Saturday, May 20, 2017

यज्ञ और विज्ञान

यज्ञीय विज्ञानमन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं । जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्तशब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुननेवालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्टप्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर,सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है ।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा मेंघूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं । डी.डी.टी., फिनायल आदिछिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिककारगर उपाय यज्ञ करना है । साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एकसामूहिक उपाय है । दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियोंसे बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करनेवाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है । मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओंएवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है ।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है । जहाँ यज्ञ होते हैं,वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँजाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है । प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बनेहैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे । जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एकप्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमिउच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं । महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालकविशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं । उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिएयज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है ।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होताहै । इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है । यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुईविवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्व्ार्गीय आनन्द सेभर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग्ा देने वाला कहा गया है ।
यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं ।फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है । यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मणतत्त्व, ऋषि तत्त्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा सेमिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है । आत्मा और परमात्मा को जोड़ देनेका, बाँध देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टूटे हुए टुकड़ों कोबैल्डिंग की अगि्न जोड़ देती है । ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है । इसलिएब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म के लिए अर्पित करनापड़ता है । लोगों के अंतःकरण में अन्त्यज वृत्ति घटे-ब्राह्मण वृत्ति बढ़े, इसके लिएवातावरण में यज्ञीय प्रभाव की शक्ति भरना आवश्यक है ।
विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है । काम, क्रोध,लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशयआदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है । शरीर केअसाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो सकता है ।
अगि्नहोत्र के भौतिक लाभ भी हैं । वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानोंके धुआँ आदि से गन्दा करते हैं । गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है । वायु कोजितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए । यज्ञों से वायु शुद्ध होती है ।इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है ।
यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में जाकर खाद बनकर मिल जाता है । वर्षा के जल केसाथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँउत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते हैं ।यज्ञागि्न के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्वनि कम्पन, सुदूर क्षेत्र मेंबिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीरों की तरहमानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है ।
अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विधानों के साथ,अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं । दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्टसन्तानें प्राप्त की थीं, अगि्नपुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में येरहस्य बहुत विस्तारपूर्वक बताये गये हैं । विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल मेंअसुरता निवारण के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे । राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञकी रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था । लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञकिये थे । महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था,उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करनाही था । जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसकाउपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता । आज पिछले दो महायुद्धोंके कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण मेंवैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है । उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया कोपुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है ।
यज्ञीय प्रेरणाएँयज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञानसम्मत परंपरा सन्निहित है-जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमयसमावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है । जिस प्रकार ‘बालफ्रेम’ में लगी हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनतीसिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाताहै कि हमारे जीवन की प्रधान नीति ‘यज्ञ’ भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए । हम यज्ञआयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें । हमाराजीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो । गंगा स्नान से जिस प्रकारपवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसीप्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षणमिलता है । यज्ञ की प्रक्रिया को जीवन यज्ञ का एक रिहर्सल कहा जा सकता है ।अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्र्रकार हम परमार्थप्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्यआदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए । इस नीति कोअपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं। संसार में जितने भी महापुरुष, देवमानव हुए हैं, उन सभी को यही नीति अपनानीपड़ी है । जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढ़ा सकता, उसेजीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता ।
यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्त्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गयाहै । उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं । वे शिक्षाएँइस प्रकार हैं-
१- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रहकरके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेरदेती है । ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञपुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है । हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदिविभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याणके लिए होना चाहिए ।
२- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने मेंआत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है । जो पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्तिअपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूराकरें ।
३- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर कोही रहती है । प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों औरकार्यों की अधोगति न होने दें । विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबलअग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें ।
४- अग्नि जब तक जीवित है, उष्ण्ाता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहींछोड़ती । उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता कीरोशनी घटने नहीं देनी चाहिए । जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए।
५- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानवजीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है । इसलिए अपने अन्त कोध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए ।
अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों कोबिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान केरूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिकतत्त्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्चमें बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है ।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है । अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हेंकोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों केसहयोग की आवश्यकता है । होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं । यज्ञआयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं ।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है । यज्ञभारतीय संस्कृति का पिता है । यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिकउपासना है । धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनोंकी सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है ।
गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है । सद्भावनाओं एवंसत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टिसे सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है । गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत हीसरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है । जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधनकरने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी हैऔर अद्वितीय भी ।
नगर, ग्राम अथवा क्षेत्र की जनता को धर्म प्रयोजनों के लिए एकत्रित करने के लिएजगह-जगह पर गायत्री यज्ञों के आयोजन करने चाहिए । गलत ढंग से करने पर वेमहँगे भी होते हैं और शक्ति की बरबादी भी बहुत करते हैं । यदि उन्हें विवेक-बुद्धि सेकिया जाए, तो कम खर्च में अधिक आकर्षक भी बन सकते हैं और उपयोगी भी बहुतहो सकते हैं ।
अपने सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है ।उसका विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्मआयोजनों की अधिकांश आवश्यकता पूरी हो जाती है ।
लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्ररूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं । संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भीउसी की प्रधानता है ।
प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को यज्ञ प्रक्रिया से परिचित होना ही चाहिए ।

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