Wednesday, May 24, 2017
Saturday, May 20, 2017
यज्ञ और विज्ञान
यज्ञीय विज्ञानमन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं । जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्तशब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुननेवालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्टप्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर,सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है ।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा मेंघूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं । डी.डी.टी., फिनायल आदिछिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिककारगर उपाय यज्ञ करना है । साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एकसामूहिक उपाय है । दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियोंसे बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करनेवाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है । मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओंएवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है ।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है । जहाँ यज्ञ होते हैं,वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँजाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है । प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बनेहैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे । जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एकप्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमिउच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं । महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालकविशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं । उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिएयज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है ।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होताहै । इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है । यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुईविवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्व्ार्गीय आनन्द सेभर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग्ा देने वाला कहा गया है ।
यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं ।फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है । यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मणतत्त्व, ऋषि तत्त्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा सेमिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है । आत्मा और परमात्मा को जोड़ देनेका, बाँध देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टूटे हुए टुकड़ों कोबैल्डिंग की अगि्न जोड़ देती है । ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है । इसलिएब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म के लिए अर्पित करनापड़ता है । लोगों के अंतःकरण में अन्त्यज वृत्ति घटे-ब्राह्मण वृत्ति बढ़े, इसके लिएवातावरण में यज्ञीय प्रभाव की शक्ति भरना आवश्यक है ।
विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है । काम, क्रोध,लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशयआदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है । शरीर केअसाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो सकता है ।
अगि्नहोत्र के भौतिक लाभ भी हैं । वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानोंके धुआँ आदि से गन्दा करते हैं । गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है । वायु कोजितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए । यज्ञों से वायु शुद्ध होती है ।इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है ।
यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में जाकर खाद बनकर मिल जाता है । वर्षा के जल केसाथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँउत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते हैं ।यज्ञागि्न के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्वनि कम्पन, सुदूर क्षेत्र मेंबिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीरों की तरहमानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है ।
अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विधानों के साथ,अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं । दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्टसन्तानें प्राप्त की थीं, अगि्नपुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में येरहस्य बहुत विस्तारपूर्वक बताये गये हैं । विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल मेंअसुरता निवारण के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे । राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञकी रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था । लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञकिये थे । महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था,उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करनाही था । जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसकाउपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता । आज पिछले दो महायुद्धोंके कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण मेंवैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है । उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया कोपुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है ।
