और ह।

    हल्

    हल्- व्यंजनों के नीचे जब एक तिरछी रेखा लगाई जाय, तब उसे हल् कहते हैं। 
    'हल्' लगाने का अर्थ है कि व्यंजन में स्वरवर्ण का बिलकुल अभाव है या व्यंजन आधा हैं।
    जैसे- 'क' व्यंजनवर्ण हैं, इसमें 'अ' स्वरवर्ण की ध्वनि छिपी हैं।
    यदि हम इस ध्वनि को बिलकुल अलग कर देना चाहें, तो 'क' में हलन्त या हल् चिह्न लगाना आवश्यक होगा। ऐसी स्थिति में इसके रूप इस प्रकार होंगे- क्, ख्, ग्, च् ।

    हिन्दी के नये वर्ण:हिन्दी वर्णमाला में पाँच नये व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, ड़ और ढ़- जोड़े गये हैं। किन्तु, इनमें प्रथम तीन स्वतंत्र न होकर संयुक्त व्यंजन हैं, जिनका खण्ड किया जा सकता हैं। जैसे- क्+ष =क्ष; त्+र=त्र; ज्+ञ=ज्ञ।

    अतः क्ष, त्र और ज्ञ की गिनती स्वतंत्र वर्णों में नहीं होती। ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर दो नये अक्षर ड़ और ढ़ बनाये गये हैं। ये संयुक्त व्यंजन हैं।

    यहाँ ड़-ढ़ में 'र' की ध्वनि मिली हैं। इनका उच्चारण साधारणतया मूर्द्धा से होता हैं। किन्तु कभी-कभी जीभ का अगला भाग उलटकर मूर्द्धा में लगाने से भी वे उच्चरित होते हैं।

    हिन्दी में अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने की चेष्टा हैं। व्यंजनों के नीचे बिन्दु लगाकर इन नयी विदेशी ध्वनियों को बनाये रखने की चेष्टा की गयी हैं। जैसे- कलम, खैर, जरूरत। किन्तु हिन्दी के विद्वानों (पं० किशोरीदास वाजपेयी, पराड़करजी, टण्डनजी), काशी नगरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन को यह स्वीकार नहीं हैं। इनका कहना है कि फारसी-अरबी से आये शब्दों के नीचे बिन्दी लगाये बिना इन शब्दों को अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप लिखा जाना चाहिए। बँगला और मराठी में भी ऐसा ही होता हैं।

    वर्णों का उच्चारण

    कोई भी वर्ण मुँह के भित्र-भित्र भागों से बोला जाता हैं। इन्हें उच्चारणस्थान कहते हैं।
    मुख के छह भाग हैं-कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दाँत, ओठ और नाक। हिन्दी के सभी वर्ण इन्हीं से अनुशासित और उच्चरित होते हैं। चूँकि उच्चारणस्थान भित्र हैं, इसलिए वर्णों की निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं-

    कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, कवर्ग, ह और विसर्ग। 
    तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- इ, ई, चवर्ग, य और श। 
    मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग, र, ष। 
    दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग, ल, स।
    ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- उ, ऊ, पवर्ग। 
    कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ए,ऐ। 
    कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ओ और औ। 
    दन्तोष्ठय- दाँत से जीभ और ओठों के कुछ योग से बोला जानेवाला वर्ण- व।

    स्वरवर्णो का उच्चारण

    'अ' का उच्चारण- यह कण्ठ्य ध्वनि हैं। इसमें व्यंजन मिला रहता हैं। जैसे- क्+अ=क। जब यह किसी व्यंजन में नहीं रहता, तब उस व्यंजन के नीचे हल् का चिह्न लगा दिया जाता हैं।
    हिन्दी के प्रत्येक शब्द के अन्तिम 'अ' लगे वर्ण का उच्चारण हलन्त-सा होता हैं। जैसे- नमक्, रात्, दिन्, मन्, रूप्, पुस्तक्, किस्मत् इत्यादि ।

    इसके अतिरिक्त, यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ण संयुक्त हो, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- सत्य, ब्रह्म, खण्ड, धर्म इत्यादि।

    इतना ही नहीं, यदि इ, ई या ऊ के बाद 'य' आए, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- प्रिय, आत्मीय, राजसूय आदि।

    'ऐ' और 'औ' का उच्चारण-'ऐ' का उच्चारण कण्ठ और तालु से और 'औ' का उच्चारण कण्ठ और ओठ के स्पर्श से होता हैं। संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में इनका उच्चारण भित्र होता हैं। जहाँ संस्कृत में 'ऐ' का उच्चारण 'अइ' और 'औ' का उच्चारण 'अउ' की तरह होता हैं, वहाँ हिन्दी में इनका उच्चारण क्रमशः 'अय' और 'अव' के समान होता हैं। अतएव, इन दो स्वरों की ध्वनियाँ संस्कृत से भित्र हैं। जैसे-

    संस्कृत मेंहिन्दी मेंश्अइल- शौल (अइ)ऐसा- अयसा (अय)क्अउतुक- कौतुक (अउ)कौन-क्अवन (अव)

