अथर्ववेद
वैदिकमन्त्रसंहितायाम् अथर्ववेदस्य कश्चित् विशिष्टम् एव महत्वमस्ति । एतस्या: संहिताया: महत्ववर्धनस्य कानिचन कारणानि अध: दत्तानि सन्ति –
1. ऋग्वेदादय: केवलम् आमुष्मिकफलप्रदातार: सन्ति किन्तु अथर्ववेद: ऐहिकमामुष्मिकम् च फलं प्रददाति । अतएव सायणाचार्यस्य कथनमस्ति – ‘व्याख्या वेदत्रित यमामुष्मिकफलप्रदम् । ऐहिकामुष्मिक फलं चतुर्थं व्याचिकीर्षति’ । (अथर्ववेदभाष्यभूमिका)
2. ब्रह्मा यज्ञस्य सर्वप्रमुख: ऋत्विज: अस्ति, तस्य वेद: अथर्ववेद: अस्ति । गोपथब्राह्मणानुसारं त्रिभि: वेदै: अपि यज्ञस्य मात्रम् एकस्य पक्षस्यैव पूर्ति: भवति; ब्रह्मा मनसा तत् पूर्णतां प्रददाति – ‘स वा एष त्रिभिर्वेदैर्यज्ञस्यान्यतर: पक्ष: संस्क्रियते । मनसैव ब्रह्मा यज्ञस्यान्तरं पक्षं संस्करोति – गोपथ ब्राह्मणम् 1.3.2 ।
3. विभिन्ना लोकरीतय:, अभिचारकर्माणि, चमत्कारा:, जादू-टोना, कृत्या-मूठप्रहरणादिकानि एवं च अन्येषां तात्कालिकविश्वासानां विशालसंग्रह: अस्ति अथर्ववेद: । अतएव मैक्डानलस्य कथनमस्ति – सभ्यताया: इतिवृत्ते: अध्ययनाय ऋग्वेदस्यापेक्षया अथर्ववेदे उपलभ्यमाना सामग्रि: अधिकं रोचकं महत्वपूर्णं चास्ति ।
4. ऋग्वेदस्य दार्शनिकविचाराणां प्रौढरूपम् अस्मिन् एव वेदे प्राप्यते ।
5. आयुर्विज्ञानं, जीवाणुविज्ञानम्, औषधीनां विषये अथर्ववेदे पुष्कला सामग्री प्राप्यते ।
6. ‘माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:’ प्रभृतिमन्त्राणां द्वारा वैदिकी-राष्ट्रियभावनाया: सुदृढप्रतिपादनं सर्वप्रथमम् अत्रैव अभवत् ।
7. शान्ति: पौष्टिककर्माणां च सम्पादनमपि अस्मिन् एव वेदे भवति ।
एतानि एव कारणानि सन्ति यदर्थं स्थाने-स्थाने अस्य वेदस्य भूयसी प्रशंसा भवति ।
अथर्ववेदस्य विभिन्नानि नामानि – अथर्ववेदस्य प्रायश: 8 नामानि प्राप्यन्ते । 1. अथर्ववेद: (अथर्वाऋषिद्वारादृष्टमन्त्राणां संख्या अस्ति अत:), 2. आंगिरसवेद: (अंगिराऋषि: एवं तस्य वंशजै: दृष्टमन्त्रकारणात्), 3. ब्रह्मवेद: (ब्रह्मा अस्य ऋत्विज: अस्ति), 4. भृग्वांगरोवेद: (भृग्वंगिराऋषि: 670 मन्त्राणि दृष्टवानस्ति अत:) 5. भैषज्यवेद: (आयुर्वेद:, चिकित्सा, औषधय: आदीनां विपुलवर्णनकारणात्), महीवेद: (पृथ्वीसूक्तम् अथर्ववेदस्य महत्सूक्तमस्ति अत:), छत्रवेद:, छन्दोवेद: आदीनि नामानि सन्ति अथर्ववेदस्य ।
अथर्ववेदस्य अध्ययन परम्परा – श्रीमद्भागवतानुसारं वेदव्यासेन सर्वप्रथमं तस्य शिष्य: सुमन्तु:, तेन कबन्ध:, तेन पथ्य: देवदर्शौ च द्वौ अपि अस्य वेदस्य अध्ययनं प्राप्तवन्तौ, पथ्येन तस्य त्रय: शिष्या: जाजलि, कुमुद:, शौनक: तथा च देवदर्शस्य चत्वार: शिष्या: मोद:, ब्रह्मबलि:, पिप्पलाद:, शौक्लायनि: च अथर्ववेदस्य ज्ञानं प्राप्तवन्त: । एते एव अग्रे अस्या: शाखाया: प्रसारं कृतवन्त: ।
अथर्ववेदस्य प्रमुखशाखा: – पतंजलिना महाभाष्ये – ‘नवधा अथर्वणो वेद:’ इत्युक्त्वा अथर्ववेदस्य नवशाखा: उल्लिखिता: । प्रपंचहृदये, चरणव्यूहे एवं च ऋग्वेदभाष्यभूमिकायां (सायणाचार्येन) अपि अस्य समर्थनं प्राप्तमस्ति किन्तु नामभिन्नता अस्ति । एता: नवशाखा: सन्ति – पैप्पलाद, तौद, मौद, शौनकीय, जाजल, जलद, ब्रह्मवद, देवदर्श, चारण वैद्य ।