यज्ञीय प्रेरणाएँयज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञानसम्मत परंपरा सन्निहित है-जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमयसमावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है । जिस प्रकार ‘बालफ्रेम’ में लगी हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनतीसिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाताहै कि हमारे जीवन की प्रधान नीति ‘यज्ञ’ भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए । हम यज्ञआयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें । हमाराजीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो । गंगा स्नान से जिस प्रकारपवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसीप्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षणमिलता है । यज्ञ की प्रक्रिया को जीवन यज्ञ का एक रिहर्सल कहा जा सकता है ।अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्र्रकार हम परमार्थप्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्यआदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए । इस नीति कोअपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं। संसार में जितने भी महापुरुष, देवमानव हुए हैं, उन सभी को यही नीति अपनानीपड़ी है । जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढ़ा सकता, उसेजीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता ।
यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्त्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गयाहै । उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं । वे शिक्षाएँइस प्रकार हैं-
१- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रहकरके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेरदेती है । ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञपुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है । हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदिविभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याणके लिए होना चाहिए ।
२- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने मेंआत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है । जो पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्तिअपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूराकरें ।
३- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर कोही रहती है । प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों औरकार्यों की अधोगति न होने दें । विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबलअग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें ।
४- अग्नि जब तक जीवित है, उष्ण्ाता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहींछोड़ती । उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता कीरोशनी घटने नहीं देनी चाहिए । जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए।
५- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानवजीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है । इसलिए अपने अन्त कोध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए ।
अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों कोबिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान केरूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिकतत्त्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्चमें बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है ।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है । अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हेंकोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों केसहयोग की आवश्यकता है । होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं । यज्ञआयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं ।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है । यज्ञभारतीय संस्कृति का पिता है । यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिकउपासना है । धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनोंकी सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है ।
गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है । सद्भावनाओं एवंसत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टिसे सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है । गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत हीसरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है । जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधनकरने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी हैऔर अद्वितीय भी ।
नगर, ग्राम अथवा क्षेत्र की जनता को धर्म प्रयोजनों के लिए एकत्रित करने के लिएजगह-जगह पर गायत्री यज्ञों के आयोजन करने चाहिए । गलत ढंग से करने पर वेमहँगे भी होते हैं और शक्ति की बरबादी भी बहुत करते हैं । यदि उन्हें विवेक-बुद्धि सेकिया जाए, तो कम खर्च में अधिक आकर्षक भी बन सकते हैं और उपयोगी भी बहुतहो सकते हैं ।
अपने सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है ।उसका विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्मआयोजनों की अधिकांश आवश्यकता पूरी हो जाती है ।
लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्ररूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं । संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भीउसी की प्रधानता है ।
प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को यज्ञ प्रक्रिया से परिचित होना ही चाहिए ।
यज्ञ
यज्ञ
यज्ञ, योग की विधि है जो परमात्मा द्वारा ही हृदय में सम्पन्न होती है।
जीव के अपने सत्य परिचय जो परमात्मा का अभिन्न ज्ञान और अनुभव है, यज्ञ की पूर्णता है। यह शुद्ध होने की