    व्यंजनों का उच्चारण

    'व' और 'ब' का उच्चारण-'व' का उच्चारणस्थान दन्तोष्ठ हैं, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से 'व' का उच्चारण होता है और 'ब' का उच्चारण दो ओठों के मेल से होता हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण और लिखावट पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजा यह होता हैं कि लिखने और बोलने में भद्दी भूलें हो जाया करती हैं। 'वेद' को 'बेद' और 'वायु' को 'बायु' कहना भद्दा लगता हैं। संस्कृत में 'ब' का प्रयोग बहुत कम होता हैं, हिन्दी में बहुत अधिक। यही कारण है कि संस्कृत के तत्सम शब्दों में प्रयुक्त 'व' वर्ण को हिन्दी में 'ब' लिख दिया जाता हैं। बात यह है कि हिन्दीभाषी बोलचाल में भी 'व' और 'ब' का उच्चारण एक ही तरह करते हैं। इसलिए लिखने में भूल हो जाया करती हैं। इसके फलस्वरूप शब्दों का अशुद्ध प्रयोग हो जाता हैं। इससे अर्थ का अनर्थ भी होता हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

    (i) वास- रहने का स्थान, निवास। बास- सुगन्ध, गुजर। (ii) वंशी- मुरली। बंशी- मछली फँसाने का यन्त्र। 
    (iii) वेग- गति। बेग- थैला (अँगरेजी), कपड़ा (अरबी), तुर्की की एक पदवी। 
    (iv) वाद- मत। बाद- उपरान्त, पश्रात। 
    (v) वाह्य- वहन करने (ढोय) योग्य। बाह्य- बाहरी।

    सामान्यतः हिन्दी की प्रवृत्ति 'ब' लिखने की ओर हैं। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोशों में एक ही शब्द के दोनों रूप दिये गये हैं। बँगला में तो एक ही 'ब' (व) है, 'व' नहीं। लेकिन, हिन्दी में यह स्थिति नहीं हैं। यहाँ तो 'वहन' और 'बहन' का अन्तर बतलाने के लिए 'व' और 'ब' के अस्तित्व को बनाये रखने की आवश्यकता हैं।

    'ड़' और 'ढ़' का उच्चारण-हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं, जिनका संस्कृत में अभाव हैं। हिन्दी में 'ड' और 'ढ' के नीचे बिन्दु लगाने से इनकी रचना हुई हैं। वास्तव में ये वैदिक वर्णों क और क् हके विकसित रूप हैं। इनका प्रयोग शब्द के मध्य या अन्त में होता हैं। इनका उच्चारण करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उश्रिप्प (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं।
    जैसे- सड़क, हाड़, गाड़ी, पकड़ना, चढ़ाना, गढ़।

    श-ष-स का उच्चारण-ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी व्यंजन हैं।

    'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है और हवा दोनों बगलों में स्पर्श करती हुई निकल जाती है, पर 'ष' के उच्चारण में जिह्ना मूर्द्धा को स्पर्श करती हैं। अतएव 'श' तालव्य वर्ण है और 'ष' मूर्धन्य वर्ण। हिन्दी में अब 'ष' का उच्चारण 'श' के समान होता हैं। 'ष' वर्ण उच्चारण में नहीं है, पर लेखन में हैं। सामान्य रूप से 'ष' का प्रयोग तत्सम शब्दों में होता है; जैसे- अनुष्ठान, विषाद, निष्ठा, विषम, कषाय इत्यादि।

    'श' और 'स' के उच्चारण में भेद स्पष्ट हैं। जहाँ 'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है, वहाँ 'स' के उच्चारण में जिह्ना दाँत को स्पर्श करती है। 'श' वर्ण सामान्यतया संस्कृत, फारसी, अरबी और अँगरेजी के शब्दों में पाया जाता है; जैसे- पशु, अंश, शराब, शीशा, लाश, स्टेशन, कमीशन इत्यादि। हिन्दी की बोलियों में श, ष का स्थान 'स' ने ले लिया है। 'श' और 'स' के अशुद्ध उच्चारण से गलत शब्द बन जाते है और उनका अर्थ ही बदल जाता है। अर्थ और उच्चारण के अन्तर को दिखलानेवाले कुछ उदाहरण इस प्रकार है-

    अंश (भाग)- अंस (कन्धा) । शकल (खण्ड)- सकल (सारा) । शर (बाण)- सर (तालाब) । शंकर (महादेव)- संकर (मिश्रित) । श्र्व (कुत्ता)- स्व (अपना) । शान्त (धैर्ययुक्त)- सान्त (अन्तसहित)।

    'ड' और 'ढ' का उच्चारण-इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है।

    जैसे- डाका, डमरू, ढाका, ढकना, ढोल- शब्द के आरम्भ में। 
    गड्ढा, खड्ढा- द्वित्व में। 
    डंड, पिंड, चंडू, मंडप- हस्व स्वर के पश्रात, अनुनासिक व्यंजन के संयोग पर।

    हिन्दी वर्णमाला

    वर्ण-माला संस्कृत में हर अक्षर, स्वर और व्यंजन के संयोग से बनता है, जैसे कि  “ क ”  याने क् (हलन्त) अधिक अ ।  “ स्वर ”  सूर/लय सूचक है...