सम्प्रति केवलं शौनकपैप्लादौ द्वे शाखे एव प्राप्येते ।
1. शौनकीया शाखा – अस्मिन् समये एषा एव शाखा अथर्ववेदस्य प्रतिनिधिरस्ति । अस्मिन् 20 काण्डानि, 730 सूक्तानि, एवं च 5987 मन्त्राणि सन्ति । एतेषु षष्ठ, उनविंशतितम:, विंशतितमा: च अध्याया: सर्वतोवृहदा: सन्ति येषु क्रमश: 454, 453, 954 च मन्त्राणि सन्ति । अस्मिन् गद्यांश: अपि प्राचुर्येण प्राप्यते । सायणस्य अपूर्णभाष्यम् अस्योपरि एव प्राप्यते ।
2. पैप्पलाद शाखा – अस्य प्रारम्भिक अंश: अप्राप्त: अस्ति । महाभाष्येन ज्ञायते यत् अस्य प्रथमं मन्त्रम् आसीत् – शन्नो देवीरभिष्टये……….’ सम्प्रति शौनिकीयशाखायाम् एतत् मन्त्रं षष्ठसूक्तस्य आदौ अस्ति । श्री दुर्गामोहन भट्टाचार्य: तस्य आत्मज: दीपक भट्टाचार्य: च अस्या: शाखाया: उद्धारकार्ये विशेषरूपेण प्रयत्नशीलौ स्त: ।
अथर्ववेदस्य अनेकानि स्थलानि अत्यन्तं दुष्कराणि सन्ति । बहूनां शब्द-समूहानाम् अर्थ: एव न ज्ञायते । विंशतितमे काण्डे 127तमसूक्तारभ्य 136तमसूक्तपर्यन्तं कुन्तापनामके विभागे विचित्रसूक्तानि मन्त्राणि च सन्ति । एतेषु कौरम्, रुशम्, राजि, रौहिण, ऐतश, प्रातिसूत्वन्, मण्डूरिका आदय: शब्दा: सन्ति यदर्थे सम्यकतया अद्यापि न ज्ञायते ।
अथर्ववेदस्य प्रमुखसूक्तानि – मेधाजनन सूक्तम् (1.1), विजयप्रार्थना सूक्तम् (1.9), राष्ट्राभिवर्धनसूक्तम् (1.29), राजासंवरणसूक्तम् (3.4), सामनस्य सूक्तम् (3.30), राष्ट्रदेवीसूक्तम् (4.30), ध्रुवोराजासूक्तम् (6.88), राजासूक्तम् (6.128), राष्ट्रसभासूक्तम् (7.11), भूमिसूक्तम् (पृथ्वीसूक्तम्/मातृभूमिसूक्तम्) (12.1) आदीनि सूक्तानि प्रमुखानि सन्ति ।
अथर्ववेद का अर्थ है – ‘अथर्वन का वेद’ अथवा ‘जादू-टोने, जडी-बूटी के मन्त्रो का वेद’। मूल रूप से अथर्वन शब्द का अर्थ है अग्नि पुरोहित और सम्भवत: सामान्य रूप से पुरोहित के लिये यह प्राचीनतम भारतीय शब्द है क्योकि यह शब्द भारत – ईरानीकाल मे भी प्रचलित था। अवस्ता में भी अथर्वन्(अग्नि -पूजक जन) मिलता है। प्राचीन ईरानियों को अग्निपूजक कहा जाता है परन्तु प्राचीन भारत में भी अग्नि का कम महत्त्व नही था। ये सब प्राचीन अग्निपूजक उत्तरी एशिया के शमनों और अमेरिकन इण्डियनों के ग्राम – वैद्यों के समान थे अर्थात एक ही व्यक्ति पुरोहित और जादूगर दोनों होता था। ये ही दोनों अर्थ मीडिया मे प्रचलित ‘माजी’ शब्द हैं। इस प्रकार ‘अर्थवन’ शब्द, अथर्ववेद के जादू मन्त्र या जादूगर पुरोहित के लिये प्रयुक्त होता था। अथर्ववेद के लिये प्राचीनतम शब्द है ‘अथर्वाड्गिरस:’ अर्थात अथर्वन – जन और अन्गिरस – जन। अन्गिरस – जन प्रागैतिहासिक काल के अग्निपुरोहित हैं। अथर्वन शब्द के समान ही अन्गिरस शब्द का अर्थ भी जादू के मन्त्र तथा जादू-टोना हो गया। अथर्वन तथा अन्गिरस इन दो शब्दों से दो विभिन्न प्रकार के जादू मन्त्रों