क्रिया है। इसका संबंध अग्नि से प्रतीक रूप में किया जाता है। यज्ञ का अर्थ जबकि
योग है किन्तु इसकी शिक्षा व्यवस्था में अग्नि और घी के प्रतीकात्मक प्रयोग में
पारंपरिक रूचि का कारण अग्नि के भोजन बनाने में, या आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा
वायु शोधन इस अग्नि से होने वाले धुओं के गुण को यज्ञ समझ इस 'यज्ञ' शब्द के प्रचार प्रसार में बहुत सहायक
रहे।
अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृताम वर ॥ 4/8 भगवत गीता
शरीर या देह के दासत्व को छोड़
देने का वरण या निश्चय करने वालों में, यज्ञ अर्थात जीव और आत्मा के योग की
क्रिया या जीव का आत्मा में विलय, मुझ परमात्मा का कार्य है।
अनाश्रित: कर्म फलम कार्यम कर्म करोति य:
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ॥ 1/6 भगवत गीता
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ॥ 1/6 भगवत गीता
अर्थ
यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं- १- देवपूजा, २-दान, ३-संगतिकरण। संगतिकरण का अर्थ
है-संगठन। यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को सत्प्रयोजन
के लिए संगठित करना भी है। इस युग में संघ शक्ति ही सबसे प्रमुख है। परास्त
देवताओं को पुनः विजयी बनाने के लिए प्रजापति ने उसकी पृथक्-पृथक् शक्तियों का
एकीकरण करके संघ-शक्ति के रूप में दुर्गा शक्ति का प्रादुर्भाव किया था। उस माध्यम
से उसके दिन फिरे और संकट दूर हुए। मानवजाति की समस्या का हल सामूहिक शक्ति एवं
संघबद्धता पर निर्भर है, एकाकी-व्यक्तिवादी-असंगठित
लोग दुर्बल और स्वार्थी माने जाते हैं। गायत्री यज्ञों का वास्तविक लाभ सार्वजनिक
रूप से, जन सहयोग
से सम्पन्न कराने पर ही उपलब्ध होता है।
यज्ञ का तात्पर्य है- त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों
एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार
के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक
साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ् वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त
होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद
मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक
एवं शुद्ध बनाती है। इस प्रकार थोड़े ही खर्च एवं प्रयतन से यज्ञकर्ताओं द्वारा
संसार की बड़ी सेवा बन पड़ती है। वैयक्तिक उन्नति और सामाजिक प्रगति का
सारा आधार सहकारिता, त्याग, परोपकार आदि प्रवृत्तियों पर निर्भर
है। यदि माता अपने रक्त-मांस में से एक भाग नये शिशु का निर्माण करने के लिए न
त्यागे, प्रसव की
वेदना न सहे, अपना
शरीर निचोड़कर उसे दूध न पिलाए, पालन-पोषण में कष्ट न उठाए और यह सब कुछ नितान्त निःस्वार्थ
भाव से न करे, तो फिर
मनुष्य का जीवन-धारण कर सकना भी संभव न हो। इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य का जन्म
यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है। गीताकार ने इसी तथ्य को इस
प्रकार कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया
और यह व्यवस्था की, कि एक
दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें।
यज्ञ की विधि
अग्नि को पावक कहते हैं क्योंकि
यह अशुद्धि को दूर करती है। लोहे के अयस्क को उच्च ताप देने पर लोहा पिघल कर
निकलता है। यह क्रिया भी लोहे का यज्ञ है। पारंपरिक विधि में यज्ञ की इस विधि को
प्रतीकों से समझाया जाता रहा है। कुछ लोग उस अग्नि क्रिया को गलती से यज्ञ मान
लेते हैं।
अग्नि में दूध के छींटे पडने से
अग्नि बुझने लगती है। अग्नि और दूध के जल का यह प्रतीकात्मक प्रयोग सिर्फ यह ज्ञान
देता है कि मनुष्य के अनियंत्रित विचार या अनुभव, संसार में अर्थहीन हैं और वह
प्राकृतिक सिद्धांतों द्वारा नहीं फैल सकता। कोई भी अनुभव सर्व व्यापी नहीं होता।
कोई व्यक्ति जो दुखी है वह अपने दुख के अनुभव को कैसे व्यक्त कर सकता है? और यदि वह अपनी बात कहता भी है या
रोता बिलखता है, तो भी
कोई दूसरा व्यक्ति उस दुख को नहीं समझ सकता।
दूध को मथने से उसका जल और घी
अलग अलग हो जाते हैं। अब उसी अग्नि में घी डाला जाता है, जिस से अग्नि उसे प्रकाश में
परिवर्तित कर देती है।। अग्नि और घी का यह प्रतीकात्मक प्रयोग सिर्फ यह ज्ञान देता
है कि जब ज्ञान को उसी अग्नि रूपी सत्य में डाल दिया जाता है तब इस कर्म का प्रभाव
अलग हो जाता है और अग्नि उस ज्ञान को संसार में प्रकाशित हो अंधकार को दूर करती
है।
मुदिता मथइ, विचार मथानी। दम आधार, रज्जु सत्य सुबानी। तब मथ काढ़ि, लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता
॥ 116.8 उत्तरकाण्ड
बिमल ज्ञान जल जब सो नहाई। तब
रह राम भगति उर छायी ॥ 121.6 उत्तरकांड
प्रसन्नता के साथ, सांसरिक विचारों को मथ कर उसे शुद्ध करने की क्रिया, इंद्रियों के संयम को खंबे की तरह खड़ा कर, सत्य और वाणी के रस्सी द्वारा की जाती है। दूध अर्थात संसार के विचार के इसी तरह मथने से घी निकाला जाता है, जिसमें मल अर्थात अशुद्धि नहीं होती और उसमें उत्सर्ग या वैराग्य होता है और वह सुंदर और पवित्र है। जो भी उस निर्मल या मल रहित, ज्ञान से स्नान करता है, उसके हृदय में श्री राम की भक्ति, अपने आप परिछायी की तरह आ जाती है।
दूध, घी और अग्नि और प्रकाश, क्रमशः अनुभव और ज्ञान और विवेक और
सत्य हैं और यज्ञ उनका एक सामंजस्य है।
यदि यज्ञ भावना के साथ मनुष्य ने अपने को जोड़ा न होता, तो अपनी शारीरिक असमर्थता और दुर्बलता के कारण अन्य पशुओं की प्रतियोगिता में यह कब का अपना अस्तित्व खो बैठा होता। यह जितना भी अब तक बढ़ा है, उसमें उसकी यज्ञ भावना ही एक मात्र माध्यम है। आगे भी यदि प्रगति करनी हो, तो उसका आधार यही भावना होगी।
प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा
के अनुरूप है। समुद्र बादलों को उदारतापूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे
ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं। नदी, नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और
प्राणियों की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष एवं वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों
को ही देते हैं। पुष्प और फल दूसरे के लिए ही जीते हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने
लाभ के लिए नहीं, वरन्
दूसरों के लिए ही है। शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं, वरन् समस्त शरीर के लाभ के लिए ही
अनवरत गति से कार्यरत रहता है। इस प्रकार जिधर भी दृष्टिपात किया जाए, यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो
कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ
वृत्ति पर ही अवलम्बित है। यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुन्दरता, कुरूपता में और सारी प्रगति, विनाश में परिणत हो जायेगी। ऋषियों ने
कहा है- यज्ञ ही इस संसार चक्र का धुरा है। धुरा टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़
सकना कठिन है।
यज्ञीय विज्ञान
मन्त्रों में अनेक शक्ति के
स्रोत दबे हैं। जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्त शब्दों की रचना करने से
अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता
है, उसी प्रकार
मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी
प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों
पर पड़ता है।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली
तत्त्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग
कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं। डी.डी.टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या
सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है। साधारण रोगों एवं
महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है। दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित
व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही
पहुँचती है और प्रयतन न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है। मनुष्य की ही
नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के
आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के
अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की
छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता
रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों
में, जिन
स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक
प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं।
महिलाएँ, छोटे
बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें
सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत
मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है। इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है।
यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक
क्षण को स्वर्ग जैसे आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा
गया है।
यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में
भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं। फलस्वरूप तेजी से उसमें
ईश्वरीय प्रकाश जगता है। यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्त्व, ऋषि तत्त्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती
है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है। आत्मा और
परमात्मा को जोड़ देने का, बाँध
देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टूटे हुए टुकड़ों को
बैल्डिंग की अग्नि जोड़ देती है। ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है।
इसलिए ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म के लिए अर्पित
करना पड़ता है। लोगों के अंतःकरण में अन्त्यज वृत्ति घटे-ब्राह्मण वृत्ति बढ़े, इसके लिए वातावरण में यज्ञीय प्रभाव
की शक्ति भरना आवश्यक है।
विधिवत् किये गये यज्ञ इतने
प्रभावशाली होते हैं, जिसके
द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव
है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा
के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है। शरीर के असाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो
सकता है।
अग्निहोत्र के भौतिक लाभ भी
हैं। वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानों के धुआँ आदि से
गन्दा करते हैं। गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है। वायु को जितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए।
यज्ञों से वायु शुद्ध होती है। इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक
बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है।
यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों
में जाकर खाद बनकर मिल जाता है। वर्षा के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी
सभी परिपुष्ट होते हैं। यज्ञागि्न के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के
ध्वनि कम्पन, सुदूर
क्षेत्र में बिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीरों की तरह मानसिक
स्वास्थ्य भी बढ़ता है।
अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक
कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक
विधानों के साथ, अनेक
विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं। दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्ट
सन्तानें प्राप्त की थीं, अग्निपुराण
में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में ये रहस्य बहुत विस्तारपूर्वक
बताये गये हैं। विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल में असुरता निवारण के लिए
बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं
जाना पड़ा था। लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। महाभारत के
पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से
क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करना ही था। जब कभी आकाश के वातावरण में
असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसका
उपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता। आज पिछले दो महायुद्धों के
कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण में वैसा ही
विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है। उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया को
पुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।
यज्ञीय प्रेरणाएँ
यज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ
संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहित है-जहाँ
देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री
भरी पड़ी है। जिस प्रकार 'बाल
फ्रेम' में लगी
हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनती सिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर
लोगों को यह भी समझाया जाता है कि हमारे जीवन की प्रधान नीति 'यज्ञ' भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए। हम यज्ञ
आयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें। हमारा
जीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और
प्रकाशवान् हो। गंगा स्नान से जिस प्रकार पवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली
जाती है, उसी
प्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का
प्रशिक्षण मिलता है। यज्ञ वह पवित्र प्रक्रिया है जिसके द्वारा अपावन एवं पावन के
बीच सम्पर्क स्थापित किया जाता है। यज्ञ की प्रक्रिया को जीवन यज्ञ का एक रिहर्सल
कहा जा सकता है। अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस
प्र्रकार हम परमार्थ प्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्य आदि को भी विश्व मानव के
चरणों में समर्पित करना चाहिए। इस नीति को अपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं।
संसार में जितने भी महापुरुष, देवमानव हुए हैं, उन सभी को यही नीति अपनानी पड़ी है।
जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढ़ा
सकता, उसे जीवन
की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता।
यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्त्व
समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है।
उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार
हैं-
1.
जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रह करके नहीं
रखती, वरन् उसे
सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों
का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। हमारी
शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम
उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।
2.
जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने
समान ही बना लेती है। जो पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्ति अपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान
बनाने का आदर्श पूरा करें।
3.
अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों और कार्यों की अधोगति
न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही
रखें।
4.
अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ
नहीं छोड़ती। उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी
घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ बने रहना चाहिए।
5.
यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि
मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को
ध्यान में रखते हुए जीवन के हर पल के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।
अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप
में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा
इस प्रकार गुप्तदान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने
हमें इतना पौष्टिक तत्त्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य
प्राप्त करना है, कम खर्च
में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है।
अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की
आवश्यकता है। होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं।
यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता
और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है।
यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना
है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य
साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
गायत्री सद्बुद्धि की देवी और
यज्ञ सत्कर्मों का पिता है। सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए
गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है।
गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है। जगत् के
दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री
महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी।
नगर, ग्राम अथवा क्षेत्र की जनता को धर्म
प्रयोजनों के लिए एकत्रित करने के लिए जगह-जगह पर गायत्री यज्ञों के आयोजन करने
चाहिए। गलत ढंग से करने पर वे महँगे भी होते हैं और शक्ति की बरबादी भी बहुत करते
हैं। यदि उन्हें विवेक-बुद्धि से किया जाए, तो कम खर्च में अधिक आकर्षक भी बन
सकते हैं और उपयोगी भी बहुत हो सकते हैं।
अपने सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है। उसका
विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्म आयोजनों की अधिकांश
आवश्यकता पूरी हो जाती है।
लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्र
रूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं। संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भी
उसी की प्रधानता है।