का बोध होता है। अथर्वन पवित्र जादू है जो मंगल व कल्याण देने वाला है। जबकि अन्गिरस का अर्थ है दूसरों को हानि पहुंचाने वाला जादू, काला जादू। अथर्वन जादू के मन्त्रो मे रोगों के निवारण के तथा आयु और पुष्टि के वर्द्धन इत्यादि के मन्त्र हैं जबकि अन्गिरस जादू के मन्त्रों में शत्रुऔं, प्रतिद्वन्दियों तथा हानिकारक जादू करने वालों के विरुद्ध अभिशाप इत्यादि है। इस प्रकार इस प्राचीन नाम ‘अथर्वान्गिर का अर्थ हुआ कि इन दोनों प्रकारों के जादू – मन्त्र। ये ही अथर्ववेद की मुख्य विषय – वस्तु हैं।
अथर्ववेद संहिता मे 731 सूक्त हैं जिन्में कि लगभग 6000 मन्त्र हैं। यह 20 काण्डों मे विभक्त है। विश काण्ड काफ़ी परवर्ती काल मे जोडा गया तथा एकोनविंश कांड भी प्राचीन काल में अथर्ववेद का भाग नहीं था। विंश कांड के लगभग सारे सूक्त अक्षरश: ऋग्वेद से लिया गया है। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद और अथर्ववेद में जो मन्त्र उभ्यसाधारण हैं उनमें से आधे ऋग्वेद के दशम मण्डल से तथा शेष आधे में से अधिकांश ऋग्वेद के प्रथम तथा अष्टम मण्डल में से लिये गये हैं। अथर्ववेद के अष्टादश मूल काण्डों मे सूक्तों की व्यवस्था एक निश्चित योजना के अनुसार है। यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन्का सम्पादन बहुत सावधानी से किया गया है।
प्रथम साथ काण्डों में छोटे – छोटे सूक्तों की संख्या बहुत है। अधिकांशत: प्रथम काण्ड के सूक्तों में चार मन्त्र, द्वितीय मे पांच, तृतीय में छः तथा चतुथ में सात हैं। पंचम कांड मे 142 सूक्त हैं और अधिकांशतः प्रत्येक सूक्त तीन मन्त्रों का है। सप्तम काण्ड मे 118 सूक्त हैं। जिनमें अधिकांशतः एक या दो मन्त्र है। 8-14, 17 तथा 18 काण्डों मे सर्वत्र बहुत लम्बे – लम्बे सूक्त हैं। सब से छोटा सूक्त (8-1) 21 मन्त्रों का है। और सबसे बडा (184) 89 मंत्रों का है। पंचदश कांड तथा षोडश काण्ड का अधिकांश भाग गद्य में से है और शैली की दृष्टि से ब्राह्मण – ग्रंथों की भाषा के समान है। संख्या के अतिरिक्त अथर्ववेद के सम्पादन में विषय वस्तु का भी कुछ ध्यान रखा गया है। एक ही विषय से सम्बद्ध दो, तीन, चार अथवा इससे भी अधिक सूक्त साथ – साथ रखे गये है। कहीं – कहीं किसी काण्ड का प्रथम सूक्त वह रखा गया है जो सारे कांड के विषय से सम्बद्ध है – द्वितीय, चतुर्थ, पन्चम तथा सप्तम कांण्ड अध्यात्म – विद्या सम्बन्धी सूक्तों से प्रारम्भ होते हैं। निर्विवाद यह व्यवस्था योजनापूर्वक की गयी है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि अथर्ववेद संहिता के प्रथम (कांड 1-7) मे विविध विषयों के छोटे छोटे सूक्त हैं, द्वितीय भाग (8-12) में विविध विषयों के लम्बे – लम्बे सूक्त है, जबकि 8-12 काण्ड विषय – वस्तु की दृष्टि से अव्यवस्थित है। उदाहरणार्थ पन्चदश काण्ड में केवल वैवाहिक प्रार्थनाएं है और अष्टादश काण्ड मे केवल अन्येष्टि सूक्त हैं।
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