प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को
यज्ञ प्रक्रिया से परिचित होना ही चाहिए।
भगवद्गीता के अनुसार ‘यज्ञ’ भगवद्गीता के अनुसार परमात्मा के
निमित्त किया कोई भी कार्य यज्ञ कहा जाता है। परमात्मा के निमित्त किये कार्य से
संस्कार पैदा नहीं होते न कर्म बंधन होता है। भगवदगीता के चौथे अध्याय में भगवान
श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश देते हुए विस्तार पूर्वक विभिन्न प्रकार के
यज्ञों को बताया गया है। श्री भगवन कहते हैं, अर्पण ही ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, आहुति ब्रह्म है, कर्म रूपी समाधि भी ब्रह्म है और जिसे
प्राप्त किया जाना है वह भी ब्रह्म ही है। यज्ञ परब्रह्म स्वरूप माना गया है। इस
सृष्टि से हमें जो भी प्राप्त है, जिसे अर्पण किया जा रहा है, जिसके द्वारा हो रहा है, वह सब ब्रह्म स्वरूप है अर्थात सृष्टि
का कण कण, प्रत्येक
क्रिया में जो ब्रह्म भाव रखता है वह ब्रह्म को ही पाता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप
हो जाता है। कर्म योगी देव यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं तथा अन्य ज्ञान योगी ब्रह्म
अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं। देव पूजन उसे कहते हैं जिसमें योग
द्वारा अधिदैव अर्थात जीवात्मा को जानने का प्रयास किया जाता है। कई योगी ब्रह्म
अग्नि में आत्मा को आत्मा में हवन करते हैं अर्थात अधियज्ञ (परमात्मा) का पूजन
करते हैं। कई योगी इन्द्रियों के विषयों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को संयमित कर
हवन करते हैं, अन्य
योगी शब्दादि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते है अर्थात मन से इन्द्रिय
विषयों को रोकते हैं अन्य कई योगी सभी इन्द्रियों की क्रियाओं एवं प्राण क्रियाओं
को एक करते हैं अर्थात इन्द्रियों और प्राण को वश में करते हैं, उन्हें निष्क्रिय करते हैं। इन सभी
वृत्तियों को करने से ज्ञान प्रकट होता है ज्ञान के द्वारा आत्म संयम योगाग्नि
प्रज्वलित कर सम्पूर्ण विषयों की आहुति देते हुए आत्म यज्ञ करते हैं। इस प्रकार
भिन्न भिन्न योगी द्रव्य यज्ञ तप यज्ञ तथा दूसरे योग यज्ञ करने वाले है और कई
तीक्ष्णव्रती होकर योग करते हैं यह स्वाध्याय यज्ञ करने वाले पुरुष शब्द में शब्द
का हवन करते है। इस प्रकार यह सभी कुशल और यत्नशील योगाभ्यासी पुरुष जीव बुद्धि का
आत्म स्वरूप में हवन करते हैं। द्रव्य यज्ञ- इस सृष्टि से जो कुछ भी हमें प्राप्त
है उसे ईश्वर को अर्पित कर ग्रहण करना। तप यज्ञ- जप कहाँ से हो रहा है इसे देखना
तप यज्ञ है। स्वर एवं हठ योग क्रियाओं को भी तप यज्ञ जाना जाता है। योग यज्ञ-
प्रत्येक कर्म को ईश्वर के लिया कर्म समझ निपुणता से करना योग यज्ञ है। तीक्ष्ण
वृती- यम नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने
का प्रयास.शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान, श्रद्धा। मन को संसार से रोकना शम है।
बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है। निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना उपरति
है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकरसरलता से
सह लेना तितीक्षा है। रोके
हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है। कई योगी अपान वायु में प्राण वायु का
हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा कई प्राण वायु में
अपान वायु का हवन करते हैं जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन। कई दोनों प्रकार की
वायु, प्राण और
अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम।
कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण
वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार यज्ञों द्वारा
काम क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी; यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान
से परमात्मा को जान लेते हैं। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म
परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है वह
ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर वह योगी तृप्त और आत्म स्थित
हो जाते हैं परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता
है न परलोक में। इस प्रकार बहुत प्रकार की यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं। यह
यज्ञ विधियां कर्म से ही उत्पन्न होती हैं। इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव
मुक्त हो जाता है। द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है।
द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं परन्तु
ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त
होता है। सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है
और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता। प्रज्ज्वलित अग्नि सभी काष्ठ को भस्म कर देती है उसी
प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को; उनकी आसक्ति को भस्म कर देती है। इस
संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा
वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो
जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है। ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे
समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है क्योंकि आत्मा ही
अक्षय ज्ञान का श्रोत है। जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर
उन्हें वशमें रखता है, जो
निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में। ऐसा मनुष्य उस अक्षय
ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त
होता है। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं
करते, लोभ मोह
से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त
होता है।
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